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सिख-मुसलमान साथ नहीं आ सकते तो राष्ट्र कैसा?

राष्ट्र का अर्थ है नितांत भिन्न प्रकृति के लोगों की एक दूसरे के प्रति ज़िम्मेवारी की भावना का दृढ़ होना और भिन्न पहचानों के साथ और उनके बावजूद सहभागिता का निर्माण। लेकिन अगर एक बिहारी बंगाली की तकलीफ़ नहीं समझ सकता या एक हिंदू एक मुसलमान का दर्द नहीं साझा कर सकता और एक सिख के बगल में एक मुसलमान नहीं खड़ा हो सकता तो हम किस एक राष्ट्र की बात कर रहे हैं?
अपूर्वानंद

किसान दिल्ली की सरहद पर जमे हुए हैं। वे दिल्ली में संसद के क़रीब जंतर मंतर में इकट्ठा होकर सरकार को बताना चाहते हैं कि क्यों वे उन क़ानूनों के ख़िलाफ़ हैं जो सरकार खेती-किसानी के मामले में ले आई है। आख़िर यह संसद उनकी है और यह राजधानी दिल्ली भी उनके मुल्क की ही है। पहले तो सरकार ने किसानों के क़ाफ़िले के रास्ते में जो भी रुकावट मुमकिन थी, वह डाली। अड़चन पर अड़चन पैदा की लेकिन किसानों के जत्थे सबको पार करते हुए दिल्ली की सीमा तक आ ही पहुँचे। बैरिकेड की तो सारे आन्दोलनकारियों को आदत है और बर्फानी पानी का हमला भी वे झेलते रहे हैं लेकिन पहली बार सबने देखा कि किसानों को न बढ़ने देने को आमादा सरकारों ने सड़कें खोद डालीं। लेकिन किसान किसान ही है। खुदे गड्ढों को उन्होंने अपने हाथों से ही मिट्टी से पाट दिया और आगे बढ़ गए।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

जवाहरलाल नेहरू ने किसानों के ज़मीन से अजीब से लगाव के कारण उनके भीतर धीरज और जीवट के तत्त्वों को पहचाना था और इसी वजह से उथले शहरी लोगों के मुक़ाबले ठहरे हुए किसान उन्हें अपनी तरफ़ खींचते थे। वह ठहराव इन आंदोलनकारी किसानों में भी दिखलाई पड़ा। एक बुज़ुर्ग किसान पुलिस की लाठियों, पानी की बौछारों और अपमानजनक प्रचार के बावजूद अपने साथियों को कह रहे हैं कि जो भी सड़क के बीच है, वह हट जाए। उनका मक़सद आते जाते लोगों को परेशान करना नहीं। पुलिस लाठी चलाए तो भी उनके बीच से किसी का हाथ नहीं उठे, यह ख्याल रखना है। वे कह रहे हैं कि हमारा मक़सद सड़क घेरना नहीं है, बल्कि दिल्ली पहुँचना है। हाथ किसी पर नहीं उठेगा भले ही पुलिस गोली चला दे। लेकिन दिल्ली जाने के रास्ते में वे जो बैरिकेड खड़े करेंगे, हम उन्हें तोड़ते चलेंगे। वे कह रहे हैं कि कोई उत्तेजक नारे भी नहीं लगाने हैं। एक की उत्तेजना या हिंसक हरकत से पूरा आन्दोलन बैठ जा सकता है, यह चेतावनी वे बुजुर्गवार दे रहे हैं।

वे यह भी कह रहे हैं कि सुना गया है कि किसी ने भिंडरवाले आदि की बात की है। वे साफ़ कहते हैं कि आंदोलन किसानों की समस्या को लेकर आए हैं और इसमें सभी धर्मों, समुदायों के लोग शामिल हैं, यह सब की समस्या है। अगर कोई एक वर्ग संख्या में अधिक दिखलाई पड़ रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं कि यह उसका सांप्रदायिक आंदोलन है।

किसान पंजाब से ज़्यादा आए हैं। हरियाणा के भी हैं, उत्तर प्रदेश से भी आ रहे हैं, राजस्थान और मध्य प्रदेश से भी। पंजाब क़रीब होने के कारण सिख अधिक दीख रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है। लेकिन ऐसा क्यों है कि सिखों की संख्या अधिक होने के तथ्य को इस तरह प्रदर्शित किया जा रहा है मानो यह आंदोलन विभाजनकारी उद्देश्य से चलाया जा रहा है?

क्यों भारतीय जनता पार्टी के नेता और उनके प्रचारक अख़बार और टी वी चैनल डराने की कोशिश कर रहे हैं कि इस आन्दोलन की आड़ लेकर पाकिस्तान और खालिस्तान समर्थक सक्रिय हो गए हैं? किसान सर उठाकर बात कर रहे हैं। इससे क्यों ये जन संचार माध्यम ख़फ़ा हैं? अपना सर ऊँचा करके बात करनेवालों से इन्हें नफ़रत क्यों है?

