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रामधारी सिंह दिनकर : हिंदू क्यों हारा?

आज जब अपने चारों तरफ़ देखते हैं तो क्या वही जाति और धर्म की कट्टरता नहीं दिखायी पड़ती जिसने इस देश को कमज़ोर किया? अचरज इस बात पर है कि हम आज भी इतिहास से सीखने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में हर हिंदू को और हर भारतीय को आज के दौर में दिनकर को पढ़ना चाहिये और समझना चाहिये कि देश को अगर आगे ले जाना है तो सबको साथ लेकर ही आगे जाया जा सकता है...
आशुतोष

रामधारी सिंह दिनकर की किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ हर भारतीय को पढ़नी चाहिये। ख़ासतौर पर हिंदी भाषी को। यह किताब भारत की सांस्कृतिक यात्रा है। जो वैदिक काल से आज़ादी के बाद के सांस्कृतिक भारत की खोज करती है। वैसे तो दिनकर मूलतः कवि थे पर इतिहास उनका प्रिय विषय था। उनकी एक ज़िद थी कि वह इतिहास पर किताब लिखेंगे। और जब उन्होंने किताब लिखी तो उसकी प्रस्तावना उनके परम मित्र पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखी। वो नेहरू जिन्होंने ‘भारत एक खोज’ के नाम से एक ऐतिहासिक किताब ख़ुद लिखी थी, अपने जेल प्रवास में। पहले पैरा में ही नेहरू लिखते हैं,

‘अक्सर मैं यह सवाल करता हूँ कि भारत है क्या? उसका तत्व या सार क्या है? वे शक्तियाँ कौन सी हैं, जिनसे भारत का निर्माण हुआ।’ 

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दिनकर की यह किताब दरअसल भारत नाम के सार तत्व की एक खोज है। हालाँकि वह कहते हैं कि वो इतिहासकार नहीं हैं। वो तो शौक़िया इतिहास की कंदरा में दाखिल हुए। लेकिन जब प्रवेश कर गये तो फिर वह सच कहने से संकोच नहीं करते। उन्होंने वह कहा जो एक निष्पक्ष इतिहासकार को कहना चाहिये। वह किताब के शुरू में ही कह देते हैं कि आर्य यहाँ के निवासी नहीं थे, वो बाहर से आये थे। वह लिखते हैं,

‘यह देश आर्यों के आगमन से पूर्व से ही अहिंसक, अल्पसंतोषी और सहिष्णु रहता आया था। आर्यों ने आकर यहाँ भी जीवन की धूम मचा दी, प्रवृत्ति और आशावाद के स्वर से सारे समाज को पूर्ण कर दिया। किंतु जब उनका यज्ञवाद भोगवाद का पर्याय बनने लगा और आमिषप्रियता से प्रेरित ब्राह्मण जीव हिंसा को धर्म मानने लगे, इस देश की संस्कृति यज्ञ और जीव घात, दोनों से विद्रोह कर उठी। महावीर और बुद्ध भारत की इसी सनातन संस्कृति के उद्घोष थे।’ 

उनकी यह इतिहास व्याख्या आज के समय में उन लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं होगी जो इतिहास को नये सिरे से लिखना चाहते हैं या यों कहें कि इतिहास को ख़ारिज कर एक कल्पित इतिहास का सृजन करना चाहते हैं। लेकिन दिनकर समय के पहले के लेखक हैं। वो वैदिक और आर्य काल से होते हुए मध्य काल में प्रवेश करते हैं और फिर इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि आख़िर भारत देश कैसे इसलाम के अधीन हो गया। और इस सवाल का जवाब खोजते खोजते वह किसी को बख्शते नहीं हैं। 

दिनकर लिखते हैं, ‘हमारे राष्ट्रीय संस्कार में एक प्रकार की आध्यात्मिक साम्राज्यवादिता है जो सबसे अधिक इसलाम के संदर्भ में प्रकट होती है।’ और फिर वो इस दुखती रग की पड़ताल करते हैं कि आख़िर हिंदू मुसलमान से हारा क्यों?

दिनकर इसका सबसे बड़ा कारण देश में केंद्रीय सत्ता की अनुपस्थिति और राजनीतिक चेतना के अभाव को मानते हैं। वह लिखते हैं,

‘पतन तो इस देश का हर्षवर्धन के बाद ही आरंभ हो गया था। क्योंकि उसके बाद चक्रवर्ती सम्राट के पद पर भारत में कोई राजा नहीं बैठ सका। केंद्र की शक्ति टूट गयी और कोई किसी को रोकनेवाला न रहा। परिणाम यह रहा कि सारे देश में छोटे-छोटे राज्य उठ खड़े हुए और वे आपस में ही युद्ध करने को अपना परम कर्तव्य मानने लगे। अपना राज्य और अपनी राजधानी राजाओं को इतनी प्यारी हो उठी कि देश का अस्तित्व ही वे भूल बैठे।’

दिनकर आगे लिखते हैं,

‘हिंदू जन्मजात अहिंसक थे। अपनी सीमा के बाहर जाकर लड़ने की उनके यहाँ परंपरा नहीं थी। सबसे उत्तम रक्षा यह है कि आक्रामक पर उसके घर पर हमला करो, इस नीति पर हिंदुओं ने कभी भी अमल नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि रक्षापरक युद्ध लड़ने की उनकी आदत हो गयी। जब देश में केंद्रीय सत्ता क़ायम थी, यह रक्षापरक युद्ध देश के लिये लड़ा जाता था। जब केंद्र टूट गया तो रक्षापरक लड़ाइयाँ अपने क्षुद्र राज्यों के लिये लड़ी जाने लगीं।’ 

