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किसानों के लिए आफत बन गए हैं छुट्टा पशु!

उत्तर प्रदेश में छुट्टा पशुओं की समस्या किसानों के लिए मुसीबत बन गई है। खेत ही नहीं, घर के आसपास सब्जी बोने पर भी आफत है। गोरक्षा के नाम पर सरकार की ओर से किए गए बदलावों ने इस मुसीबत को कई गुना बढ़ा दिया है।

किसान दूध के खुद के इस्तेमाल और आर्थिक मुनाफा बढ़ाने के लिए दुधारू पशुओं का पालन करते हैं। हर किसान के परिवार में गायें होती हैं, जिससे किसानों को कुछ न कुछ आमदनी हो जाती है। गौरक्षा के नाम पर हुए शुरुआती हंगामों ने किसानों को ख़ूब लुभाया। इस अभियान को किसानों का समर्थन भी मिला, क्योंकि किसान खुद गाय को बहुत पवित्र और अवध्य मानते हैं। अब छुट्टा जानवरों की बढ़ती संख्या से ग्रामीण इलाक़ों में आफत है।

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किसानों की समस्याएँ दो तरह की हैं। पहली समस्या छुट्टा पशुओं के खेत चर जाने की है। इसके लिए ग्रामीण तमाम गांवों में टीम बनाकर रातभर जागते हैं और पशुओं को खदेड़ते हैं। पशुओं को खदेड़ना कोई स्थाई उपचार साबित नहीं होता है। झुंड के झुंड पशु आख़िर जाएँ तो कहाँ जाएँ। एक गांव वाले भगाएंगे दो दूसरे गांव में। एक खेत से भगाने पर दूसरे खेत में जाते हैं। इससे गाँवों में संघर्ष भी बढ़ रहा है।

पशुधन किसानों की नकदी का स्रोत भी रहे हैं। जब भी किसानों को पैसे की ज़रूरत होती है, वह अपनी गायें, बछड़े, भैंस इत्यादि बेच देते हैं। दुधारू पशुओं की क़ीमत बहुत ज़्यादा होती है। इस लेन-देन में छोटे और सीमांत किसान बूढ़ी गायों को कम क़ीमत पर खरीद लेते हैं। मौजूदा सरकार के सत्तासीन होने पर ख़ासकर गायों पर विजिलेंस इस कदर बढ़ा कि गायों और बछड़ों की बिक्री ही बंद हो गई। ऐसे में पशुओं की बिक्री औने-पौनै भाव हो रही है, चाहे वह बछवा, पड़वा हो या न दूध देने वाली गाय और भैंस। किसानों के पशु ही आवारा या छुट्टा जानवर होकर किसानों की फ़सल रौंदने लगे हैं।

छुट्टा पशु गाँवों के आसपास के कस्बों और शहरों के लिए भी समस्या बन गए हैं। गांव के लोग जब पशुओं को भगाते हैं तो उनके आश्रय कस्बे और शहर बनते हैं। शहरों की सड़कें छुट्टा पशुओं से पट रही हैं। ऐसे में ढेरों सड़क दुर्घटनाएँ हो रही हैं। परेशान जानवर भी लोगों पर हमले कर रहे हैं। 

शहरी इलाक़ों में पॉलीथीन व अन्य अखाद्य चीजें खाने की वजह से गायों, बछड़ों, सांडों व अन्य पशुओं की मौतें हो रही हैं। पशुओं का सम्मान और सुरक्षा तो दूर की बात, उनकी ज़िंदगी ही ख़तरे में पड़ गई है।

छुट्टा जानवर शहरों में इतनी बड़ी समस्या बन गए हैं कि संघर्ष आम बात है। कानपुर में गाय हाँकने पर युवक की पीट-पीटकर हत्या, इसका एक उदाहरण है।

छुट्टा पशुओं की समस्या 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के साथ ही आनी शुरू हो गई थी। देश भर के तमाम इलाक़ों में गाय की बिक्री करने या गाय लेकर जाने वाले लोगों पर हमले हुए। किसी भी प्रयोजन के लिए गाय लेकर जा रहे लोगों पर हिंदूवादी संगठनों ने हमले कराए। खासकर मुस्लिम समुदाय के लोग इस अभियान के शिकार बने। यह समस्या इस कदर बढ़ी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुद अपील करनी पड़ी कि गाय के नाम पर हत्या उचित नहीं है। प्रधानमंत्री ने कहा, “गौरक्षकों की हरकतों से मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है। ये रात में अपराधी होते हैं और दिन में गौरक्षक बन जाते हैं।” 

