अमीर खान मुत्तकी एस जयशंकर
(अफगानिस्तान में तालिबान शासन के बाद अब भारत की धरती पर भी उनका 'स्त्री-विरोधी' रंग चढ़ने लगा है। दिल्ली में तालिबान के प्रतिनिधिमंडल द्वारा महिला पत्रकारों को प्रेस कॉन्फ्रेंस से बहिष्कृत करने का विवाद गरमाया तो बिहार इससे अछूता कैसे रह सकता है! वरिष्ठ पत्रकार और टीवी पैनलिस्ट प्रेम कुमार इन दिनों बिहार दौरे पर हैं। उन्होंने राजधानी पटना के विभिन्न कोनों में स्थानीय पत्रकारों से गहन चर्चा की—सदाकत आश्रम से लेकर बेली रोड, डाक बंगला चौराहा, आईटीओ गोलंबर तक। बिहार क्या सोचता है इस 'तालिबानी बैन' को लेकर? क्या मोदी सरकार का मौन 'सरेंडर' है या रणनीतिक चुप्पी?)
सदाकत आश्रम के प्रांगण से ही यह ख्याल आया कि महिला पत्रकारों के साथ सलूक को लेकर स्थानीय पत्रकारों की राय जाननी चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार और एंकर असित नाथ तिवारी मौजूद थे। छेड़ते ही वे सीधे मुद्दे पर उतर पड़े: "भारत में भी तालिबान घुस आया है। पहले आतंकियों से मुठभेड़ होती थी, अब हमारी सरकार आतंकियों की ओर से अपनी ही जनता से ‘मुठभेड़’ कर रही है।" तिवारी ने सवाल दागा—मोदी सरकार तालिबानियों का बचाव क्यों कर रही है? "अचानक तालिबान से इतना प्रेम क्यों हो गया? भारत में दूतावास खोल रहे हैं? अफगानिस्तान का झंडा तक बदल रहे हैं? मोदी सरकार ने भारत की विदेश नीति को घुटनों पर ला दिया है।" उनकी बातों में विदेश नीति की कमजोरी का दर्द साफ झलक रहा था।
'तालिबान महिला विरोधी'
बेली रोड से दानापुर जाने वाले रास्ते पर, गोला रोड स्थित संवर्धन सोसायटी है। यहीं रहते हैं हेमंत कुमार। चाय की चुस्कियों के बीच चर्चा छेड़ी। भारत की धरती पर तालिबानी कानून चलाने का जिक्र होते ही वे चिंतित हो उठे। "तालिबान का महिलाओं के प्रति रवैया स्त्री-विरोधी है। भारत में यही परसेप्शन तालिबानी बनाएं और भारत सरकार बेबस रहे तो यह आश्चर्यजनक है। यह केवल तकनीकी मामला नहीं है कि उन्हें दूतावास प्रोटोकॉल के तहत इम्युनिटी हासिल है, यह सरेंडर है।" हेमंत ने विदेश मंत्रालय की सफाई को 'माकूल नहीं' ठहराया। उनका कहना था, "स्टैंड लेना चाहिए था। तालिबान को विश्वास दिलाने की कोशिश करनी चाहिए थी कि महिला पत्रकारों को भी बुलाया जाए।"
पटना के व्यस्ततम डाक बंगला चौराहे पर स्वतंत्र पत्रकार व सोशल एक्टिविस्ट अनीस अंकुर से मुलाकात हुई। वे इस मुद्दे पर गंभीर दिखे। उनकी टिप्पणी में बिहार के संदर्भ से जोड़कर तालिबान की वैचारिक जड़ों पर सवाल थे। वहीं वरिष्ठ पत्रकार रविरंजन मौर्य होटल के पास मिले जो एक नेता के इंटरव्यू के सिलसिले में वहां पहुंचे थे। उन्होंने इस घटना को 'मीडिया की गरिमा पर सीधा हमला' बताया, लेकिन विस्तार से चर्चा का समय न होने से बात आगे न बढ़ सकी।
'भारत तालिबान से रहे सतर्क'
आईटीओ गोलंबर के पास सोशल मीडिया में बहुचर्चित यूट्यूब चैनल के एंकर धीरेंद्र कुमार इंतजार कर रहे थे। फोन पर सूचना मिलते ही वे पहुंचे थे। धीरेंद्र ने इसे 'डिजिटल युग में पुरानी मानसिकता का घुसपैठ' कहा, लेकिन मुख्य बहस में वे सरकार की चुप्पी पर अंगुली उठाने से चूके नहीं। "ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर भी तालिबान का प्रभाव बढ़ रहा है, भारत को सतर्क रहना चाहिए।"
पाटलिपुत्र गोलंबर के पास ही नेहरू नगर है। यहीं रूबन हॉस्पिटल के निकट अजय कुमार—'बिहार टाइम्स.इन' के एडिटर का आवास है। हम वहीं जा पहुंचे। अजय कुमार ने साफ कहा, "इंडियन गवर्नमेंट को आज के दिन में पहले हार्डकोर प्रिंसिपल लेनी चाहिए थी। महिला पत्रकार को रोकना गलत है। बाकी पत्रकार क्या कर रहे थे? पत्रकारों को बॉयकॉट करना चाहिए था। यह कार्यक्रम ही नहीं होने देना चाहिए।" अजय ने जोर दिया कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसे देखना चाहिए। "सरकार को सजेस्ट करना चाहिए था कि हमें पत्रकारों में फर्क नहीं करना चाहिए। मीडिया और सरकार की इज्जत बढ़ती अगर प्रतिवाद दर्ज करते।"
