एक ऐसे समय में जब खुद सरकार विभाजन के ज़ख्मों पर मरहम लगाने के बजाय सांप्रदायिक राजनीति को आगे बढ़ाने के मक़सद से ज़ख्मों को कुरेदने के लिए बाकायदा विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने लगी हो और विषम परिस्थितियों में बाहर से पलायन करके और विस्थापित होकर आए शरणार्थी घुसपैठिए की संदिग्ध नज़र से देखे जा रहे हों और उनकी नागरिकता पर संदेह वोट का एक राजनैतिक औज़ार बन गया हो, भारत के सार्वकालिक महानतम फिल्मकारों में गिने जाने वाले ऋत्विक घटक की जन्म शताब्दी पर उनके सिनेमा का पुनर्पाठ ज़रूरी हो जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि घटक समूचे भारतीय सिनेमा में बंटवारे के दर्द के एक ऐसे बिरले महागायक हैं जिनका सिनेमा सिर्फ एक चलती-फिरती-बोलती तस्वीर न होकर भारत विभाजन की मानवीय त्रासदी का करुण, काव्यात्मक और बेहद गहराई से आत्मीय दस्तावेज़ है। ऋत्विक घटक सिर्फ फिल्मकार नहीं थे, बल्कि मनुष्य के अंतर्मन की पीड़ा के कवि, व्यवस्था से नाराज़ एक उग्र सामाजिक कार्यकर्ता और एक बहुत अंतरंग, वैयक्तिक अर्थ में, सभ्यता के विस्थापन के इतिहासकार थे, क्योंकि विभाजन उनके लिए दूर से देखी हुई कोई ऐतिहासिक, राजनीतिक घटना या किसी कथा, कहानी, उपन्यास या फिल्म की कथावस्तु नहीं थी बल्कि उनका खुद भोगा हुआ यथार्थ था।

ऋत्विक घटक ने विस्थापन की पीड़ा को, बेघर हो जाने के दर्द को, जड़ से उखड़ने की तकलीफ को निजी स्तर पर बेहद गहराई से महसूस किया था। यही वजह है कि घटक की विभाजन त्रयी - मेघे ढाका तारा, कोमल गांधार और सुवर्णरेखा का प्रभाव देश-काल की  सीमाओं से परे सार्वभौमिक है और सिर्फ भारत में सिनेमा पढ़ने वाले छात्र और लेखक-निर्देशक ही नहीं, बल्कि पश्चिम के फिल्मकार और हॉलीवुड के दिग्गज निर्देशक भी घटक का लोहा मानते हैं।

ऋत्विक घटक 1925 में अविभाजित भारत के ढाका में (वर्तमान बांग्लादेश) एक प्रगतिशील मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में जन्मे थे। पूर्वी बंगाल की हरियाली, लोकसंस्कृति और संगीत उनके बचपन का हिस्सा रहे— यही तत्व बाद में उनकी फिल्मों के प्रमुख प्रतीक बने। वे मेधावी छात्र थे और उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता चले गए।

बंगाल विभाजन का असर

1947 का बंगाल विभाजन उनकी ज़िंदगी और कला की दिशा तय करने वाला निर्णायक प्रसंग बना। इस रक्तरंजित विभाजन और उसके बाद उत्पन्न शरणार्थी संकट — जिसमें लाखों हिंदू परिवार, जिनमें घटक का परिवार भी शामिल था, पूर्वी बंगाल से पश्चिम बंगाल पलायन कर गए— उनके भीतर गहरी मानसिक पीड़ा का एक ऐसा गहरा घाव कर गया जो उम्र भर रिसता रहा। साझा संस्कृति का विघटन, बेघरपन और विस्थापितों की त्रासदी उन्होंने स्वयं देखी। “खोए हुए घर” की यह अनुभूति उनके समूचे सिनेमा का केंद्रीय विषय बन गई।

