इस वक़्त बीजेपी और कांग्रेस का अंदरुनी हाल एक-जैसा होता जा रहा है लेकिन आम जनता में अब भी बीजेपी की साख कायम है। यानी अंदरुनी लोकतंत्र सभी पार्टियों में शून्य को छू रहा है लेकिन यही प्रवृत्ति बाहरी लोकतंत्र पर भी हावी हो गई तो हमारी पार्टियों की इस नेताशाही को तानाशाही में बदलते देर नहीं लगेगी।
‘इश्के-बुतां में ज़िंदगी गुजर गई मोमिन।आखरी वक़्त क्या खाक मुसलमां होंगे?’
दो साल हो गए, कांग्रेस का कोई बाक़ायदा अध्यक्ष नहीं है और पार्टी चल रही है, जैसे युद्ध में बिना सर के धड़ चला करते हैं। पता नहीं, यह धड़ अब कितने क़दम और चलेगा?