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'न्यू इंडिया' में क्या पुतिन और नेतन्याहू की राज-शैली की नकल हो रही है!

भारी जनसमर्थन के साथ सत्ता में दोबारा आए नरेंद्र मोदी और उनकी टीम से उम्मीद थी कि शासकीय स्तर पर वे बहुत अच्छा प्रदर्शन करेंगे और उन्हें विभाजनकारी, सांप्रदायिक और संकीर्ण मुद्दों को उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के 100 दिनों के अंदर ही अपने ज़्यादातर समर्थकों और विरोधियों की उम्मीदें तोड़ दीं हैं। 
उर्मिेलेश

2019 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी को पहले से ज़्यादा बड़ा समर्थन मिला। उनके समर्थकों और विरोधियों, दोनों को उम्मीद रही होगी कि इतने भारी समर्थन के साथ सत्ता में दोबारा आए नरेंद्र मोदी और उनकी टीम शासकीय स्तर पर बहुत अच्छा प्रदर्शन करेगी। उन्हें विभाजनकारी, सांप्रदायिक और संकीर्ण मुद्दों को उठाने की अब ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के 100 दिनों के अंदर ही अपने ज़्यादातर समर्थकों और विरोधियों की उम्मीदें तोड़ दीं और इस दरम्यान चार बड़े सियासी-शासकीय मंजर सामने आए हैं। 

पहला है - संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले प्रावधानों और 35-ए आदि का ख़ात्मा, जम्मू कश्मीर राज्य का विभाजन और वहां के नेताओं को जेलखाने में डालना। दूसरा है - असम में एनआरसी की फ़ाइनल सूची से पैदा आतंक, बीजेपी-शासित अन्य राज्यों में भी एनआरसी लागू करने की धमकी का आना। 

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तीसरा है - क़ानून-विधान और न्याय प्रक्रिया की महत्ता का ख़त्म होते जाना, विपक्षियों-आलोचकों को जेल में डालना या डराना-धमकाना, अपनी पार्टी के भ्रष्ट और पतित मनोवृत्ति के नेताओं-स्वामियों-मंत्रियों को हर क़ीमत पर बचाना और चौथा है - आर्थिक बदहाली एवं मंदी आदि को नज़रअंदाज करते हुए रूस के पुतिन या इजरायल के नेतन्याहू की तरह भारत में ‘राज’ चलाने की नई शैली को आकार देना।      

सबसे पहले एनआरसी का मामला देखते हैं। असम में 19 लाख लोगों को अचानक ग़ैर-नागरिक या अवैध घोषित कर दिया गया है। वे कुछ ही दिन में ‘स्टेट-लेस’ हो जायेंगे। उनका कोई देश नहीं होगा। गांवों में बाढ़ आती है, ग़रीबों के घर उजाड़ देती है। बड़े-बड़े तूफ़ान आते हैं और वे अमीर-ग़रीब के बीच कोई अंतर नहीं करते और शहर के शहर, कस्बे-गांव सब बेहाल हो जाते हैं। लेकिन क्षति के बावजूद लोग फिर अपना घर बसाते हैं और जिन्दगी पटरी पर चलने लगती है। 

लेकिन सोचिए, असम के लोगों के लिए राजसत्ता किस तरह का तूफ़ान लेकर आई है? वह फ़ैसले करती है, कोई कमेटी बना देती है, न्यायाधिकरण खड़ा कर देती है। पता नहीं क्यों और कैसे फ़ैसला आता है कि किसी प्रदेश के 19 लाख लोग अब देश के नागरिक ही नहीं होंगे।

कुछ समय पहले तक म्यांमार के रोहिंग्या या युद्ध में पिसते सीरिया या इराक़ के लाखों लोगों के ‘स्टेट-लेस’ होने या विस्थापित होकर दर-दर भटकने का दर्द महसूस कर हमारे-आपके रोंगटे खड़े हो जाते थे। पर अब अपने सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां में ही 19 लाख लोग ‘स्टेट-लेस’ किए जा रहे हैं। 

एनआरसी आज़ाद भारत की अपने ढंग की पहली भयावह त्रासदी है। असम में जो चल रहा है, उसके नतीजे का अब भी लोगों को इंतजार है। पर इधर, हरियाणा और यूपी सहित देश के कुछ अन्य बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अन्य नेताओं ने भी अपने-अपने राज्यों में भी एनआरसी की धमकी दे दी है। किसी ख़तरनाक विध्वसंकारी बम गिराने से कम डरावनी और भयावह धमकी नहीं है यह। 

हरियाणा और यूपी के मुख्यमंत्रियों क्रमशः मनोहर लाल खट्टर और योगी आदित्यनाथ ने अपने-अपने यहाँ एनआरसी लाने का एलान कर रखा है। पता नहीं, वे एनआरसी का कितना और क्या मतलब समझते हैं?