stray cattle poses risk for farmers in up - Satya Hindi

हालाँकि प्रधानमंत्री के इस बयान का कोई असर नहीं हुआ। गौरक्षक सक्रिय रहते हैं। प्रधानमंत्री ने भले ही तमाम हत्याओं और अंतरराष्ट्रीय छीछालेदर के बाद बयान दे दिया, लेकिन यह राजनीति भाजपा-आरएसएस की विचारधारा को समर्थन करती है। अमूमन गौरक्षक हिंदूवादी होते हैं और वह राजनीतिक, वैचारिक रूप से भाजपा को समर्थन प्रदान करते रहे हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भले ही किसानों से जुड़ी पार्टी है, लेकिन वह छुट्टा पशुओं की समस्या पर कभी मुखर होकर सामने नहीं आई। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी किसानों के इस मसले पर मौन है। राज्य में कांग्रेस ने किसानों को राजनीति के केंद्र में लाने की कई कवायदें कीं। कांग्रेस ने पूर्वी उत्तर प्रदेश से आने वाले अजय लल्लू को पार्टी का प्रमुख बनाया, जो अपने संघर्षों के लिए जाने जाते हैं। लेकिन पिछड़ी बनिया जाति के लल्लू की न तो प्रदेश स्तर पर कोई अपील है, न ही किसानों के मसले उन्हें छू पाते हैं। 

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किसान कांग्रेस उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष तरुण पटेल किसानों के मसलों को लेकर आंदोलनरत हैं, लेकिन उनकी आवाज़ स्थानीय स्तर पर सिमटकर रह जाती है। पिछले 17 दिन से तरुण पटेल अनशन पर हैं। वह ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं और गोंडा में अपने गाँव में ही अनशन कर रहे हैं। पटेल का कहना है कि सरकारी गौशालाएँ सरकारी धन के लूट का तंत्र बन गई हैं। उनका आरोप है कि हिंदू युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं के लिए गौशाला नीति बनी है। वह सवाल उठाते हैं कि पालतू पशु गोशाला में नहीं, किसानों के दरवाजे पर संतुष्ट होता है और वह पशुओं को बेहतर पोषण देता है। सरकार पालतू पशुओं और किसानों का संबंध ख़त्म कर रही है।

ऐसा नहीं है कि बीजेपी के शासन में आने पर पशुओं के मांस बिकना बंद हो गए हैं या जानवर कटने बंद हो गए हैं। 2015 में ज़रूर थोड़ा असर पड़ा, लेकिन उसके बाद भारत से मांस का निर्यात बढ़ गया।

2020-21 में कोरोना और आवाजाही पर रोक के कारण मांस का निर्यात कम हुआ है, लेकिन अभी भी भारत मांस का सबसे बड़ा निर्यातक बना हुआ है। किसानों के जानवर सस्ते बिकने के कारण यह संभव है कि मांस की बिक्री करने वालों को सस्ते में जानवर मिल रहे हों, क्योंकि मांस की न तो मांग कम हुई है, न बिक्री कम हुई है, न निर्यात में भारत पीछे है।

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कृषि प्रधान राज्य उत्तर प्रदेश में किसानों का मसला चर्चा से ग़ायब है। सरकार से लेकर विपक्ष तक विभिन्न रसीले, चुटीले मसलों में फँसे हैं। प्रधानमंत्री से लेकर भारतीय जनता पार्टी और कभी-कभी बड़े नेताओं के ऊल-जुलूल बयान, ट्वीट आदि मसले बनते हैं और उस पर सोशल मीडिया पर सिरफुटौव्वल मचती है। नेता उसी में फँसे रहते हैं। लोकसभा-2019 के पहले छुट्टा जानवरों से किसानों को हो रही समस्याएँ सुर्खियाँ बटोरने लगीं, उसी बीच केंद्र सरकार ने पीएम किसान सम्मान निधि की घोषणा कर दी। किसानों के खातों में घर बैठे 2,000 रुपये पहुँचने से किसान खुश हो गए। 2019 के चुनाव के पहले तमाम किसानों के खातों में दूसरी और तीसरी किस्त भी पहुँच गई और उन्हें 6,000 रुपये मिल गए। सरकार ने महफिल लूट ली। लेकिन किसानों की समस्या जस की तस बनी हुई है, जो उन्हें 6,000 रुपये सालाना से कई गुना ज़्यादा नुक़सान पहुँचा रही है।
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प्रीति सिंह
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