हमारी राजनीति का चरित्र इतना चौपट हो चुका है कि वह काजल की कोठरी बन चुकी है। अगर स्वयं गांधीजी को भी इसमें प्रवेश करना पड़ता तो पता नहीं क्या होता? वह दिन कब आएगा, जब साफ़-सुथरे लोग राजनीति में जाना चाहेंगे और उसमें जाकर भी वे साफ़-सुथरे बने रह सकेंगे?
परमबीर के आरोपों को पहले तो यह कहकर उन्होंने रद्द किया कि वे प्रामाणिक नहीं हैं, क्योंकि उसमें ई-मेल पता कोई दूसरा है और परमबीर के हस्ताक्षर भी नहीं हैं।
‘‘जिस को हो दीन ओ दिल अजीज़, उसकी गली में जाए क्यूँ?’’