दिल्ली में बीजेपी के अध्यक्ष मनोज तिवारी भला पीछे क्यों रहते? उन्होंने भी एलान कर दिया कि बीजेपी सरकार आई तो दिल्ली में भी एनआरसी का सिलसिला शुरू होगा। ऐसा लगा कि मानो एनआरसी सूखे या अकाल ग्रस्त इलाक़े में आने वाली पानी और भोजन से लदी कोई रेलगाड़ी हो! सच पूछिये तो एनआरसी का अभियान मुझे देश के कई हिस्सों में गृहयुद्ध का आगाज लग रहा है। 

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अब तक लग रहा था कि खट्टर, योगी या तिवारी जैसे प्रशासनिक मामलों में अपेक्षाकृत अल्प अनुभवी नेता अतिउत्साह में एनआरसी लागू करने का बयान दे रहे हैं लेकिन अब गृहमंत्री शाह ने साफ़ कर दिया है कि एनआरसी पूरे देश का एजेंडा है! हर जगह इसे लागू किया जाएगा। हाल ही में रांची में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने इस आशय के संकेत भी दिए। यानी जो असम में आज हो रहा है, वह कल पूरे देश में होगा! यह एक तरह के गृहयुद्ध का आगाज़ नहीं तो क्या है?

अगर कश्मीर को देखें तो उसके ‘वास्तविक भारतीयकरण’ के नाम पर संविधान के साथ ही खेल कर दिया गया। ऊपर से कहा जा रहा है कि सरदार पटेल, डॉ. अंबेडकर, डॉ. लोहिया आदि के सपनों को पूरा किया गया है।

कश्मीर को बदलने की कोशिश

बीते 45 दिनों में कश्मीर को अंदर-बाहर से बदलने की हर संभव कोशिश की गई है। लेकिन कश्मीर किसी बिल्डिंग का नाम नहीं है कि आप उसके पुराने रंगों को हटाकर नया रंग चढ़ा देंगे तो यह राज्य बदला नजर आएगा। यह एक ऐसा सरहदी सूबा है, जिसके ‘महाराजा’ ने जनदबाव और सरहद-पार की चुनौतियों के मद्देनजर सबसे आख़िर में यानी 1947 के अक्तूबर महीने में भारतीय संघ में सम्मिलित होने का फ़ैसला किया। उस कश्मीर के भारत में सम्मिलन के संकल्प को भी खारिज कर दिया गया। 

‘जेलखाना’ बना कश्मीर!

राज्य की संविधान सभा द्वारा मंजूर संविधान हो या कोई और दस्तावेज, अब इनमें कोई भी संवैधानिक तौर पर नहीं बचा! वहां के सारे नेता गिरफ्तार हैं। कुछ लोग पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला की गिरफ्तारी पर चिंता जता रहे हैं। मैं नहीं समझता, फ़ारूक़ साहब का हिरासत में होना कोई बड़ी बात है। जब पूरा कश्मीर ही जेल में है तो फारूक भला कैसे बाहर होंगे? जी हां, दुनिया के बड़े मीडिया प्लेटफार्म्स भी कश्मीर को दुनिया का ‘सबसे बड़ा जेलखाना’ कह रहे हैं। 

अगर इजरायल पांच साल के फिलीस्तीनी बच्चों को स्कूलों से निकालकर हिरासत में ले लेता है तो अपने मुल्क में भी 10 से 16 साल के अनेक कश्मीरी नौजवानों को पैलेट गन से घायल कर अस्पतालों या जेलों में डाल दिया जाता है। पर अपने देश का मीडिया, ख़ासकर बड़े चैनल कश्मीर में हर किसी को देशद्रोही बताते हैं। फिर कश्मीर या कश्मीरी अपना दर्द किस देशवासी से कहें! 

बड़ी अदालत से हुक्म लेकर ही कोई बीमार कश्मीरी नेता इलाज के लिए दिल्ली आ पाता है। जाने से पहले भी इजाजत मांगता है। दिल्ली में बसा कश्मीरी जब अपने सूबे में जाता है तो कोर्ट उसे हिदायत देती है, जाइए पर वहाँ ‘सियासत’ नहीं कीजिएगा। देशहित में सबकुछ जायज है।
पता नहीं, जो लोग कश्मीर में अपने वर्चस्व के सपने देख रहे हैं, वे क्या किसी आध्यात्मिक अभियान पर कश्मीर जाते-आते हैं? उन्हें भला कौन हिदायत देगा? संविधान का स्थगित होना भी देश-हित में जायज है। इमरजेंसी में ऐसा ही तो हुआ था। पर उसकी तीव्रता बहुत मामूली थी। उससे विपक्षी नेता ज़्यादा प्रभावित हुए थे। नसबंदी ने भी लोगों पर असर डाला था। लेकिन आज के घटनाक्रमों ने तो पूरे देश को प्रभावित किया है। 
एक-देश-एक टैक्स, एक देश-एक विधान, एक तरह का विचार, एक तरह के ट्रैफ़िक रूल्स के बाद अब एक आचार-संहिता का नंबर आने वाला है।