सिनेमा में आने से पहले भी घटक एक सचेत वैचारिक जुड़ाव वाले व्यक्ति थे। घटक भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़े हुए थे जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सांस्कृतिक संगठन था। यह दौर उनके वैचारिक गठन के लिए बेहद महत्वपूर्ण रहा। उन्होंने नाटक लिखे, अभिनय किया और निर्देशन भी किया, जिससे उन्होंने सीखा कि कला को सामाजिक और राजनीतिक टिप्पणी का हथियार कैसे बनाया जाए। उत्पीड़ितों के पक्ष में उनकी प्रतिबद्धता और मार्क्सवादी झुकाव उनकी फिल्मों में स्पष्ट दिखता है, लेकिन वे कभी भी इसे केवल प्रचार नहीं बनने देते थे— उनके लिए यह गहरी मानवीय और सभ्यतागत संकटों की खोज थी।

ऋत्विक घटक के सिनेमाई संसार में केवल आठ फीचर फिल्में हैं , लेकिन हर फिल्म कला की दृष्टि से एक शिखर है जिनका केंद्रीय विषय विस्थापन और घर की खोज है। उनकी हर फिल्म के केंद्र में बँटवारे का दर्द है।

उनके पात्र शरणार्थी, निर्वासित और भटके हुए लोग हैं, जो किसी खोए हुए “घर” की तलाश में हैं— वह घर सिर्फ भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संपूर्णता का प्रतीक है।

घटक के सिनेमा में मिथकीय गूंज

घटक के सिनेमा में महाकाव्यात्मक विस्तार और मिथकीय गूंज की उपस्थिति है। घटक भारतीय महाकाव्यों, विशेषकर महाभारत से गहराई से प्रभावित थे। उन्होंने विभाजन को एक आधुनिक महाभारत की तरह देखा— एक सभ्यता की त्रासदी के रूप में। वे समकालीन कहानियों में मिथकीय संरचना पिरो देते थे, जिससे उनके पात्र कालातीत बन जाते थे। घटक ध्वनि और संगीत के अद्वितीय साधक थे। उन्होंने ध्वनि को केवल पृष्ठभूमि नहीं बल्कि कथा और भाव का हिस्सा बनाया। ट्रेन की आवाज़ निर्वासन और खोए हुए वतन की याद के प्रतीक के रूप में उनकी फिल्मों में बार बार उभरती है। बंगाल के बाउल गायक उनके लिए विरह और ईश्वरीय खोज के प्रतीक बने। पात्रों के भीतर की उथल-पुथल को वे अचानक मौन या विस्फोटक ध्वनि से व्यक्त करते थे।

घटक का दृश्य प्रतीकवाद अद्भुत है। उनके फ्रेम अर्थ और प्रतीकों से परिपूर्ण होते थे। पात्रों के बीच मौन एक प्रबल उपस्थिति है, संवादों से ज़्यादा प्रभाव पैदा करता हुआ। नदी जीवन, प्रवाह, विभाजन और सीमाओं का प्रतीक, खंडहर हवेलियाँ टूटे हुए सपनों और बिखरे हुए वतन का संकेत, और स्त्री पात्र जननी जन्मभूमि का प्रतीक— पोषक, पीड़ित, शोषित और अंततः अजेय।

घटक की ‘विभाजन त्रयी’

घटक की ‘विभाजन त्रयी’ में उनकी कला की पराकाष्ठा दिखती है। उनकी सबसे चर्चित तीन फिल्में मिलकर अनौपचारिक रूप से “विभाजन त्रयी” कहलाती हैं—
मेघे ढाका तारा — एक युवा शरणार्थी स्त्री, नीता के आत्मबलिदान की मार्मिक कथा। परिवार के लिए सब कुछ कुर्बान करने के बाद उसका शरीर और मन दोनों टूट जाते हैं। यह फिल्म समाज की आत्मघाती संवेदनहीनता की सबसे दर्दनाक अभिव्यक्ति है।

