ऑपरेशन सिंदूर के फुस्सपने से देश के मन में इंदिरा गाँधी की याद एकाएक जग गयी। 1971 की लड़ाई, निक्सन और अमेरिका को मुँहतोड़ जवाब, पाकिस्तान पर विजय व बांग्लादेश के जन्म का घटनाक्रम जन-स्मृति में उभर आया गौरव अनुभूतियों के साथ। इसकी नायिका तो निस्संदेह इंदिरा थीं इसलिए वे सहज ही यादों में ज़िंदा हो गयीं। वैसे, अपने और कामों से भी वे स्मृतियों से पूरी तरह रुखसत होने से रहीं जबकि यह सरकार उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ खलनायिका के रूप में ज़िंदा रखना चाहती है, न सिर्फ़ इंदिरा बल्कि जवाहरलाल नेहरू समेत राहुल गाँधी तक सभी को और उनसे जुड़ी कांग्रेस को भी। सरकार संघ, बीजेपी इसके लिए दिन रात मेहनत करते और अनाप-शनाप पैसा ख़र्च करते हैं, कि जनता इन सबको देश का विलेन मान ले। ऐसे में लोगों को इंदिरा की याद आना तो सारे खेल का बिगड़ जाना है। इसलिए तय था कि इस बार 25 जून को आपातकाल को ज़्यादा जोरशोर से याद किया जाएगा। 

यहाँ इंदिरा के महिमामंडन या उन पर लगे धब्बे छुटाने की कोई मंशा या प्रयोजन नहीं है। अपना किया उन्होंने भुगता और निंदा आलोचना और एक हेय मिसाल के रूप में भुगतती रहेंगी। हमारे पिता ने भी आपातकाल की मियाद जेल में काटी। इमरजेंसी के सारे गुनाहों, ज्यादतियों, धत्कर्मों की भर्त्सना जरूर की जानी चाहिए। लेकिन कुछ सबक भी तो लेना चाहिए। देखिये तो कौन इमरजेंसी के ख़िलाफ़ गरज रहा है, कौन हैं जो सालों से 25 जून को आसमान सिर पर उठा लेते हैं। इसी तरह जो '84 के दंगों पर विरोध करते नहीं थकते। इसका भी पुरज़ोर विरोध होना चाहिए और कभी भी ऐसा न हो इसका उपाय करना चाहिए। विडम्बना यह है कि वे जिन्होंने '84 और 25 जून '75 के विरोध को वार्षिक अनुष्ठान बना रखा है, और आज जो सत्ता में हैं, उनके रहते 2002 में गुजरात में नरसंहार हुआ और तब भी वे सत्ता में थे। वे ग्यारह सालों से बेधड़क आपातकाल लागू किये हुए हैं। यह अघोषित है पर घोषित से आगे चला गया है।
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यह आपातकाल अमृतकाल है!

