महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव परिणाम से बीजेपी और मोदी सरकार को सचेत ज़रूर हो जाना चाहिए।
बीजेपी के हाथ से झारखंड भी निकल गया। झारखंड हारने के दुख ने महाराष्ट्र और हरियाणा से मिले ज़ख्मों को ताज़ा कर दिया है। महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी जिस जीत की उम्मीद लगाए बैठी थी, वह उसे नहीं मिली। इसके बाद उसने झारखंड में पूरी ताक़त झोंकी लेकिन यहाँ से भी उसे निराशा मिली है।
महाराष्ट्र में बीजेपी को पिछली बार अकेले लड़ने के बाद भी 122 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार मिलीं 105। महाराष्ट्र में वह बड़ी जीत मिलने के दावे कर रही थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हरियाणा में उसका नारा था 75 प्लस लेकिन सीट मिलीं 40। जबकि लोकसभा चुनाव में उसने सभी 10 सीटें जीती थीं। इसी तरह झारखंड में भी उसने नारा दिया था 65 प्लस का। हालाँकि यह नारा सहयोगी दल ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के साथ लड़ने को लेकर था लेकिन फिर भी उसे सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 41 सीटें जीतने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन वह 25 सीटों पर आकर अटक गयी। जबकि झारखंड में भी वह लोकसभा चुनाव में 11 सीटें अपने दम पर जीती थी।
विपक्षी दलों को मिली संजीवनी
दिल्ली में बीजेपी 1998 से ही सत्ता के वनवास पर है और उसका यह वनवास ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है। इस बार उसकी पूरी कोशिश है कि वह इस वनवास को ख़त्म करे लेकिन झारखंड की हार ने उसके माथे पर बल ला दिए हैं।
दिल्ली के बाद बड़ी चुनौती है बिहार में। बिहार झारखंड से सटा हुआ राज्य है और सीधे बोलें कि झारखंड बिहार से ही निकला है। झारखंड में जिस राजनीतिक गठबंधन ने बीजेपी को मात दी है, उस गठबंधन में शामिल दो दलों - राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस से बीजेपी को बिहार में लड़ाई लड़नी है। इसके अलावा उसकी सहयोगी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) उसके ख़िलाफ़ झारखंड में ताल ठोक चुकी है। एनडीए की एक और सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने भी झारखंड में बीजेपी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा।
झारखंड में बीजेपी की हार का सीधा मतलब यह है कि जेडीयू और एलजेपी अब बिहार में बीजेपी से सीटों के मोल-भाव में तुनकमिजाजी करेंगे। राजनीति का फलसफा यही है जब तक ताक़तवर हो सब ठीक है, जैसे ही कमजोर हुए अपने ही आंखें दिखाने लगेंगे।
झारखंड की राजनीति का बहुत हद तक प्रभाव बिहार में पड़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। और बिहार में चुनाव ज़्यादा दूर नहीं हैं। बमुश्किल 11 महीने के अंदर सरकार बन जानी है। बिहार बीजेपी के अंदर कई नेता ऐसे हैं जिनकी जिद है कि राज्य में बीजेपी अपने दम पर चुनाव लड़े। हालाँकि अमित शाह ने साफ़ कर दिया है कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून, एनआरसी के मुद्दे पर बीजेपी की जेडीयू के साथ खटपट हुई है और ऐसे में जेडीयू के साथ उसके रिश्ते बहुत अच्छे नहीं हैं।
बिहार में बीजेपी को जेडीयू और एलजेपी के नखरे बर्दाश्त करने होंगे और इस बात का गुरूर भी छोड़ना होगा कि लोकसभा चुनाव में वह 300 से ज़्यादा सीटें जीती है। कांग्रेस भी 1984 में 400 से ज़्यादा सीटें जीती थी लेकिन 1989 में यह सीटें आधी रह गईं थीं।