'समाज की मानसिकता ही तालिबानी है'
निशा सिंह युवा पत्रकार हैं। महिला हैं। दिल्ली स्थित एक चैनल की पटना से रिपोर्टर है। निशा सिंह की राय हमें अहम लगी। फोन से संपर्क साध कर हम उनसे मिलने आ पहुंचे। बुद्धा कॉलोनी में मुलाकात हुई। मुद्दा छेड़ते ही कहने लगीं, “महिलाओं को प्रेस कॉन्फ्रेन्स करने नहीं दिया तो हम तालिबानियों को कोस रहे हैं। हमारे देश में महिलाओं को कितना आगे बढ़ने दिया जाता है? समाज की मानसिकता ही तालिबानी है। अगर ऐसा नहीं होता तो मोदी सरकार में इतनी हिम्मत होती कि तालिबानियों को इतनी छूट दी जाती?” निशा ने पत्रकारिता में महिलाओं के संघर्ष का मुद्दा छेड़ दिया। कहा कि हर स्टेप पर संघर्ष है। “घर से बाहर निकलें कि नहीं, कपड़ा कैसे पहनें, दफ्तर जाने दिया जाएगा या नहीं, अपनी पसंद से शादी नहीं कर सकते, पेशेवर जीवन में भी महिलाओं से गलत उम्मीद रखते हैं, कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। तालिबानी सोच तो हर जगह है।“
वरिष्ठ पत्रकार अशोक शर्मा—जिन्होंने विभिन्न अखबारों और चैनलों में काम किया है और अब कॉलम लिखते हैं—हमसे मिलने खुद चले आए। उनकी राय में यह घटना 'लोकतंत्र की परीक्षा' है। "भारत ने तालिबान को मान्यता देकर खुद को कमजोर किया। महिला अधिकारों पर चुप रहना अपराध है।
नवभारत टाइम्स के सुनील पांडे ने व्यावहारिक नजरिया पेश किया। "अब तालिबान के सामने जब अमेरिका झुक गया, तो सारी उम्मीद भारत से क्यों है? भारत तालिबान के दूतावास में भी—जिसे स्थानीय कानून से इम्युनिटी होती है—अपनी बात कैसे थोप सकता है?" वे सहमत थे कि महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए, लेकिन याद दिलाया, "हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान का यही चेहरा है।
'भारत की धरती पर ऐसा कैसे?'
चर्चा का चरम बोरिंग रोड चौराहे पर दिखा, जहां एक साथ कई पत्रकार जुटे। आजतक के रिपोर्टर सुजीत कुमार ने तीखा प्रहार किया: "भारत की तालिबानियों ने नाक कटा दी।" लेकिन टीवी9 के ब्यूरो हेड उत्कर्ष इससे असहमत दिखे- "तालिबान अपनी नाक कटा रहा है। भारत का इसमें क्या है? दूतावास में भारतीय कानून लागू होता नहीं। भारत क्या करेगा?" यूएनआई के ब्यूरो हेड आशुतोष चंद्रा ने कड़ा रुख अपनाया- "क्या बात करते हैं? भारत की धरती पर ऐसा कैसे हो सकता है? कम से कम बातचीत होती, आगे ऐसा न हो—इस पर बात होती। ये क्या? हमने मान लिया कि पत्रकार वार्ता में महिलाएं आमंत्रित नहीं होंगी। ये कोई बात नहीं हुई।"
एएनआई के ब्यूरो हेड मुकेश सिंह ने राजनीतिक दृष्टिकोण जोड़ा, "विपक्ष को मुद्दा मिल गया है। बीजेपी इन दिनों जवाब नहीं देकर भी राजनीति में आगे रह रही है। जिस तालिबान के खिलाफ हमेशा बीजेपी बोलती थी, आज उसके पक्ष में बयान जारी करना पड़ रहा है। फिर भी बिहार के चुनाव पर इसका कोई असर पड़ेगा, ऐसा बिल्कुल नहीं है। उल्टे वे इस मामले में भी वोट कमा ले जाएंगे।"
बिहार के पत्रकारों में चिंता का माहौल है। एक ओर आक्रोश है तालिबान के रवैये पर, दूसरी ओर सरकार की नरमी पर सवाल। लेकिन व्यावहारिकता भी है—दूतावास की इम्युनिटी और वैश्विक दबाव की स्थितियां भी हैं। क्या यह विवाद बिहार की राजनीति को छुएगा? फिलहाल, पत्रकारों की आवाज बुलंद है: 'महिलाओं का बहिष्कार बर्दाश्त नहीं!'