प्रेमचंद ख़ुद मुदर्रिस रह चुके हैं। तालीम के महकमे से दूसरी हैसियत में भी जुड़े हुए थे। अध्यापक, हेडमास्टर और स्कूल इंस्पेक्टर रह कर उन्होंने औपचारिक शिक्षा को उसके अलग-अलग पहलू से समझा था। लेकिन वह इस शिक्षा के मुरीद न हो सके। वह उनके लिए संदेह और उपहास की वस्तु बनी रही। पढ़िए, प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिदी की विशेष शृंखला की 25वीं कड़ी।
“कुछ अजीब दिल्लगी है कि हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जब कोई लड़का फेल हो जाता है, तो उसे इसकी यह सजा दी जाती है कि स्कूल से निकाल दिया जाता है, और जब अपने स्कूल ने निर्दयता से निकाल दिया, तो ऐसे निकाले हुए लड़कों को दूसरा स्कूल क्यों लेने लगा। इस प्रकार लड़के के लिए शिक्षा के द्वार चारों ओर से बंद हो जाते हैं। कितनी दयनीय परिस्थिति है।”
“या तो हमें इतने स्कूल चाहिए कि सभी बच्चे पढ़ सकें या मौजूदा स्कूलों से इस कैद को उठाकर और जगहें निकालनी चाहिए...”
“...उत्तम यह है कि इम्तहानों को और सरल कर दिया जाय, जिससे अधिक से अधिक बच्चे पास हो सकें।”
“जब स्कूल या कॉलेज की सनद नौकरी के लिए बेकार हो गई है, तो क्यों लड़कों पर इतनी कैद लगाई जाए।”
“...क्या लड़के के फेल हो जाने में केवल लड़के की खता है? स्कूल के अध्यापकों पर उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं आती? माना, अध्यापक घोलकर नहीं पिला सकता, लेकिन यह निर्विवाद है कि लड़कों की सफलता या असफलता, बहुत कुछ अध्यापक के व्यक्तित्व, अध्यवसाय, प्रोत्साहन पर निर्भर है। फिर किस मुँह से फेल होने वाले लड़कों को निकाल दिया जाता है।”
“लड़कों का मुख्य उद्देश्य इम्तहान पास करना है और अध्यापक का परम कर्तव्य पास कराना है...लड़कों के मनोरंजन और विनोद के लिए जो विषय चुने जाते हैं उनकी परीक्षा भी ली जाती है और इस तरह परीक्षाओं की संख्या बढ़ती जाती है।”
“....प्राचीन हिंदू ग्रंथों में गुरु की महिमा इतने मुबालगे के साथ बयान की गई है कि उसे ईश्वर से भी दो हाथ ऊपर उठा दिया है। गुरु जो कहे, उसे आँख बंद करके शिरोधार्य करना होगा।”
भले ये प्रेमचंद के अपने शब्द न हों, वह इन्हें अपने लेख ‘भारत में गुरु-प्रथा’ में सहमतिपूर्वक उद्धृत करते हैं। यह लेख लखनऊ विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर डॉक्टर परांजपे के एक व्याख्यान की रिपोर्ट का आरम्भ है और शब्द उन्हीं के हैं।
“अब तक संसार के सामने जो शिक्षा का आदर्श था, वह परंपरागत समाजव्यवस्था की ही पूर्ति करता था।”
“उस साँचे में ढलकर युवक आत्मसेवी, घोर स्वार्थी, मित्रता में भी स्वार्थ की रक्षा करनेवाला, पक्का उपयोगितावादी और घमंडी होकर रह जाता है। हमारी शिक्षा हमारी सामाजिक चेतना को नहीं जगाती, उसका उद्देश्य अपने फायदे के लिए समाज से काम निकालना है।”
“समाज केवल इसलिए है कि उसे बढ़ने और संचय करने का अवसर दे। वही मनुष्य सफल माना जाता है, जो समाज को ख़ूब अच्छी तरह एक्सप्लाइट कर सके।”
“...कम्युनिज्म का प्रचार हो न हो पर समाज का आदर्श बदल गया है...संसार समष्टि की ओर जा रहा है और सच पूछो तो समष्टिवाद की अनीश्वरता, जो हर आदमी के लिए समान अवसर की व्यवस्था करती है, जो किसी का जन्मसिद्ध या परम्परागत विशेष अधिकार नहीं मानती, ईश्वरता के अधिक निकट है।”
“...एक नई सृष्टि रचनी पड़ेगी, अर्थात्—बालक के लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा को एक सिरे से बदलना पड़ेगा, जिससे समाज में संघर्ष की जगह सहयोग की प्रवृत्ति जागे। लोग एक दूसरे से सशंकित रहने के बदले विश्वास करें और शक्ति का संचय इसलिए न करें कि उससे दूसरों पर आतंक जमाएँगे बल्कि इसलिए कि दूसरों की सहायता करेंगे।”
“साम्राज्यवाद और व्यवसायवाद और राष्ट्रों में संघर्ष इसी कुशिक्षा के फल है, जिसने व्यक्ति को प्रधानता देकर उसे समाज का सबसे हिंसक जंतु बना दिया है।”
“पश्चिम ने हमें सबसे ज़हरीला पाठ जो पढ़ाया है वह यही खुदगर्जी है। समस्त संसार को स्वार्थ के पैरों तले रौंदकर अब वह स्वार्थ का पिशाच हो गया है। उसमें न हृदय है, न कोमलता है, न दर्द है। वह सर से पैर तक, भीतर से बाहर तक स्वार्थ से भरा हुआ है। हँसना-बोलना, रोना-गाना, एक भी स्वार्थ से खाली नहीं।”