मालूम हुआ कि मसजिदों ने इन आंदोलनकारी किसानों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं। यह भी मालूम हुआ कि ‘युनाइटेड अगेंस्ट हेट’ के कार्यकर्ता इन्हें खाना खिला रहे हैं। लेकिन इस बात को इस आंदोलन के ख़िलाफ़ क्यों इस्तेमाल किया जा रहा है? क्यों यह मुमकिन नहीं कि किसानों के आंदोलन के समर्थन में दूसरे तबक़े के लोग भी सामने आएँ और उनका हाथ थामें?

government barriers to farmers protest at delhi border - Satya Hindi

मुसलमानों की संख्या अधिक तो साज़िश!

पिछले साल हमने बड़ी तादाद में भारतीयों को सड़क पर एक दूसरे मसले पर सरकार के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरते देखा था। जैसे आज के आंदोलन में सिखों के चेहरे ज़्यादा हैं, वैसे ही पिछली बार मुसलमान ज़्यादा थे। जिस तरह इस बार सिखों की बहुतायत के चलते इस आंदोलन को भारतविरोधी बतलाया जा रहा है और इसके ख़िलाफ़ संदेह पैदा किया जा रहा है, उसी तरह पिछली बार मुसलमानों की संख्या अधिक होने के चलते उस आंदोलन को भारतविरोधियों की साज़िश बतलाया गया था। उस आंदोलन का साथ देने किसानों ने पंजाब से आकर शाहीन बाग़ में लंगर लगाया था। लंगर लगानेवालों पर आतंकवाद विरोधी क़ानून के तहत मुक़दमे दायर किए गए हैं।

जैसे मुसलमानों से कहा जा रहा था कि उन्हें सरकार का विरोध करने का अधिकार नहीं है, वैसे ही किसानों को भी कहा जा रहा है कि वे सरकार को परेशान नहीं कर सकते। मुसलमानों के संगठन उनका समर्थन नहीं कर सकते, छात्र और नौजवान, जो किसान नहीं हैं, उनके पक्ष में आवाज़ नहीं उठा सकते।

पिछले 6 सालों में एक प्रवृत्ति सरकार और मीडिया में देखी जा रही है। इसके अनुसार समाज का कोई तबक़ा दूसरे के दुख-दर्द का साझीदार नहीं हो सकता। कोई किसी के साथ खड़ा नहीं हो सकता। सरकार के किसी क़दम से अगर सीधे आपका दुनियावी नुक़सान नहीं हो रहा तो आपको क्या पड़ी है कि आप दूसरे की बाँह थामें! अगर आप ऐसा करते हैं तो ज़रूर आपके मन में कोई साज़िश पल रही है।

वीडियो में देखिए, किसानों को क्यों बताया जा रहा है देशविरोधी?

यह समाज को टुकड़े टुकड़े में बाँटकर लोगों को एक दूसरे से पूरी तरह काट देने का नज़रिया है। लेकिन इस दृष्टि का अर्थ यह है कि एक राष्ट्र की कल्पना असंभव है। राष्ट्र का अर्थ है नितांत भिन्न प्रकृति के लोगों की एक दूसरे के प्रति ज़िम्मेवारी की भावना का दृढ़ होना और भिन्न पहचानों के साथ और उनके बावजूद सहभागिता का निर्माण। केरल में बाढ़ आने पर बिहार के लोग मदद दें या गुजरात में भूकंप आने पर असम के लोग सहायता लेकर दौड़ पड़ें।

यही राष्ट्र होने का अर्थ है। हालाँकि इससे भी बड़ी चीज़ है राष्ट्र की सीमा से परे भी मानवीय संवेदना का विस्तार। लेकिन अगर एक बिहारी बंगाली की तकलीफ़ नहीं समझ सकता या एक हिंदू एक मुसलमान का दर्द नहीं साझा कर सकता और एक सिख के बगल में एक मुसलमान नहीं खड़ा हो सकता तो हम किस एक राष्ट्र की बात कर रहे हैं?

दो साल पहले केरल में बाढ़ आई थी। उसके बाद स्वाभाविक था कि पूरे देश में केरलवासियों के लिए संवेदना दिखलाई पड़े। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों ने एक घृणा अभियान शुरू किया कि केरल के लोगों को कोई मदद नहीं देनी चाहिए। केरल में मदद देने का मतलब होगा ईसाइयों और मुसलमानों की मदद करना। यह कैसे किया जा सकता है? जब केरल के लोग मुसीबत में थे, कहा जा रहा था कि उनकी ओर हाथ नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।

पिछले साल मुसलमानों को अकेला करने, इस बार किसानों को अकेला करने और सबको छोटे छोटे स्वार्थी समूहों में शेष कर देने का नाम ही अगर राष्ट्रवाद है तो क्या हमें इसकी संकीर्णता से सावधान होने की ज़रूरत नहीं है?

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