तालिबान के पहले बयानों में जनतंत्र को ठुकरा दिया गया है। हम जो न तो राज्य हैं, न विशेषज्ञ, हम तालिबान को जनतांत्रिक, मानव अधिकार के उसूलों की कसौटी पर ही परखेंगे।
आत्मग्रस्त समाज आत्मसजग समाज नहीं। जो अपनी रूह में और रूहों को जोड़ने की हिम्मत नहीं करता वह कायर ही हो सकता है।
क्या भारत में धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव होता है? उत्तर हम सब जानते हैं। लेकिन अगर प्यू रिपोर्ट पर यक़ीन करें तो अधिकतर भारतीयों ने अपने जीवन में किसी प्रकार के जातिगत और धर्म-आधारित भेदभाव का सामना नहीं किया है। ऐसा क्यों है?
श्मशान खाली हैं और कब्रों की खुदाई करनेवालों के हाथों को कुछ आराम है। हस्पतालों में भी बिस्तर अब मिल जाएँगे। तो क्या हम इसे प्राकृतिक चक्र मानकर बैठ जाएँ? कितने लोग इस बीच गुज़र गए, उनके बारे में सोचने की जहमत कौन ले?
भारत में कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बाद अस्पताल न मिलने, ऑक्सीजन के लिए भटकते हुए, दवा के अभाव में लोग मारे गए।
पश्चिम बंगाल के श्यामपुकुर विधान सभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार संदीपन बिस्वास चुनाव प्रचार करते हुए वाम दलों के नेताओं के घर गए और उनसे अपने पक्ष में मतदान की प्रार्थना की।
अन्ना हज़ारे के आंदोलन में लोकपाल क़ानून जिस तरह बना उससे सरकार को बिना चर्चा क़ानून बनाने के रास्ते मिले। बहुमत से क़ानून बन जाता है। विचार-विमर्श की क्या ज़रूरत?
फिर छत्तीसगढ़ से सीआरपीएफ़ के जवानों के मारे जाने की ख़बर आ रही है। लिखते वक़्त 22 जवानों की मौत का पता चला है। संख्या बढ़ सकती है। ये सब माओवादी विरोधी अभियान में हिस्सा ले रहे थे।
अनुयायी एक अकेले बच्चे पर मंदिर के प्रांगण में हिंसा कर सकते हैं, उसके गाली गलौज कर सकते हैं क्योंकि वह पानी पीने वहाँ आ गया था। उसे क्या पता था कि यहाँ हृदय घृणा से जलकर राख हो चुके हैं।
2002 की हिंसा ने गुजरात में विभाजन मुकम्मल कर दिया। इस हिंसा ने हम जैसे बहुत से ग़ैर गुजरातियों का परिचय गुजरात से करवाया। गुजरात में जो हो रहा था, वह हमारे राज्यों में नहीं हो सकता, इस खुशफहमी में भी हम काफ़ी वक़्त तक रहे।
यह हुक्म सिर्फ विश्वविद्यालयों या शिक्षण संस्थानों के लिए नहीं है। शोध संस्थान, प्रयोगशालाएँ भी इसके घेरे में हैं। इस परिपत्र का अर्थ होगा व्यावहारिक रूप में किसी भी अकादमिक विचार विमर्श का अंत।
वर्षारंभ पर एक नई अवधारणा का उपहार भारतीयों को दिया गया: ‘ऑटोमैटिक पैट्रीअट’। बताया गया कि हिंदू ‘ऑटोमैटिक पैट्रीअट’ होते हैं। यानी हिंदू होने का अर्थ ही ‘पैट्रीअट’ होना है।
2020 का सूर्य अस्ताचलगामी है। इस साल को कैसे याद करेंगे? वर्ष भारत के लिए आरंभ हुआ था उम्मीद की काँपती हुई लौ की गरमाहट के साथ और विदा ले रहा है फिर से आशा के दीप की ऊष्मा देते हुए।
किसान आंदोलन पर सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रास्ता किसानों ने नहीं आपने, यानी आपकी पुलिस ने रोका है। कहा कि सरकार किसानों पर कोई ज़बर्दस्ती नहीं करेगी। आंदोलन भी जारी रहने दिया जाएगा।
सिंघू और टिकरी की सीमा को पार कर दिल्ली आने से रोक दिए गए पंजाब और हरियाणा के यात्रियों के बीच से लौटते हुए सोचता रहा। इनसे पूछा जा रहा है कि इस राह पर तुम्हीं अकेले क्यों? बिहार, बंगाल के किसान क्यों नहीं?