इस वक़्त देश में भ्रष्ट लोग सिर्फ़ विपक्षी ख़ेमे में हैं। जो प्रतिरोध या आलोचना करेगा, उसकी जगह जेल में होगी या फिर वह निरंतर धमकाया जाता रहेगा। ‘ब्लैकमेल’ भी किया जा सकता है। कुछ हिन्दी भाषी राज्यों के दिग्गज नेताओं के मौजूदा रवैये को देखिए तो बात समझ में आ जायेगी। इसके उलट सत्तापक्ष के नेताओं के सारे कुकर्म माफ़ हैं! कोई उंगली नहीं उठा सकता। 

देख लीजिये, शाहजहांपुर के बीजेपी शहंशाह को! बीजेपी के वरिष्ठ नेता होने के अलावा वह हमारे महान लोकतंत्र के केंद्रीय गृहराज्य मंत्री रह चुके हैं। कई बार सांसद भी रहे हैं। इन दिनों नारा दिया जा रहा है- ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ पर बेटियों को सत्ताधारी दल के नेताओं से कौन बचाए? भारी दबाव पड़ने पर बड़ी मजबूरी से बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को जेल भेजा गया। पर शाहजहांपुर के शहंशाह भुक्तभोगी लड़की के बयान, साक्ष्य के तौर पर 32 वीडियो क्लिप के शासन को सौंपने और उसके पिता के बयान के बाद भी आराम से अपना इलाज करा रहे हैं और शिष्यों को निर्देश दिये जा रहे हैं। पार्टी की छत्रछाया में न जाने कितने महराज उर्फ टीवी वाले बाबा जैसे लोग गंभीर मामलों के बावजूद या तो अंतर्ध्यान हैं या मौज मार रहे हैं। 

आख़िर भारत की सबसे बड़ी 'देशभक्त' पार्टी में ऐसे-ऐसे शहंशाह क्यों हैं? एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक़, देश में महिलाओं के विरूद्ध अपराध के आरोपी सांसदों-विधायकों में सबसे ज़्यादा लॉ-मेकर बीजेपी में हैं।

देश की स्वीकृत या निबंधित पार्टियों ने कुल 327 ऐसे लोगों को टिकट दिया, जो महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के आरोपी हैं। इनमें 26 बलात्कार के आरोपी हैं। बीजेपी के बाद दूसरे नंबर पर शिव सेना है। तीसरे नंबर पर तृणमूल है। बीते पांच सालों के दौरान बीजेपी ने 47 ऐसे लोगों को टिकट दिया, जिन पर महिलाओं के ख़िलाफ़ गंभीर अपराध दर्ज था। 

2019 के चुनाव में लोकसभा के प्रत्याशी बने 40 फ़ीसदी बीजेपी उम्मीदवार किसी न किसी तरह के अपराध के आरोपी थे। कांग्रेस का नंबर इसके बाद था। एडीआर ने 4845 सांसदों-विधायकों के आयोग को सौंपे हलफ़नामे की पड़ताल के बाद ये आंकड़े दिए हैं। इन तथ्यों की रोशनी में कौन सवाल करेगा कि भारत के विधान और न्यायतंत्र का सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नजरिया है या अलग-अलग? 

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तेज़ी से बढ़ती आर्थिक बदहाली और मंदी के भयानक दौर को सरकार बड़ी धूर्तता के साथ नजरंदाज कर रही है। उसके दिमाग में वे विभेदकारी-संकीर्ण एजेंडे ही हैं, जिनके बल पर वह लोगों का ध्यान आर्थिक बदहाली से हटाने में कामयाब होने को लेकर आश्वस्त नज़र आती है। 

रोज़गार, निवेश पर भी मंदी का असर

बीते तीन दशकों में भारतीय अर्थतंत्र का ऐसा बुरा हाल कभी नहीं था। सिर्फ़ ग्रोथ रेट, कृषि और निर्माण सेक्टर ही प्रभावित नहीं हुए हैं, रोज़गार और निवेश पर भी मंदी का गहरा असर पड़ा है। पर लगता है कि हमारे मौजूदा शासक आर्थिक बदहाली, निवेश में भारी कमी एवं मंदी आदि को नजरंदाज करते हुए देश में एक नये तरह का सत्ता-तंत्र विकसित करने की कवायद में जुटे हैं। वे इसी को ‘न्यू इंडिया’ कह रहे हैं। इसके तहत रूस के ब्लादिमीर पुतिन या इजरायल के बेंजामिन नेतन्याहू की तरह भारत में ‘राज’ चलाने की नई निरंकुश शैली ईजाद की जा रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से इसकी ‘मंजूरी’ ले ली गई लगती है। ट्रंप के हाल के बयानों और दोनों नेताओं की आपसी समझदारी और व्यवहार से इसका संकेत मिलता है। 

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