तबका अँधेरा अब बहुत घना है और इस अँधी सुरंग, जिसमें देश को डाल दिया गया है, के दूसरे सिरे पर धुँधली सी भी रोशनी नहीं। इस सबके लिए उफ तक नहीं, इन्हें कोई पछतावा भी नहीं। यह आपातकाल अमृतकाल है। इसलिए अब 25 जून को एक ओर आपातकाल की भर्त्सना है तो दूसरी ओर अमृतकाल वाले का अनुमोदन भी। मुर्दाबाद गूँजता है और ज़िंदाबाद इनके दिलों में हिलोरें लेता है। हमारा मीडिया भी एकदम से नहीं बदल गया। इमरजेंसी में वह डर कर रेंग रहा था अब वह समझदारी से गोदी में है और इठला रहा है। इमरजेंसी के बाद मोटे तौर पर कांग्रेस का पक्षधर मीडिया कम से कम हो गया। ठेठ भाजपा समर्थक मीडिया था और जो यह नहीं था वह भी प्रायः कांग्रेस विरोधी ही था दोनों और आज ये गोदी वाले में समाहित हैं। राममंदिर आंदोलन और 2014 के चुनाव में मीडिया की भूमिका देख सकते हैं। यही मीडिया भी '84, और जून '75 की जयंतियाँ मनाने में आगे रहता है। वह 2002 के दस, बीस, पच्चीस साल कभी नहीं मनाता, जैसे इस बार आपातकाल के पचास साल मनाने को लेकर उत्सुक और रोमांचित है। अघोषित आपातकाल की तो ख़ैर वह क्या खाकर चर्चा करेगा। तबके एक शूरवीर अख़बार ने 12 जून को ही' पचासवें उत्सव' की शुरुआत कर दी। बड़े पत्रकारों के रुटीन लेख छप रहे हैं जो अब इसलिए एकतरफ़ा लगते हैं कि उनमें पचहत्तर के बरक्स आज की स्थिति का उल्लेख ही नहीं है, या है तो चलताऊ ढंग से। उनमें आज के ज़ुल्मो सितम का ज़िक्र ही नहीं इसलिए तब की पीड़ा भी वे महसूस नहीं करा पाते। संघ प्रणीत और संघ सेवी संस्थाएँ अपने लोगों की कालिख को 'लोकतंत्र के काले अध्याय' मनाने की आड़ में छिपाने में सबसे आगे है।

इमरजेंसी पर पीएम क्या बोले थे?

इस तरह आपातकाल का विरोध और आपातकाल का अभ्यास साथ-साथ चल रहा है। याद करें… नरेंद्र मोदी ने सांसद की शपथ लेने के बाद इमरजेंसी की भर्त्सना करते हुए कहा कि अब कोई यह दुस्साहस नहीं कर पायेगा। लोकसभा अध्यक्ष पद पर आरूढ़ होते ही ओमप्रकाश बिड़ला ने आपातकाल के लिए कांग्रेस को कोसा और सदन में दो मिनट का मौन करवा दिया था। सरकार ने राष्ट्रपति तक का  इसके लिए इस्तेमाल किया और अभिभाषण में उनसे कहलाया कि आपातकाल लोकतंत्र पर सबसे करारा हमला था। इस सबके बरक्स सचाई यह है कि सरकार ग्यारह साल से जारी अपने अघोषित आपातकाल को ख़त्म करने के मूड में बिल्कुल नहीं दिखती। साल भर पहले उसे जो जनादेश मिला उसकी भावना को वह समझना ही नहीं चाहती कि जनता ने उसकी ताक़त इस चाहत से घटा दी है कि वह निरंकुशता से बाज़ आये और सुलहकुल अपनाये। लेकिन मोदी महिमा तो नियम-विधान, तक़ाज़ों, जनभावनाओं को दुत्कारने में है।

यह ग़नीमत ही थी कि घोषित आपातकाल ‘लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है’ वाला निकला… लेकिन नरेन्द्र मोदी के अघोषित आपातकाल के अंत का फ़िलहाल कुछ पता नहीं। अपनी पार्टी पर इंदिरा गाँधी का एकाधिकार भले ही अंत तक बना रहा हो लेकिन देश पर उनके अधिनायकवाद का शिकंजा उन्नीस महीने में टूट गया था। वे खुद देश को लोकतंत्र की पटरी पर ले आयी थीं। 
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जनतंत्र की राह पर इंदिरा लौटीं

