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क्या आप रोज़ाना 22 सौ करोड़ रुपये कमा सकते हैं?

देश के कुल 119 लोगों की आय क़रीब 22 सौ करोड़ रुपये रोज़ बढ़ रही है। इसी दौर में कृषि क्षेत्र पर निर्भर क़रीब 60 फ़ीसदी लोगों की आय घट रही है। या यूँ कहें कि लगभग तबाह ही है। ख़ुदरा मज़दूरी की दरें जिन पर तीस फ़ीसदी आबादी निर्भर है, कमोबेश स्थिर है। केंद्र और राज्यों में सातवें वेतन आयोग को अभी बहुत बड़े हिस्से में लागू किया जाना बाक़ी है यानी सरकारी कर्मचारियों के बहुमत की आय भी स्थिर ही है। और देश पर बीते चार सालों में क़रीब पचास फ़ीसदी कर्ज बढ़ा है।

तो ये कौन लोग हैं जिन्हें मोदी राज में इतना इत्मिनान, इतनी अनुकूल परिस्थितियाँ मिलीं कि उनके खातों में हर रोज़ 22 सौ करोड़ रुपये बढ़ रहे हैं?

  • ऑक्सफ़ैम द्वारा वर्ल्ड इकनॉमिक फ़ोरम, दावोस, में पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 18 नये खरबपति बढ़े हैं जिनसे देश में खरबपतियों की कुल संख्या 119 हो गई है। इन सबकी कुल संपत्ति देश के 2018-19 के सकल बजट से भी ज़्यादा हो चुकी है जो क़रीब पच्चीस हज़ार बिलियन डॉलर के आस पास है।

ग़ौरतलब है कि इस खरबपति विकास योजना के दौर में भारत का स्वास्थ्य और शिक्षा पर निवेश लज्जाजनक रहा है। कहा जा सकता है कि नीतियों के निर्धारक इस बदहाली को बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लेते। 

  • ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि 130 करोड़ लोगों के लिए सभी राज्यों और केंद्र सरकार का स्वास्थ्य, पेय जल, साफ़-सफ़ाई का पूरा बजट देश के सबसे बड़े एक सेठ मुकेश अंबानी की दौलत से भी कम है। इसका कुल बजट 2,08,166 करोड़ ही है, जबकि मुकेश अंबानी की घोषित या ज्ञात आय 2,80,700 करोड़ रुपये है।
बीते साल भारत की सकल आय सात फ़ीसदी की दर से क़रीब 151 बिलियन डॉलर बढ़ी, जबकि इसी दौरान कुल एक फ़ीसदी सेठों की दौलत 39% की रफ़्तार से बढ़ी। ठीक इसी वक़्त देश की पचास फ़ीसदी आबादी की आय में वृद्धि दर कुल तीन फ़ीसदी रही।

नीतियों का प्रचंड फ्रॉड!

नीतियों के प्रचंड फ्रॉड का नतीजा यह निकला है कि देश की 74.3 फ़ीसदी दौलत दस फ़ीसदी लोगों के पास इकट्ठी हो चुकी है। इनमें भी ऊपर के सिर्फ़ नौ लोगों के पास देश के पचास फ़ीसदी लोगों से ज़्यादा दौलत इकट्ठा हो चुकी है।

पेरिस स्कूल ऑफ़ इकनॉमिक्स में एक 'वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब' नामक फ़ोरम बना हुआ है। लुकास चॉसेल इसके को-डायरेक्टर हैं। यह फ़ोरम दुनिया भर में बढ़ते असमान विकास का अध्ययन करता है। लुकास के अनुसार, ‘1980 के बाद चीन और भारत में असमानता तेज़ी से बढ़ी। भारत में यह वीभत्स थी तो चीन में भी गंभीर कारक थी। पर चीन में स्वास्थ्य और शिक्षा में योजनाबद्ध तरीक़े से इन्फ़्रास्ट्रक्चर के समानांतर बहुत बड़ी राशि ख़र्च की गई जिसने इसकी निचली आय वाली 50% आबादी की हालत में फ़र्क़ ला दिया। भारत ने ऐसा कुछ ख़ास नहीं किया। मनरेगा तक में सरकारों की अरुचि का दिनोंदिन बढ़ना इसका संकेत है।’

स्वास्थ्य की हालत ख़राब क्यों?

देश में काफ़ी लंबे समय से स्वास्थ्य पर बजट का कुल 1.3 फ़ीसदी तक ही ख़र्च कर किया जा रहा है। जो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन क़रीब तीन रुपये बैठता है। साथ ही राइट टू एजुकेशन बिल तो पास हो गया पर इसकी अहर्ताओं के सबसे निचले स्तर पर भी सरकारें नहीं पहुँची हैं तो शिक्षा का हाल क्या है यह समझना मुश्किल नहीं!

अमीर-ग़रीब खाई गहरी

बाद में लुकास के इस अध्ययन को बीते वर्ष असमानता पर विश्व-प्रसिद्ध रिपोर्ट का हिस्सा बनाया गया जिसे फ़ाकुन्दो अल्वारेडो, इमैन्युएल सायेज, गैब्रियल जुकमैन और थॉमस पिकैती ने जारी किया था।

असमानता वाले देशों के विश्व चार्ट में भारत का स्थान बारहवाँ है जो हमारी विशाल आबादी और दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था होने के कारण बेहद गंभीर मसला है। समाज-शास्त्रियों में इस बारे में एक राय है कि ऐसी परिस्थिति स्थिरता कायम नहीं रख सकती। हम अपने समाज में अलगाववाद समेत जो हर तरह के कोलाहल, हिंसा, विभाजन भय और संदेह देख रहे हैं, वह सब आख़िर में उन्हीं आर्थिक फ़ैसलों से पैदा होता है जो अंबानी को अंबानी और बाक़ियों को दारुण-दरिद्र रखते हैं।

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शीतल पी. सिंह
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