जब जब प्रेमचंद की चर्चा शुरू होती है तब तब प्रेमचंद को उनके वैचारिक व रचनात्मक सरोकारों से मुक्त कर ‘प्रेमचंद की परम्परा’ के नाम पर अमूर्त बहस छेड़ दी जाती है। अमूमन इस बहस के दो छोर होते हैं। एक छोर पर इस परंपरा में प्रेमचंद के पूर्ववर्तियों तक को शामिल करने की उदारता बरती जाती है तो दूसरे छोर पर यशपाल सरीखे लेखक भी इससे खारिज कर दिए जाते हैं। उदारता के मूल में  ‘सबै भूमि गोपाल की’ की तर्ज़ पर यह भाव रहा है कि जो कुछ भी है वह साहित्य की परंपरा है, यह ‘प्रेमचंद की परंपरा’ कहां से आ टपकी! यशपाल तक को प्रेमचंद की परंपरा से खारिज करने वाले अपना ‘ओके’ उन  डॉ. रामविलास शर्मा से लेते हैं जिन्होने रेणु को भी प्रेमचंद की परंपरा में प्रवेश नहीं दिया था।