जब जब प्रेमचंद की चर्चा शुरू होती है तब तब प्रेमचंद को उनके वैचारिक व रचनात्मक सरोकारों से मुक्त कर ‘प्रेमचंद की परम्परा’ के नाम पर अमूर्त बहस छेड़ दी जाती है। अमूमन इस बहस के दो छोर होते हैं। एक छोर पर इस परंपरा में प्रेमचंद के पूर्ववर्तियों तक को शामिल करने की उदारता बरती जाती है तो दूसरे छोर पर यशपाल सरीखे लेखक भी इससे खारिज कर दिए जाते हैं। उदारता के मूल में ‘सबै भूमि गोपाल की’ की तर्ज़ पर यह भाव रहा है कि जो कुछ भी है वह साहित्य की परंपरा है, यह ‘प्रेमचंद की परंपरा’ कहां से आ टपकी! यशपाल तक को प्रेमचंद की परंपरा से खारिज करने वाले अपना ‘ओके’ उन डॉ. रामविलास शर्मा से लेते हैं जिन्होने रेणु को भी प्रेमचंद की परंपरा में प्रवेश नहीं दिया था।
‘प्रेमचंद की परंपरा’ पर फातिहा न पढ़ें!
- साहित्य
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- 4 Aug, 2025

यह लेख प्रेमचंद की साहित्यिक परंपरा को वर्ग और वर्ण विमर्श से काटकर देखने की प्रवृत्ति पर सवाल उठाता है। साथ ही ब्राह्मणवाद और यांत्रिक मार्क्सवाद- दोनों की वैचारिक सीमाओं की आलोचना करता है। जानिए इस बहस के नए आयाम।
दरअसल, प्रेमचंद की परंपरा का जितना क्षरण सब कुछ को इसमें शामिल करने से हुआ, उतना ही इसके कथित रक्षकों से भी हुआ है। प्रेमचंद के आचार्य रामचंद्र शुक्ल व नंद दुलारे वाजपेयी सरीखे समकालीनों की दृष्टि इस मामले में स्पष्ट थी। शुक्ल जी उन्हें ‘प्रोपेगैंडिस्ट’ व राजनीतिक, सामाजिक सुधारक के रूप में चिन्हित करते थे तो वाजपेयी जी ने इसे और साफ़ करते हुए लिखा कि “ प्रेमचंदजी के उपन्यास उनकी प्रोपेगेंडा वृत्ति के कारण काफी बदनाम हैं और हिंदी के बड़े से बड़े समीक्षक ने उसकी शिकायत की है।” उल्लेखनीय यह है कि यह सब प्रेमचंद के जीवनकाल में उनके समकालीनों द्वारा ही लिखा गया था।