“पुराने ज़माने में जब बड़ों का हुक्म और अदब मानना समाज का सबसे मान्य नियम था और एक एक छोटी जाति अपने से ऊँची जाति के सामने अदब से सर झुकाती थी, तब बालकों को बचपन से ही अदब करना सिखाया जाता था...लेकिन आज किसी बाहरी सत्ता की आज्ञाओं को मानने की शिक्षा देना बालकों की सबसे बड़ी ज़रूरत की तरफ़ से आँखें बंद कर लेना है।”
“युवकों के सामने जो परिस्थिति है उसमें अदब और विनम्रता का इतना महत्त्व नहीं है, जितना व्यक्तिगत विचारों और कामों की स्वाधीनता का।”
“बाहरी दबाव की जगह हममें आत्म संयम का उदय हो। सच्चा स्वाधीन आदमी वही है, जिसका जीवन आत्मा के शासन से संयमित हो जाता है, जिसे बाहरी दबाव की ज़रूरत नहीं पड़ती। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण दोष को भीतर की आँखों से देखें।”
“युनिवर्सिटी तो भारत में कोई है नहीं, हाँ, ग्रैजुएट बनाने के कारखाने हैं....जहाँ युवकों को दुर्व्यसन और फिजूलखर्ची और विलासिता और झूठे अभिमान की शिक्षा दी जाती है। बी.ए. पास होने का अर्थ व्यावहारिक रूप से यही है कि अमुक युवक इन दुर्गुणों में पास हो चुका है।”
“अब की उपाधि बँटाई के अवसर पर इलाहाबाद के कारखाने में सर रमन का भाषण हुआ और लखनऊ के कारखाने में सर राधाकृष्णन का… इन दोनों… में बड़ा अंतर है। सर रमन ने तो इलाहाबाद के कारखाने की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और उसे आदर्श विद्यालय कहा है...रमन साहब ने तो (उसकी) तुलना हार्वर्ड से करने में भी संकोच न किया।”
“सर रमन के शब्दों में ---‘हम एक महान सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं...”
“सबसे अचम्भे की जो बात सर रमन ने कही वह यह थी—हिन्दुस्तान के विद्यालयों का यह धर्म नहीं है कि वह इस क्रान्ति और परिवर्तन की गति को और तेज बनावे, बल्कि उसका वास्तविक धर्म यह है कि वह जातीय विकास की इस द्रुत गति के लिए ब्रेक का काम दे।”
“भारत की क्रांति, केवल अपनी आत्मा को पा जाने की इच्छा है। ...हमारी क्रान्ति अपनी खोयी हुई आत्मा को ....वापस लाना चाहती है और इस पश्चिमी संघर्ष और स्वार्थवाद को मिटाकर उसकी जगह सहयोग और सहृदयता को आसीन देखने की इच्छुक है।”
इसी पर बहस हो सकती है कि वह खोई हुई आत्मा क्या है और ‘वापस लाने’ से प्रेमचंद का क्या तात्पर्य है। क्या वह उस रूप में भारत में कभी थी भी?
“..अधिकारियों की खुशी या नाखुशी की बिलकुल परवाह न करके सच्ची और बेलाग बातें कह सुनायी हैं।”
“...सर राधाकृष्णन के इस भाषण ने सिद्ध कर दिया है कि वह फिलासफर होते हुए भी राष्ट्र के दुख से दुखी हैं और शिक्षित समुदाय का... क्या धर्म है, इसे अच्छी तरह समझते हैं।”
“बुद्धिमान आदमी का यह दावा नहीं होता कि हरेक विषय में वह कोई न कोई राय दे सकता है,...(उसमें) दृष्टि का विस्तार, विचार की स्वाधीनता और नवीनता और अन्य मनोभावों को समझने की शक्ति होती है। वह हमेशा उन विचारों से सहानुभूति रखने को तैयार रहता है, जिनसे उसे मतभेद है।”
“प्राचीनकाल में विद्यालयों के संस्कार की उपमा एक मशाल से दी जाती थी...यह मशाल एक भयंकर वस्तु है। इतने कितने ही आंदोलनों को उठाया है, कितनी ही हलचल जगायी है। यह क्रान्ति भावना की बोधक है, वह आग है, जो घास-फूस और गन्दगी को जलाकर साफ़ कर देती है।”
“अगर हम उन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आंदोलनों से भयभीत हो जाएँ जो इस आग के फैलने से पैदा होते हैं तो हमें विद्यालयों से दूर ही रहना चाहिए।”
“अगर विद्यालय ऐसे मनुष्य पैदा करता है, जो दिल के बोदे हैं, जो अपनी जान की खैरियत मनाते हैं, जो ऐशो आराम के बंदे हैं, जो जोखिम से बचते हैं, तो वह विद्यालय अपने धर्म का पालन नहीं कर सकता।”
“...बोदे, स्वार्थी और प्रथाओं का गुलाम बना देता है, अगर वह उसके विचारों को कठोर कर देता है और उनकी आगे बढ़ने की शक्ति को निर्जीव कर देता है, तो वह अपने धर्म से दूर चला जाता है।”