स्याह से उजले दिनों की ओर प्रजातंत्र की यात्रा फिर शुरू हुई, पर इंदिरा गाँधी पिछड़ गयीं,  जनता ने उन्हें पीछे धकिया दिया। तीन साल बाद इंदिरा गांधी ने फिर यही जनतंत्र की गाड़ी पकड़ी और अपनी सियासी मंज़िल पर पहुँच गयीं। घोषित आपातकाल के उन्नीस महीने विकराल और विकट थे। संविधान- लोकतंत्र स्थगित था, सेंसरशिप, नसबंदी थी। अघोषित के हम ग्यारह साल काट चुके हैं कितने और अभी बाक़ी हैं, पता नहीं। इस वक़्त हम एक ऐसी निर्मम और बेपनाह तानाशाही की गिरफ़्त में हैं जो मर्मांतक स्थितियों में भी नहीं पसीजती। तानाशाह आत्मधन्य, आत्ममुग्ध और आत्मप्रचुर होते हैं… अपनी छवि, अपनी आवाज़ और सांगोपांग अपने कायल! वे सिर्फ़ अपने को देखते हैं, अपने बारे में सुनते हैं और अपनी दुनिया में विराजे रहते हैं। देश में इन दिनों यह नज़ारा आम है।

इमरजेंसी में भय का साम्राज्य था, मोदी-राज की भी इसी पर गुज़र- बसर है। जनता को साम्प्रदायिकता की ख़ुराक देते हुए देश को संकीर्ण और संकरा करती हुई इस सरकार ने लोकतंत्र पर लॉकडाउन लगाने का काम किया है। हमें मोदीजी को दिल्ली की गद्दी तक पहुँचाने की सुनियोजित मुहिम को नहीं भूलना चाहिए। इसी तरह देश को आपातकाल की ओर धकेलना साफ़ नज़र आता है। गुजरात-बिहार के छात्र आंदोलन को सुनियोजित ढंग से नथ लिया गया और उसमें से एक राजनीतिक आंदोलन को तराशा गया था। जयप्रकाशजी को पूरे तामझाम, चंदन- वंदन, जयघोष के साथ लाया गया और आनन-फानन में संघ के नानाजी देशमुख उनके सारथी हो बैठे। जेपी जैसे सभी के बीच समादृत नेता के नेतृत्व वाले आंदोलन में संघ के विचार और बोल  बेरोकटोक गूँजने लगे, 'गाय हमारी माता है, ग़फ़ूर इसको खाता है'। गफूर बिहार के नेकनाय मुख्यमंत्री थे। 

आपातकाल के दौरान संघ का दिल्ली की सत्ता के लिए यह पहला संगठित धावा था और इंदिरा गाँधी इसे देख पा रही थीं, पर आत्ममोह या अन्य कारणों से वे भटक गयीं। इस विचलन के मुख्य और पूरक कारण अहम हैं।

इंदिरा ने इमरजेन्सी क्यों लगायी?

बार-बार यह सवाल सिर उठाता है कि आखिर इंदिरा गांधी ने इमरजेन्सी क्यों लगायी? इंदिराजी जैसी साहसी और सूझबूझ वाली नेता के पास क्या यह आखिरी विकल्प था? उनकी दूरदर्शिता और पक्के इरादों का बहुत ढोल पीटा जाता रहा। फिर वे जून 1975 में कैसे चूक गयीं? क्या वे देख नहीं पा रही थीं कि विपक्षी एकता जब भी होगी, वह चुनावी, सत्ताकामी और देर-सबेर बिखरने को अभिशप्त होगी। जेपी वृद्ध और बीमार थे। तब उन्होंने जेपी आंदोलन से राजनैतिक लड़ाई क्यों नहीं लड़ी? 1976 में समय से चुनाव करातीं तो भी हारतीं पर शायद उतनी बुरी तरह नहीं जैसे इमरजेन्सी के बाद 77 में हारी थीं। तो फिर क्या कारण था कि जिसे जेपी ने 'उनका उज्जवल अतीत' कहा था उसमें उन्होंने आपातकाल की कालिमा मिला दी? क्या वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंसूबे और जेपी की आड़ में उसके हमले को ताड़ गयी थीं? जस्टिस कृष्णा अय्यर के फ़ैसले के बाद उन्हें पार्टी में कोई पद सँभालने के लिए भरोसेमंद व्यक्ति नहीं मिला था या उसके साथ ऐसा कोई नहीं मिला जो संघ को मुँह-तोड़ जवाब दे सके? क्या पूरी न सही, इमरजेन्सी लगाने की यह पूरक वज़ह हो सकती है?

