सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अपने ही 20 नवंबर 2025 के उस फैसले पर रोक लगा दी, जिसमें आरावली रेंज की परिभाषा को बदल दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2025 में पर्यावरण मंत्रालय की सिफारिश को स्वीकार कर लिया, जिसमें अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार, अब केवल वे जमीन के हिस्से अरावली माने जाएंगे जो अपने आसपास की जमीन से 100 मीटर या उससे ज्यादा ऊंचे हों। सुप्रीम कोर्ट ने 29 दिसंबर के आदेश में कहा कि इसकी दोबारा समीक्षा की जाएगी। 
सुप्रीम अदालत ने इस मामले में एक विशेषज्ञ पैनल गठित करने का प्रस्ताव दिया है, जो आरावली की ऊंचाई और क्षेत्र में खनन की अनुमति से जुड़े सवालों की गहन जांच करेगा। यह कदम आरावली क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण और खनन गतिविधियों के बीच चल रहे विवाद को ध्यान में रखते हुए उठाया गया है।

कांग्रेस ने स्वागत किया, पर्यावरण मंत्री से इस्तीफा मांगा

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, संचार प्रभारी और सांसद जयराम रमेश ने पार्टी की ओर से सुप्रीम कोर्ट के 29 दिसंबर 2025 के अरावली आदेश का स्वागत किया है। जयराम रमेश ने बयान में कहा कि  कांग्रेस पार्टी अरावली पर्वतमाला की पुनर्परिभाषा पर सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले का स्वागत करती है। अब इस मुद्दे का और अधिक विस्तार से अध्ययन किया जाना आवश्यक है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि इस पुनर्परिभाषा का भारतीय वन सर्वेक्षण, सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति और स्वयं एमिकस क्यूरी (अदालती प्रतिनिधि) ने विरोध किया है। फिलहाल कुछ समय के लिए राहत मिली है, लेकिन मोदी सरकार द्वारा अरावली पर्वतमाला को खनन, रियल एस्टेट और अन्य गतिविधियों के लिए खोलने के साजिशों से बचाने के लिए संघर्ष निरंतर जारी रखना होगा। आज (सोमवार) के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से आशा की एक किरण जगी है। इस फैसले के मद्देनज़र केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री को तत्काल इस्तीफा देना चाहिए। यह पुनर्परिभाषा के पक्ष में उनके द्वारा दिए गए सभी तर्कों को खारिज करता है।
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आरावली रेंज लंबे समय से पर्यावरणीय महत्व और खनन संबंधी मुद्दों के केंद्र में रही है। परिभाषा को सीमित करने से विकास कार्यों और संरक्षण नीतियों पर व्यापक असर पड़ सकता था। सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम आदेश से अब इस क्षेत्र की सटीक परिभाषा निर्धारित करने की प्रक्रिया में विशेषज्ञों की राय को शामिल किया जाएगा।

अरावली की नई परिभाषा क्यों खतरनाक

अरावली पर्वत श्रृंखला की नई परिभाषा को लेकर राजनीतिक और पर्यावरणीय विवाद अभी जारी है। कांग्रेस मोदी सरकार पर तीखा हमला बोल रही है। उसने मोदी सरकार से पूछा है कि सरकार अरावली को फिर से परिभाषित करने पर क्यों "अड़ी" है और यह किसके फायदे के लिए किया जा रहा है? पार्टी ने इसे देश की प्राकृतिक धरोहर और पारिस्थितिक महत्व वाली श्रृंखला की सुरक्षा के लिए खतरा बताया। दूसरी तरफ मोदी सरकार इस बात पर अड़ी हुई है कि बहुत मामूली सा क्षेत्र नई परिभाषा के तहत आएगा और कोई नुकसान नहीं होगा। अतीत में अरावली में खनन माफिया सक्रिय रहे हैं जो विधायक, सांसद और मंत्री तक बने। कांग्रेस का कहना है कि अरावली में फिर से खनन का रास्ता खोला जा रहा है। अरावली को लेकर राजस्थान और हरियाणा में प्रदर्शन हो रहे हैं।

कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने सोशल मीडिया पर 23 दिसंबर को लिखा था, "अरावली हमारी प्राकृतिक धरोहर का हिस्सा हैं और इनका बड़ा महत्व है। इन्हें बड़े पैमाने पर संरक्षण और सार्थक सुरक्षा की जरूरत है। मोदी सरकार इन्हें फिर से परिभाषित करने पर क्यों आमादा है? किस उद्देश्य से? किसके लाभ के लिए? और फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया जैसी पेशेवर संस्था की सिफारिशों को जानबूझकर क्यों नजरअंदाज किया जा रहा है?"

सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश से मोदी सरकार के बयान की धज्जियां उड़ीं

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव इससे पहले कांग्रेस पर "गलत जानकारी फैलाने" का आरोप लगा चुके हैं। यादव ने कहा था कि अरावली क्षेत्र के केवल 0.19 प्रतिशत हिस्से में ही कानूनी खनन की अनुमति है और मोदी सरकार अरावली की सुरक्षा और संरक्षण के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस के शासनकाल में राजस्थान में अवैध खनन को बढ़ावा मिला था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट अब इसकी नई परिभाषा पर फिर से विचार करेगी। साथ ही विशेषज्ञों के पैनल भी सुझाव देंगे। ऐसे में सरकार के बयान का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
 

सरकारी आंकड़ा धोखाधड़ी वाला

जयराम रमेश ने केंद्रीय मंत्री के दावे को भ्रामक बताया। उन्होंने कहा कि 1.44 लाख वर्ग किलोमीटर के कुल क्षेत्र में 0.19 प्रतिशत भी लगभग 68,000 एकड़ का विशाल क्षेत्र है। साथ ही, यह आंकड़ा धोखेबाजी वाला है क्योंकि यह चार राज्यों के 34 अरावली जिलों की पूरी भूमि को आधार मानता है, जबकि सही आधार अरावली श्रृंखला का वास्तविक क्षेत्र होना चाहिए। रमेश के अनुसार, सत्यापन योग्य डेटा वाले 15 जिलों में अरावली कुल भूमि का करीब 33 प्रतिशत हिस्सा कवर करती है, ऐसे में 0.19 प्रतिशत का आंकड़ा वास्तविकता से बहुत कम है।

यह विवाद सड़कों तक पहुंच गया है। हाल के दिनों में हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव और राजस्थान के सिरोही, उदयपुर जैसे शहरों में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुए, जहां निवासियों, किसानों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं और वकीलों ने चिंता जताई। 'पीपल फॉर अरावली' ग्रुप की संस्थापक नीलम अहलूवालिया ने कहा कि नई परिभाषा दिल्ली की तरफ बढ़ते रेगिस्तान को रोकने, भूजल रिचार्ज और आजीविका सुरक्षा में अरावली की भूमिका को कमजोर करेगी। पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत टोंगर ने जोर दिया कि अरावली को केवल ऊंचाई से नहीं, बल्कि इसके ईको सिस्टम, भूवैज्ञानिक और जलवायु भूमिका से परिभाषित करना चाहिए।
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अरावली पहाड़ी जिन प्रमुख शहरों से होकर गुज़र रही है, वहां इसका सबसे ज्यादा दोहन हो रहा है। दिल्ली, गुड़गांव, फरीदाबाद में प्रॉपर्टी डीलरों ने प्लॉट काट कर बेच दिया है। जहां विशालकाय अपार्टमेंट खड़े हो गए। फरीदाबाद और गुड़गांव में अरावली के जंगल पूरी तरह खत्म कर दिए गए हैं। फरीदाबाद-गुड़गांव में कई नेताओं के फॉर्म हाउस भी हैं। यही स्थिति राजस्थान में है। राजस्थान के खनन माफिया को अब बीजेपी नेताओं का संरक्षण मिला हुआ है या फिर वे खुद ही खनन गतिविधियों में लगे हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट का 29 दिसंबर का फैसला अरावली क्षेत्र में खनन गतिविधियों और पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी नीतियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। मामले की आगे की सुनवाई में विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट पर विचार किया जाएगा। मामले की अगली सुनवाई 21 जनवरी को होगी। देखना है कि विशेषज्ञ पैनल में किस तरह के लोगों को रखा जाता है। क्योंकि उनकी रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट अरावली का भविष्य तय करेगा।