कोमल गांधार — आंशिक रूप से आत्मकथात्मक फिल्म, जो इप्टा  के भीतर के वैचारिक मतभेदों को दिखाती है। यह विभाजित रंगमंच समूह के रूपक के ज़रिए राष्ट्र के बँटवारे और एकता की खोज को रेखांकित करती है।

सुवर्णरेखा — एक महाकाव्यात्मक त्रासदी जो शरणार्थियों की पीढ़ियों की यात्रा दिखाती है। यह उम्मीद से निराशा तक पहुँचती हुई ऐसी फिल्म है जिसका क्लाइमेक्स सिनेमा इतिहास के सबसे शक्तिशाली दृश्यों में गिना जाता है।

घटक का जीवन लगातार संघर्षों से भरा रहा— आर्थिक संकट, शराब की लत और उद्योग की मुख्यधारा से असहमति। उनकी अदम्य स्वतंत्रता और समझौता न करने की प्रवृत्ति ने उन्हें सिनेमा उद्योग से अलग-थलग कर दिया। त्रयी के बाद उन्होंने बहुत कम फिल्में बनाईं, जिनमें सबसे उल्लेखनीय हैं—

तितास एकटी नदीर नाम (1973) — एक नदी और उसके सहारे जीने वाले समुदाय के पतन की गाथा।

युक्ति तर्को आर गप्पो (1974) — उनकी अंतिम फिल्म और आत्मस्वीकृति की तरह। इसमें वे स्वयं एक निराश, शराबी, बौद्धिक व्यक्ति की भूमिका निभाते हैं जो युद्धोत्तर बंगाल में भटकता है। यह फिल्म नक्सल आंदोलन और बौद्धिक पतन दोनों की आलोचना है। पर सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि इसमें घटक पहली बार स्वयं को “कथानायक” के रूप में पेश करते हैं— एक ऐसे कलाकार के रूप में, जिसने दुनिया से लड़ते-लड़ते अंततः खुद से हार मान ली।

वे कहते हैं—

“मैं शराब के लिए झूठ बोल सकता हूँ, चोरी कर सकता हूँ, पर नाम, शोहरत या पद के लिए नहीं।"

यह सिर्फ परदे पर एक पात्र का संवाद भर नहीं है। यह ऋत्विक घटक के विचारों, कला और उनके जीवन दर्शन का घोषणापत्र भी माना जा सकता है।

1976 में निधन

घटक के अराजक, आत्मघाती जीवन, समझौते न करने की ज़िद, दुनिया के बंधे-बंधाये ढर्रे से अलग कुछ करने की सतत बेचैनी, खंडित व्यक्तित्व, अधूरा जीवन और अपूर्ण सिनेमा, अक्खड़पन, शराब की लत में कहीं-कहीं गुरुदत्त से समानता देखी जा सकती है, हालांकि गुरुदत्त व्यावसायिक तौर पर सफल फिल्मकार भी रहे और घटक की तुलना में काफी संपन्न और व्यवस्थित भी। दोनों ही फिल्मकार मृत्यु के बाद निरंतर विराट होते गये हैं और फिल्म निर्माण के एक महत्वपूर्ण स्कूल की तरह देखे जाते हैं। मेलोड्रामा भी कहीं-कहीं दोनों में समानता दिखाता है लेकिन दोनों का मेलोड्रामा बहुत अलग भी है।

1976 में 51 वर्ष की आयु में शराब से संबंधित जटिलताओं के कारण उनका निधन हुआ— एक असाधारण प्रतिभा का दुखद अंत।
लंबे समय तक ऋत्विक घटक “फिल्मकारों के फिल्मकार” माने जाते रहे— आलोचकों और सहकर्मियों द्वारा पूजे गए लेकिन आम दर्शकों में अपेक्षाकृत कम जाने गए। पर समय के साथ उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती गई। आज वे विश्व सिनेमा में एक अग्रणी फिल्मकार माने जाते हैं जिसने सिनेमा के ज़रिये कुछ कहने के बने बनाये सांचों को तोड़ा और अपने उपकरण खुद गढ़े जो बाद के प्रयोगधर्मी फिल्मकारों को रास्ता दिखाने वाली रौशनी बने।