इंदिरा गाँधी के बाद के तमाम नेताओं में बताइये किसने संघ विचार से इस क़दर लड़ाई लड़ी, इमरजेन्सी की हद तक? यह बात बेदम नहीं है, जिसके लिए इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को अपाहिज किया और अपने ऊपर जीवन भर का लाँछन लिया। यह बात अब साफ़ है कि जेपी आंदोलन पर सवार संघ का यह दिल्ली पर पहला धावा था। संघ का सब कुछ योजनाबद्ध होता है। वह खुले में नहीं, आड़ ले कर साज़िश रचता है। उसने इमरजेन्सी तक की आड़ ली थी। 1984 के दंगों में उसके शामिल होने का आरोप है। संघ- जनसंघ गैर कांग्रेसवाद की लहर पर चढ़ कर कई प्रदेशों के सत्ता का स्वाद चख चुका और निर्णायक राजनैतिक बढ़त ले चुके थे।
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जेपी आंदोलन का फ़ायदा संघ को मिला

सभी जानते थे और इसमें कोई शक नहीं कि जेपी भी जानते होंगे, कि उनके आंदोलन से सबसे बड़ा फ़ायदा संघ को होगा। इंदिरा गाँधी इमरजेन्सी से तौबा करतीं तो भी 1979 की तरह वे लौट कर आती ही। मधु लिमये जैसे सिद्धांतप्रिय नेता दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाते ही। जनता दल तितर-बितर होता ही। और सबसे अहम यह कि जनसंघ को भाजपा में परिवर्तित होना ही था। उसके मंसूबे विकराल थे, जनता दल में उनकी समाई न थी। संघ ने तो उसे  योजना के तहत जनता दल में  रहने भेजा था। 'राम राज्य' के लिए उसे वहाँ से हनुमान-कूद लेनी ही थी। उसे तो अंततः अपना आज का अवतार लेना था।

‘इंदिराजी ने इमरजेन्सी क्यों लगायी’ की तरह, कई तरह के जवाब पा चुका यह सवाल भी उभरता रहता है कि उन्होंने इमरजेन्सी क्यों हटाई? क्या वे अपराध बोध से ग्रस्त थीं? क्या एक ऐसी भूमिका करते हुए, जिसे अपने लिए उन्होंने कभी सोचा भी न था, वे थक गयी थीं? क्या तानाशाही की बनावट, बोझ और बाँझपन ने उन्हें तोड़ दिया था? इंदिरा गाँधी 75-76 में भी जानती थीं और 1977 में भी कि वे चुनाव हारेंगी। तब यह जोख़िम उन्होंने क्यों लिया? क्या उनकी मूल प्रेरणाएँ लोकतांत्रिक थीं? क्या उन्हें स्वतंत्रता संग्राम की विरासत और 'नियति से मुठभेड़’ के संदर्भ ने अधिनायकवाद की तंद्रा से जगा दिया था? कहना कठिन है लेकिन जिन लोगों ने इस समय हम पर अघोषित आपातकाल लगा रखा है, उनके पास ऐसे कोई विरासत और संदर्भ नहीं हैं। स्वतंत्रता आंदोलन, संविधान, लोकतंत्र की परम्परा के प्रति उनमें तिरस्कार ही है।
हम लोकतांत्रिकता के आकांक्षी हैं लेकिन सवाल यह है कि हम उसके लिए कितने चौकन्ने और जागरूक हैं? लोकतंत्र में भी स्थिति वही है कि  ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’। अघोषितआपातकाल यह भीषण मॉडल है। सम्पूर्ण क्रांति और आपातकाल की विफलता पर किसी ने कहा था कि जिस तरह जेपी आधे अधूरे क्राँतिकारी थे वैसे ही इंदिराजी एक संकोची तानाशाह थीं... लेकिन अघोषित आपातकाल के जनक और नियंता क्रूर, निर्द्वंद्व और बेपरवाह हैं।