25 जून 2025 को भारत में आपातकाल (Emergency) की 50वीं वर्षगांठ थी। इस दिन को केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और मोदी सरकार ने "संविधान हत्या दिवस" के रूप में प्रचारित किया, जिसका स्पष्ट उद्देश्य कांग्रेस और गांधी परिवार, विशेष रूप से राहुल गांधी, पर निशाना साधना था। राहुल गांधी लंबे समय से मोदी सरकार पर संविधान को कमजोर करने का आरोप लगाते रहे हैं। इस अभियान में इमरजेंसी को तानाशाही का प्रतीक बताते हुए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को निशाना बनाया गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या इंदिरा गाँधी केवल इमरजेंसी की वजह से याद की जाएँगी और क्या इमरजेंसी लगाने के फ़ैसले के लिए कुछ परिस्थितियाँ भी ज़िम्मेदार थीं। साथ ही यह भी समझना ज़रूरी है कि क्या इमरजेंसी के दिनों को याद कराने का अभियान चला रही बीजेपी के शासन में हालात क्या इमरजेंसी जैसे नहीं हैं?

इमरजेंसी के पहले इंदिरा

इमरजेंसी की कहानी को समझने के लिए हमें इंदिरा गांधी के जीवन और उनके समय की परिस्थितियों पर नज़र डालनी होगी। इंदिरा गांधी का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जिसका हर सदस्य स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा था। मोतीलाल नेहरू, स्वरूप रानी नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, कमला नेहरू, विजय लक्ष्मी पंडित और उनके पति रणजीत सीताराम पंडित- सभी ने जेल की सजा काटी और लाठियां खाईं। 1932 में स्वरूप रानी नेहरू ने व्हीलचेयर पर बैठकर सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया और लाठीचार्ज में गंभीर रूप से घायल हुईं। इंदिरा ने बचपन से ही स्वतंत्रता संग्राम की हवा में साँस ली। उन्होंने वानर दल बनाकर बच्चों को संगठित किया और 1942 में अपने पति फिरोज गांधी के साथ जेल में अपना 25वां जन्मदिन मनाया।
आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू ने इंदिरा को कोई विशेष राजनीतिक पद देने से परहेज किया। वे कुछ समय के लिए कांग्रेस अध्यक्ष रहीं, लेकिन नेहरू ने लाल बहादुर शास्त्री को अपना उत्तराधिकारी चुना। शास्त्री जी की मृत्यु के बाद 1966 में इंदिरा गांधी कांग्रेस संसदीय दल के चुनाव में मोरारजी देसाई को हराकर भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं।

इंदिरा गांधी की नीतियाँ और विवाद

इंदिरा गांधी ने अपने शासनकाल में समाजवादी नीतियों को बढ़ावा दिया, जो सामंती और पूंजीवादी शक्तियों के लिए चुनौती बन गईं। 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण, जमींदारी उन्मूलन, पूर्व राजघरानों के प्रीवी पर्स (विशेष भत्ते) को समाप्त करना और सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देना उनके प्रमुख कदम थे। इन नीतियों ने भूमिहीन दलितों और गरीबों को जमीन के पट्टे दिए और सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया। इन कदमों ने दक्षिणपंथी और पूंजीवादी तबके को नाराज कर दिया। 

1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ, और इंदिरा की "गरीबी हटाओ" की नीति ने 1971 के चुनाव में उन्हें प्रचंड जीत दिलाई। उसी वर्ष दिसंबर में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारत की जीत ने इंदिरा को वैश्विक स्तर पर स्थापित किया। 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण विश्व इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना थी।

इमरजेंसी के कारण

इमरजेंसी निश्चित ही लोकतंत्र पर हमला था, लेकिन यह अचानक लगा फ़ैसला नहीं था। इसे लागू करने के पीछे कई कारण थे, जैसे

इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के 1971 के रायबरेली चुनाव को अवैध घोषित किया। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने उन्हें दो छोटे-मोटे आरोपों में दोषी पाया, जैसे उनके भाषण के लिए ऊंचा मंच बनवाना और उनके चुनाव प्रभारी यशपाल कपूर का सरकारी सेवा में रहते हुए प्रचार करना। कई टिप्पणीकारों ने इसे ट्रैफिक नियम उल्लंघन जैसा मामूली मामला माना, लेकिन इस फैसले ने इंदिरा के मन में साजिश की आशंका को बल दिया।

जयप्रकाश नारायण का आंदोलन

1973 में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन और 1974 में बिहार के छात्र संघर्ष समिति के आंदोलन ने सरकार के खिलाफ असंतोष को बढ़ाया। जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने बिहार के आंदोलन को "संपूर्ण क्रांति" का रूप दिया। 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी ने सेना और पुलिस से सरकार के अनैतिक आदेश न मानने की अपील की, जिसे सरकार ने बगावत का आह्वान माना। मशहूर पत्रकार और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के तत्कालीन संपादक शाम लाल ने लिखा कि जेपी का आंदोलन क्रांति के बजाय अराजकता की ओर ले जा रहा था।