घटक का जीनियस उनके प्रशिक्षक रूप में भी झलकता है। उन्होंने पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में पढ़ाने के दौरान कुमार शाहनी, मणि कौल, अडूर गोपालकृष्णन, जॉन अब्राहम, सईद मिर्ज़ा, विधु विनोद चोपड़ा और सुभाष घई जैसे फिल्मकार गढ़े जो अपने अपने तरीके से भारतीय सिनेमा के दिग्गज साबित हुए। उनके प्रभाव की झलक कुमार शहानी, मणि कौल जैसे भारतीय निर्देशकों में तो है ही,  मार्टिन स्कॉर्सेसी जैसे वैश्विक दिग्गजों ने भी घटक की असाधारण प्रतिभा के प्रति सम्मान प्रकट किया है।

घटक का सिनेमा अपने समय में व्यावसायिक रूप से असफल रहा, पर उसकी गूंज आने वाली पीढ़ियों में सुनाई दी। कुमार शाहनी, मणि कौल, श्याम बेनेगल, अदूर गोपालकृष्णन जैसे फिल्मकारों ने उन्हें ‘भारतीय समानांतर सिनेमा का आधारस्तंभ’ माना।

कुमार शाहनी ने कहा था—

“घटक ने हमें सिखाया कि सिनेमा को आत्मा की भाषा में बोलना चाहिए।”

उनकी फिल्मों ने यह साबित किया कि कला तभी अर्थवान होती है, जब वह अपने समाज के दर्द को समझे। वे कभी दर्शक को लुभाने के लिए नहीं बने, बल्कि उसे झकझोरने के लिए बने थे। आज, जब विस्थापन, असमानता और विभाजन फिर से हमारे यथार्थ का हिस्सा हैं, घटक का सिनेमा पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो उठा है।
उनकी हर फिल्म हमें याद दिलाती है कि- 
  • “इतिहास केवल दस्तावेज़ों में नहीं, टूटे हुए इंसानों की आँखों में लिखा होता है।”
  • घटक का जीवन और सिनेमा दोनों अपूर्ण हैं — पर उनकी अपूर्णता ही उनकी पूर्णता है।
  • वे एक ऐसे कलाकार थे, जो अपने भीतर के विद्रोह और करुणा दोनों से संचालित थे।
  • उन्होंने कभी आसान रास्ता नहीं चुना, न जीवन में, न कला में।
उनका हर दृश्य, हर संवाद, हर चुप्पी इस बात की गवाही देती है कि वे एक बिरले कलाकार थे —जिन्होंने सिनेमा को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि मानवीय मुक्ति का माध्यम बनाया।

उनकी फिल्मों की धुंध में आज भी एक पुकार सुनाई देती है —
“आमी बाँचते चाई” — मैं जीना चाहती हूँ।

और यही पुकार शायद भारतीय सिनेमा की सबसे मानवीय आवाज़ है — विस्थापन, विद्रोह और करुणा — तीनों को जोड़ती हुई,
एक ऐसे फिल्मकार की स्मृति में, जिसने जलकर भी प्रकाश दिया। वे रचनात्मक ऊर्जा का ज्वालामुखी थे — शिक्षक, सिद्धांतकार और विचारक। उन्होंने सिनेमा पर विपुल लेखन छोड़ा। ऋत्विक घटक ने फिल्में नहीं बनाईं — उन्होंने विस्थापन के सिनेमाई काव्य रचे, उन लाखों जीवनों की स्मृति गढ़ी जिन्हें इतिहास ने तोड़ दिया। उनका सिनेमा आज भी यह गवाही देता है कि कुछ घाव कभी नहीं भरते।