बीजेपी के अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह क्यों कहते हैं कि इतिहास को फिर से लिखे जाने की ज़रूरत है? क्या वे इतिहास तथ्यों के आधार लिखवाना चाहते हैं या अपनी मनमर्जी से?
देश में चिंता की कई वजहें हैं। आर्थिक मंदी से लेकर नफ़रत की राजनीति और लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट तक। क्यों है ऐसी स्थिति?
कोई स्थानीय सिरफिरा अमेरिका में अगर एनआरसी जैसी किसी सरकारी परियोजना लाने की मांग करने लगे तो क्या होगा? वहां ‘एंटी-एशियन उग्रता’ उभरने लगे तो क्या होगा?
सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के 100 दिनों के अंदर ही अपने ज़्यादातर समर्थकों और विरोधियों की उम्मीदें तोड़ दीं और संकीर्ण मुद्दों को तरजीह दी।
कश्मीर और कश्मीरी आज ख़बर के विषय हैं पर विडम्बना देखिये, उन्हें अपनी ख़बर भी नहीं मिल रही। क्या ऐसे हालात ‘इमरजेंसी’ में भी थे? तब सेंसरशिप का प्रतिरोध जारी था। आज जैसा संपूर्ण (सरेंडर) नहीं था!
बीजेपी और केंद्र सरकार के बड़े नेता जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद 370 से संबंधित आरएसएस के पुराने एजेंडे को लागू करने के लिए पटेल, डॉ. अंबेडकर और लोहिया का नाम क्यों ले रहे हैं।
अलग-अलग दौर में यात्रा के रूट पर विस्फोट हुए हैं। जानमाल का नुक़सान भी हुआ। पर यात्रा तब भी नहीं रोकी गई। इस बार अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण माहौल के बावजूद यात्रा रोकी जा रही है। क्यों?
करगिल की लड़ाई से क्या भारत ने कोई सबक सीखा है? क्या नरेंद्र मोदी सरकार एक बार फिर भारत-पाकिस्तान रिश्तों को पटरी पर लाने की पहल करेगी?
देश का लगभग आधा हिस्सा विभाजन, नफ़रत और दमन की राजनीति में पिचका जा रहा है। मॉब लिंचिंग, सांप्रदायिक विद्वेष और जातीय-टकराव के 90% से ज़्यादा मामले उत्तर या मध्य भारत में क्यों?
बीते कुछ दिनों में बैंगलुरू, मुंबई, गोवा और दिल्ली में जो कुछ घटित हुआ, वह हमारे शासन-तंत्र, संवैधानिक व्यवस्था और विधायिका की दृष्टि से बहुत चिंताजनक है।
बजट भाषण भी अच्छा दिया-धारा प्रवाह अंग्रेज़ी में। वित्त मंत्री के ‘प्रभावशाली बजट भाषण’ सुनने के बाद मैं बजटीय प्रावधान के ज़रूरी आँकड़ों का इंतज़ार करने लगा। आँकड़े कहाँ हैं?
मौजूदा सरकार के नेता कहते हैं कि कश्मीर की समस्या नेहरू की पैदा की हुई है। जबकि इतिहास के तथ्य इससे बिल्कुल अलग हैं।
बाइक चोरी के आरोप में तबरेज़ को पीट-पीट कर क्यों मार दिया गया? क्यों एक के बाद एक लिंचिंग की ऐसी घटनाएँ हो रही हैं? क्या ऐसा है 'न्यू इंडिया'?
‘एक देश-एक चुनाव’ हमारे जैसे विशाल देश और उसके लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है। यह राष्ट्रवाद का एक मायावी मुहावरा रचता है पर राष्ट्र के लिए बेहद घातक है।
क्या पिछले विधानसभा चुनाव की तरह इस लोकसभा चुनाव में भी सपा-बसपा को चलाने वाले दोनों ‘परिवार’ कहीं न कहीं केंद्र के निज़ाम और सत्ताधारी दल के शीर्ष नेतृत्व से डरे-सहमे थे?
पूर्ण बहुमत मिलने के बाद अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद का गठन हो चुका है। इस सरकार में अगर बड़ी संभावनाएँ हैं तो काफ़ी आशंकाएँ भी हैं।
लोकसभा चुनाव के बीच ही केंद्र की मौजूदा सरकार के एक महत्वपूर्ण हुक़्मरान अमिताभ कांत ने भारत में मतदान को क़ानूनी रूप से अनिवार्य करने की ज़रूरत पर बहस छेड़ने की कोशिश की है। क्या उन्हें इसके नुक़सान का अंदाज़ा है?
लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण के मतदान के बाद क्या है देश की सियासी तसवीर? देखिए वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, शैलेश और आशुतोष के साथ चर्चा।