मौजूदा दौर में धर्म पर ख़ासा ज़ोर है। धर्म पर एक भी विपरीत टिप्पणी हमें और आपको मुसीबत में डाल सकती है। मामूली सी बात पर लोगों की धार्मिक भावनाएँ आहत हो जाती हैं। लोग लड़ने मारने पर उतारू हो जाते हैं। मॉब लिंचिंग इसका जीता जागता उदाहरण है। दिनकर कहते हैं कि धार्मिकता की अति ने देश का विनाश किया...। वो कटाक्ष करते हैं,

‘किसका छुआ पानी पीना चाहिये और किसका नहीं: किसका छुआ खाना चाहिये और किसका नहीं: किसके स्पर्श से अशुद्ध होने पर आदमी स्नान से पवित्र हो जाता है और किसके स्पर्श से हड्डी तक अपवित्र हो जाती है।’ 

दिनकर ने भारतीय राजाओं और प्रजा की हार के लिये धर्म को एक हद तक ज़िम्मेदार ठहराया है। उसकी एक बानगी उनके इस वाक्य से मिलती है-

‘जो वस्तुएँ परिश्रम और पुरुषार्थ से प्राप्त होती हैं, उनकी याचना के लिये देवी-देवताओं से प्रार्थना करने का अभ्यास हिंदुओं में बहुत प्राचीन था। अब वो पुराणों का प्रचार हुआ तो वे देश रक्षा, जाति रक्षा और धर्म रक्षा भार भी देवताओं पर छोड़ने लगे।’

इस संदर्भ में वो सोमनाथ मंदिर पर महमूद गजनवी के हमले का ज़िक्र करते हैं। वह लिखते हैं,

‘सोमनाथ के पुजारी इस विश्वास में थे कि अन्य देवताओं पर सोमनाथ की कृपा नहीं रहने से ही उनके मंदिरों का तोड़ा जाना संभव हुआ।’

लिहाज़ा गजनवी ने जब सोमनाथ पर हमला किया तो उसकी रक्षा का कोई उपाय नहीं किया गया। गजनवी आसानी से मंदिर को लूटकर चला गया।

दिनकर की सबसे तीखी टिप्पणी हिंदुओं के अंदर फैली जाति प्रथा पर थी। वह मानते थे कि जाति प्रथा ने हिंदुओं को इस कदर बाँट दिया था कि वो एक-दूसरे की मदद को आने को तैयार नहीं होते थे। और यहाँ तक कि अपनी जाति में भी गोत्र विभेद कट्टरता से माने जाते थे।

इस वजह से हिंदू धर्म और समाज एक खाँचे में ढला समाज नहीं था, वो अलग-अलग खाँचों में बँटा हुआ खंड-खंड समाज बन गया। दिनकर लिखते हैं,

“जिस देश में मनुष्य-मनुष्य नहीं हो कर ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, कुर्मी, या कहार समझा जाता हो, जिस देश के लोग भक्ति और प्रेम पर पहला अधिकार अपनी जातिवालों का समझते हों और जिस देश की एक जाति के लोग दूसरी जाति के विद्वान को मूर्ख, दानी को कृपण, बली को दुर्बल, सच्चरित्र को दुश्चरित्र और अपनी जाति के मूर्ख को विद्वान और पापी को पुण्यात्मा समझते हों, उस देश की स्वतंत्रता और समृद्धि के विषय में यही कहा जा सकता है कि ‘रहिबे को आचरज और गईं तो अचरज कौन?” 

हिंदुत्व विचारधारा के आदि प्रवर्तक सावरकर भी जाति प्रथा पर तगड़ी चोट करते हैं। दिनकर की तरह उन्होंने भी लिखा कि हिंदू अपनी खोल में इतना सिकुड़ गया था कि वो किसी दूसरे को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। उसकी कट्टरता इतनी बढ़ गयी थी कि जाति से निकलना तो आसान था लेकिन जाति से निकलने के बाद वापसी लगभग असंभव। और धर्म इतना संवेदनशील हो गया था कि किसी मुसलमान की छाया भी हिंदू का धर्म भ्रष्ट कर देती थी। इसके विपरीत इसलाम ने अपनी बाँहें खोल कर रखी थीं। दलित हो या पिछड़े सबको गले लगाया और बराबरी का दर्जा दिया। इस कारण बड़ी संख्या में दलित और पिछड़ों, जिनको हिंदू धर्म में सम्मान नहीं मिलता था, ने इसलाम क़बूल कर लिया। दिनकर लिखते हैं,

‘हिंदुओं ने जात-पाँत और धर्म की रक्षा की कोशिश में जाति और देश को बर्बाद कर दिया। भारतवर्ष में राष्ट्रीयता की अनुभूति में जो अनेक बाधाएँ थीं, उनमें सबसे प्रमुख बाधा यही जातिवाद था। इस भावना के फेर में हिंदू इस तरह पड़ा कि देश तो गया ही, जात और धर्म की भी केवल ठठरी ही उनके पास रही।’

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आज जब अपने चारों तरफ़ देखते हैं तो क्या वही जाति और धर्म की कट्टरता नहीं दिखायी पड़ती जिसने इस देश को कमज़ोर किया? अचरज इस बात पर है कि हम आज भी इतिहास से सीखने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में हर हिंदू को और हर भारतीय को आज के दौर में दिनकर को पढ़ना चाहिये और समझना चाहिये कि देश को अगर आगे ले जाना है तो सबको साथ लेकर ही आगे जाया जा सकता है, अलग-अलग खाँचों में बँटा हिंदू और भारत तो ग़ुलामी के रास्ते पर ही जायेगा।

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