जामिया की स्टूडेंट सफूरा ज़रगर।
सफूरा का ‘अपराध’ (यदि ऐसा मान भी लिया जाये) केवल यह है कि वह नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध कर रही थी और इसी कारण पुलिस ने उसके ख़िलाफ़ झूठे साक्ष्य बनाकर, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे भड़काने का झूठा आरोप लगाया और ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे भयावह क़ानून के तहत हिरासत में ले लिया और फिर जेल भेज दिया। सफूरा को ऐसे समय में जेल भेजा गया है, जब वह गर्भवती हैं।
इस महिला का ‘अपराध’ (यदि ऐसा मान भी लिया जाये) केवल यह है कि वह नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध कर रही थी और इसी कारण पुलिस ने उसके ख़िलाफ़ झूठे साक्ष्य बनाकर, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे भड़काने का झूठा आरोप लगाया और ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे भयावह क़ानून के तहत हिरासत में ले लिया।
दिल्ली पुलिस, कई दूसरे राज्यों की पुलिस की तरह, ‘बंदी-तोता’ (caged-parrot) जैसा कि पूर्व चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया (सीजेआई) आर.एम.लोढ़ा ने सीबीआई के बारे में कहा था, जैसी बन गयी है। लेकिन न्यायपालिका, जिसे संविधान और नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए बनाया गया था, क्या वह अपना दायित्व निभा रही है?