18 रिटायर्ड जजों ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के उस बयान की कड़ी आलोचना की है जिसमें उन्होंने विपक्षी दलों द्वारा चुने गए उपराष्ट्रपति उम्मीदवार पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज बी सुदर्शन रेड्डी पर विवादास्पद बयान दिया है। सलवा जुडूम मामले में फ़ैसले को लेकर शाह ने दो दिन पहले ही जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी पर नक्सलवाद को 'समर्थन' देने का आरोप लगाया। जस्टिस रेड्डी, जस्टिस एस एस निज्जर के साथ सुप्रीम कोर्ट की उस पीठ का हिस्सा थे जिसने जुलाई 2011 में सलवा जुडूम को ख़त्म करने का आदेश दिया था और निर्णय दिया था कि माओवादी विद्रोहियों के खिलाफ लड़ाई में आदिवासी युवकों को विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में इस्तेमाल करना अवैध और असंवैधानिक है।

इस मामले में अमित शाह के बयान को 18 रिटायर्ड जजों ने दुर्भाग्यपूर्ण क़रार दिया और कहा कि अमित शाह ने सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का ग़लत मतलब निकाला है। सेवानिवृत्त जजों ने एक संयुक्त बयान में कहा कि गृह मंत्री अमित शाह का सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सार्वजनिक रूप से गलत व्याख्या करना दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने साफ़ किया कि सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला कहीं भी नक्सलवाद या उसकी विचारधारा का समर्थन नहीं करता। उन्होंने कहा कि इस फ़ैसले को पढ़ने से ऐसा कोई निहितार्थ भी नहीं निकलता है।
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'कोर्ट की स्वतंत्रता पर बुरा असर पड़ सकता है'

18 सेवानिवृत्त जजों ने अपने बयान में कहा कि उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव प्रचार भले ही वैचारिक हो, लेकिन इसे सभ्य तरीक़े और गरिमा के साथ किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, 'किसी भी उम्मीदवार की तथाकथित विचारधारा की आलोचना से बचना चाहिए।' जजों ने चेतावनी दी कि किसी उच्च राजनीतिक हस्ती द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पक्षपातपूर्ण गलत व्याख्या से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर बेहद बुरा असर पड़ सकता है और यह सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए चिंताजनक हो सकता है।

बयान पर हस्ताक्षर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों में ए के पटनायक, अभय ओका, गोपाल गौड़ा, विक्रमजीत सेन, कुरियन जोसेफ, मदन बी लोकुर और जे चेलमेश्वर शामिल हैं। इसके अलावा, तीन पूर्व हाई कोर्ट मुख्य न्यायाधीशों- गोविंद माथुर, एस मुरलीधर और संजीब बनर्जी - ने भी इस बयान पर हस्ताक्षर किए हैं। अन्य हस्ताक्षरकर्ताओं में हाई कोर्ट के पूर्व जज अंजना प्रकाश, सी प्रवीण कुमार, ए गोपाल रेड्डी, जी रघुराम, के कन्नन, के चंद्रू, बी चंद्रकुमार और कैलाश गंभीर शामिल हैं। प्रोफ़ेसर मोहन गोपाल और वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने भी इस बयान का समर्थन किया है।

सेवानिवृत्त जजों ने भारत के उपराष्ट्रपति के पद के सम्मान को ध्यान में रखते हुए नाम लेकर आलोचना करने से बचने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि इस तरह की टिप्पणियाँ न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठाती हैं, बल्कि देश के एक संवैधानिक पद की गरिमा को भी प्रभावित करती हैं।

अमित शाह का आरोप

केरल में शुक्रवार को एक भाषण के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने बी सुदर्शन रेड्डी पर नक्सलवाद को 'समर्थन' देने का आरोप लगाया था। शाह ने दावा किया कि यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो नक्सल आतंकवाद खत्म हो गया होता। उन्होंने कहा, 'सुदर्शन रेड्डी वह व्यक्ति हैं जिन्होंने नक्सलवाद को मदद की। उन्होंने सलवा जुडूम का फैसला दिया। अगर यह फैसला नहीं आया होता, तो नक्सल आतंकवाद 2020 तक खत्म हो गया होता।'

जस्टिस रेड्डी का जवाब

इसके जवाब में शनिवार को बी सुदर्शन रेड्डी ने कहा कि वह गृह मंत्री के साथ कोई विवाद नहीं करना चाहते। उन्होंने जोर देकर कहा कि सलवा जुडूम का फ़ैसला उनका व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट का था। रेड्डी ने यह भी कहा कि अगर शाह ने पूरा फैसला पढ़ा होता, तो शायद वह ऐसी टिप्पणियां नहीं करते।
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क्या था सलवा जुडूम केस?

सलवा जुडूम छत्तीसगढ़ में माओवादी उग्रवाद के ख़िलाफ़ शुरू किया गया एक विवादास्पद अभियान था, जिसमें स्थानीय आदिवासियों को हथियार देकर नक्सलियों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया गया था। इसे एक सशस्त्र नागरिक मिलिशिया के रूप में देखा जाता था। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में सामाजिक कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार संगठनों द्वारा दायर याचिकाओं के माध्यम से उठाया गया था, जिन्होंने सलवा जुडूम की गतिविधियों को मानवाधिकारों का उल्लंघन और असंवैधानिक बताया था।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस एस एस निज्जर की सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने जुलाई 2011 में सलवा जुडूम को भंग करने का आदेश दिया था। कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि माओवादी उग्रवाद से लड़ने के लिए आदिवासी युवाओं को विशेष पुलिस अधिकारी यानी एसपीओ के रूप में उपयोग करना अवैध और असंवैधानिक है। यह फ़ैसला छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम के संचालन को लेकर आया था, जिसे नक्सलवाद के ख़िलाफ़ एक नागरिक मिलिशिया के रूप में देखा जाता था।
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जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस एस.एस. निज्जर की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि आदिवासी युवाओं को विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में नियुक्त करना और उन्हें हथियार देकर माओवादियों के खिलाफ लड़ने के लिए मजबूर करना संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता का अधिकार और अनुच्छेद 21 यानी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार का उल्लंघन है। अदालत ने कहा कि सलवा जुडूम जैसे अभियान राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा को बढ़ावा देते हैं और सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाते हैं। कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार को आदेश दिया था कि सलवा जुडूम को तत्काल भंग किया जाए और आदिवासियों को दी गई बंदूकें वापस ली जाएं।


बहरहाल, यह मामला न केवल राजनीतिक और न्यायिक क्षेत्रों के बीच तनाव को दिखाता है, बल्कि यह भी बताता है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों की व्याख्या को लेकर कितना सावधानी बरतने की ज़रूरत है। सेवानिवृत्त जजों का यह बयान एक बार फिर न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने के महत्व को बताता है।