नये कृषि क़ानूनों का किसान विरोध कर रहे हैं। असहमति की आवाज़ और मुक्ति की ऐसी ही एक सामूहिक प्रार्थना अभी दिल्ली की सीमाओं पर की जा रही है। उसमें शामिल होकर अपनी मुक्ति की तलाश भी की जा सकती है।
किसान दिल्ली की सरहद पर जमे हुए हैं। पहले तो सरकार ने किसानों के क़ाफ़िले के रास्ते में जो भी रुकावट मुमकिन थी, वह डाली। अड़चन पर अड़चन पैदा की।
लेडी श्रीराम कॉलेज की एक छात्रा ने तेलंगाना में आत्महत्या कर ली। उनका परिवार पहले से ही कर्ज में डूबा था इस वजह से ऐश्वर्या ऑनलाइन पढ़ाई करने में सक्षम नहीं थीं। शिक्षा व्यवस्था में आख़िर गड़बड़ी कहाँ है?
फ्रांस में कुछ दिन पहले एक अध्यापक की सर काट कर की गई हत्या ने फ्रांस को ही नहीं, पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। कितना ही गंभीर धार्मिक अपमान या ईशनिंदा क्यों न हो, क्या हिंसा किसी भी तरह जायज़ ठहराई जा सकती है?
आज यानी 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया था। भगत सिंह भगत सिंह कैसे बने? किताबों ने। किताबों से उनका गहरा लगाव था। भगत सिंह के मित्रों में से एक शिव वर्मा ने लिखा है कि भगत सिंह हमेशा एक छोटा पुस्तकालय लिए चलते थे।
सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने प्रशांत भूषण को बताया है कि अपनी ग़लती मान लेने से कोई छोटा नहीं हो जाता। इस प्रसंग में, जैसा भारत में हर प्रसंग में करने का रिवाज है, न्यायमूर्ति ने महात्मा गाँधी का सहारा लिया।
जैन धर्म का मानव संस्कृति को योगदान ही माना जाएगा कि उसने क्षमायाचना को एक सामुदायिक या सार्वजनिक भाव के रूप में प्रतिष्ठित किया। पढ़ें अपूर्वानंद का लेख।
क्या हमें मान लेना चाहिए कि 2020 का 5 अगस्त भारतीय गणतंत्र के पहले संस्करण का अवसान और दूसरे संस्करण का जन्म दिवस है? क्या इसकी चमक दमक 15 अगस्त की आभा को धूमिल कर देगी?
उमर अब्दुल्ला नाराज़ हैं। भारत के विपक्ष से, संसद से और अपने आप से। अपने साथ किए गए धोखे से वह नाराज़ हैं। वह क्षुब्ध हैं कि जम्मू और कश्मीर की रही-सही स्वायत्तता का अपहरण कर लिया गया और उसके दो टुकड़े कर दिए गए।
शायद अब वक़्त आ गया है कि इसे किसी एक ख़ास मुल्क या मज़हब या समुदाय को लगनेवाली बीमारी न मानकर वैसे ही महामारी माना जाए जैसे हम कोरोना वायरस के संक्रमण को मानते हैं।
तो क्या अब दुनिया भर के मुसलमानों के लिए यह जश्न का मौक़ा है? यह कि हागिया सोफ़िया या हाया सोफ़िया अब फिर से मसजिद है? वह जो कल तक संग्रहालय थी? उसके पहले मसजिद? और उसके भी पहले एक गिरजाघर?