बड़ौदा डायनामाइट कांड

जॉर्ज फर्नांडिस पर आरोप था कि उन्होंने आपातकाल के दौरान रेलवे पटरियों और सरकारी भवनों को निशाना बनाने के लिए डायनामाइट का उपयोग करने की साजिश रची। 1974 की रेल हड़ताल, जिसका नेतृत्व फर्नांडिस ने किया, ने कोयला आपूर्ति रोककर उत्पादन ठप करने की कोशिश की। सरकार ने इसे सत्ता को अस्थिर करने की साजिश माना।

सीआईए और वैश्विक साजिश

इंदिरा गांधी को डर था कि अमेरिका की केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) भारत में उनकी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है। 1973 में चिली में सल्वाडोर आलेंदे की सरकार को सीआईए के समर्थन से अपदस्थ किया गया था। इंदिरा ने क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो से कहा था कि चिली में जो हुआ, वही उनके साथ करने की साजिश हो रही है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के 12 दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसले पर रोक लगा दी थी। यानी इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री रह सकती थीं। लेकिन विपक्ष उनके इस्तीफ़े की माँग पर डटा हुआ था। कई राज्यों में क़ानून व्यवस्था की हालत ख़राब हो गयी थी। संविधान का अनुच्छेद 352 आंतरिक अशांति की स्थिति में आपातकाल की इजाजत देता था। इसलिए तकनीकी रूप से इमरजेंसी संवैधानिक थी। हालाँकि, आज कई लोग मानते हैं कि इंदिरा गांधी का आकलन गलत था और उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से स्थिति का सामना करना चाहिए था। आपातकाल के दौरान प्रेस सेंसरशिप, मानवाधिकारों का हनन और विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी ने इसे विवादास्पद बना दिया।

आरएसएस और जनसंघ की भूमिका

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और इसके राजनीतिक संगठन जनसंघ की इमरजेंसी में भूमिका भी विवादास्पद रही। आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को कई पत्र लिखे, जिसमें उन्होंने दावा किया कि आरएसएस जेपी के आंदोलन में शामिल नहीं है। उन्होंने यह भी वादा किया कि यदि उनके स्वयंसेवकों को रिहा किया जाए, तो वे सरकार के 20-सूत्री कार्यक्रम को लागू करने में मदद करेंगे। जब इंदिरा गाँधी बाला साहेब देवरस से मिलने से इंकार कर दिया तो उन्होंने विनोबा भावे को चिट्ठी लिखकर आग्रह किया कि वे इंदिरा गाँधी की संघ के प्रति ग़लतफ़हमी दूर करायें। आरएसएस के स्वयंसेवक रहे देसराज गोयल ने इस संगठन पर लिखी अपनी चर्चित पुस्तक में लिखा कि यरवदा जेल में बंद आरएसएस कार्यकर्ता इमरजेंसी का समर्थन करते थे और संजय गांधी की नीतियों का स्वागत करते थे। कई स्वयंसेवकों ने माफी मांगकर जेल से रिहाई हासिल की।

इमरजेंसी का अंत और सबक

1977 में इंदिरा गांधी ने बिना किसी दबाव के लोकसभा चुनाव कराए, जिसमें वे हार गईं। जनसंघ, समाजवादी और अन्य दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई और सत्ता हासिल की। हालांकि, यह सरकार ढाई साल में ही दोहरी सदस्यता (जनसंघ कार्यकर्ताओं की आरएसएस सदस्यता) के मुद्दे पर गिर गई। 1980 में इंदिरा गांधी ने फिर से प्रचंड जीत हासिल की, और जनता ने उनकी गलती को माफ कर दिया। इंदिरा ने सार्वजनिक रूप से इमरजेंसी के लिए खेद व्यक्त किया और 1978 में 44वें संविधान संशोधन का समर्थन किया, जो भविष्य में आपातकाल लगाने की शक्ति को ख़त्म करता था।

मौजूदा परिदृश्य

आज जब बीजेपी इमरजेंसी को "संविधान हत्या दिवस" के रूप में प्रचारित कर रही है, तब यह सवाल उठता है कि क्या वर्तमान में भारत का लोकतंत्र पूरी तरह स्वतंत्र है? क्या मीडिया आजाद है? क्या नागरिक और मानवाधिकारों का सम्मान हो रहा है? कई बुद्धिजीवी और पत्रकार जेल में हैं, और स्वतंत्र पत्रकारिता पर दबाव की खबरें सामने आ रही हैं। दुनिया भारत को अब "चुनावी लोकतंत्र" (electoral democracy) मान रही है, जो इमरजेंसी से भी बदतर स्थिति का संकेत देता है।

इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र का एक विवादास्पद अध्याय है, जिससे सबक लिया जाना चाहिए। इंदिरा गांधी की गलतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन उनकी उपलब्धियों- जैसे बांग्लादेश का निर्माण, परमाणु परीक्षण और समाजवादी नीतियों- को भी भुलाया नहीं जा सकता। आज जब इमरजेंसी को याद किया जा रहा है, तब वर्तमान सरकार को भी अपने कार्यकाल में लोकतंत्र की स्थिति का आकलन करना चाहिए। इमरजेंसी एक आईना है, जिसमें हर सरकार को अपनी असलियत देखनी चाहिए।