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जारी है… पीएम मोदी के खिलाफ ‘अविश्वास प्रस्ताव’!

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के ख़िलाफ़ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। देश-दुनिया के तमाम राजनीतिक विश्लेषक और राजनीति को थोड़ा भी समझने वाले आम लोग भी इस बात को जानते थे कि सरकार पर्याप्त बहुमत में है और इसलिए इसके अस्तित्व को लेकर कोई ख़तरा नहीं है। इसके बाद भी विपक्ष द्वारा यह प्रस्ताव लाया जाना इस बात का स्पष्ट संकेत था कि यह प्रस्ताव सरकार को गिराने के लिए नहीं बल्कि इसे ‘जगाने’ के लिए लाया गया था। यह बात विपक्ष की ओर से उत्तर-पूर्व से आने वाले कांग्रेस  सांसद गौरव गोगोई ने भी स्पष्ट कर दी थी।
गौरव गोगोई ने कहा कि "अविश्वास प्रस्ताव पर पीएम मोदी ने 2 घंटों तक अपनी बात रखी, लेकिन वह मणिपुर पर कुछ नहीं बोले। इस प्रस्ताव को लाने के 2 कारण थे। पहला- मणिपुर को इंसाफ दिलाना और दूसरा- देश की संसद की मर्यादा को बचाने के लिए पीएम मोदी को विवश किया जाए, ताकि वह मणिपुर पर अपना चुप्पी को तोड़ें।"
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कुछ राजनीतिक विश्लेषकों में इस बात को लेकर तनाव था कि ध्यानाकर्षण प्रस्ताव और अविश्वास प्रस्ताव में अंतर है और जब अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है तब सरकार अपनी उपलब्धियां गिनाकर अपना बचाव करती है। और शायद इसीलिए सरकार की तरफ़ से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, किरण रिज़िजू, गृहमंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाईं। विश्लेषकों की राय में यही कारण था कि विपक्ष सरकार को घेर नहीं पाया। जो बात विश्लेषक पूरी तरह से समझने में नाकाम रहे वह यह है कि एक लगभग सर्वसत्तावादी सरकार जो किसी भी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर कुछ भी बोलने को तैयार नहीं होती उसे संसद के फ़्लोर में लेकर आना और उसके मुखिया प्रधानमंत्री समेत तमाम मंत्रियों को बोलने पर मजबूर करना विपक्ष की एक सफलता ही है। 
एक बात जो बहुतों को समझ नहीं आ रही है वह यह है कि किसी सरकार को घेरने के लिए दो सबसे अहम स्थान है; पहला संसद और दूसरा संसद के बाहर! संसद के बाहर अपनी बात जनता तक पहुँचाने के लिये स्वतंत्र मीडिया और निष्पक्ष प्रशासन चाहिए जबकि संसद के अंदर बात रखने और जनता तक सही तरह से पहुँचाने के लिए निष्पक्ष पीठासीन अधिकारी चाहिये, दुर्भाग्य से भारत जिस दौर से गुजर रहा है वहाँ इन दोनों की ही उपलब्धता नहीं है।
पिछले 9 सालों में जिस तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने काम किया है वह आने वाले समय में शोध का विषय ही होगा कि कैसे भारत जैसे विशाल लोकतंत्र का अपेक्षाकृत निष्पक्ष मीडिया ‘एक तारीख़’ के बाद हमेशा के लिए इतना बदल गया कि ग़ुलामी, चापलूसी और पत्रकारिता में अंतर करना नामुमकिन हो गया है। हर उस व्यक्ति को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बाहर कर दिया गया जिसने दो-चार शब्द भी वर्तमान सरकार और उसके मुखिया के ख़िलाफ़ बोला हो। और धीरे धीरे मजबूत पत्रकारों और सरकारी निर्णयों पर सवाल उठाने वालों का स्थान ऐसे लोगों ने ले लिया जो अपनी जेबों को भरने के लिए भारत के लोकतंत्र को कुतरने और उसे नष्ट करने का काम करते रहे। ऐसा मीडिया संसद के बाहर विपक्ष की आवाज़ को ऊंचा करने के लिए नहीं बल्कि उसे दबाने और नेस्तनाबूद करने का काम करता रहा है और अब भी लगातार कर रहा है।
संसद के अंदर जहाँ अब भी कोई आशा बाक़ी थी पीठासीन अधिकारियों ने इस पर भी पानी फेरना शुरू कर दिया है। ऐसे नेताओं को संसद से निलंबित किया जा रहा है जो न सिर्फ़ मुखरता से अपनी बात रखते हैं बल्कि सरकार में बेचैनी भी पैदा करते हैं। आम आदमी पार्टी के संजय सिंह और राघव चड्ढा को अलग अलग ’नियमों’ का हवाला देकर राज्यसभा से निलंबित किया गया। तृणमूल कॉंग्रेस के राज्यसभा में सबसे मुखर नेता डेरेक ओ ब्रायन को भी निलंबित करने की कोशिश की गई। सबसे ख़तरनाक और डरावना तो यह है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता(Lop) कॉंग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी को भी निलंबित कर दिया गया है। बात यहीं नहीं रुकती कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने यह आरोप लगाया है कि लोकसभा में राहुल गांधी के भाषण के दौरान उनका चेहरा लगभग न के बराबर दिखाया गया।।
संसद के बाहर अनियंत्रित रूप से चापलूसी में मशगूल मीडिया और संसद के अंदर नियमों की आड़ में प्रखर और मुखर नेताओं के निलंबन के बीच एक ऐसा माहौल बनाया गया जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए इतना मुफ़ीद हो ताकि वो संसद में आकर आराम से बोल सकें और जब सबकुछ हो गया तब प्रधानमंत्री लोकसभा में बोलने के लिये आये और इतना बोले कि टेलीग्राफ ने अपने मुख्य पृष्ठ पर उनके भाषण को ‘blah blaah blaah’ से ही भर दिया, यही मुख्य पेज की मुख्य खबर(the record-breaking blah-sphemy) बनी। अखबार का इस ख़बर का तात्पर्य यह था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसा कुछ नहीं बोला जिससे जनता और सदन लाभान्वित हो सकें। 
अपने दो घंटे से अधिक के भाषण में वो अपनी उपलब्धियों को गिनाते हुए कॉंग्रेस पर और पुराने प्रधानमंत्रियों पर प्रहार करते नजर आए, उनकी असमय हंसी पर भी अचंभा हुआ, जबकि देश इनसे मणिपुर और नूंह जैसे मामलों पर चर्चा चाह रहा था उनका जवाब सुनना चाह रहा था, उनका आश्वासन चाह रहा था। लेकिन कॉंग्रेस का भूत और उनके अपने व्यक्तिगत सपनों का भविष्य उनका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं।
भले ही अविश्वास प्रस्ताव संसद में गिर गया हो, सरकार ने सदन में बहुमत साबित कर लिया हो लेकिन जो बात सबसे अहम है वह यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किसी भी बात और कथन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। वो जब भी बोलते हैं उसमें अतिरेक और तथ्यात्मक गलतियों का समावेश जरूर होता है। ये गलतियाँ वो जानबूझकर करते हैं या उन्हे सही तथ्यों की जानकारी नहीं है यह बात मुझे नहीं पता लेकिन भाषण में गलतियाँ उनके भाषणों का अभिन्न अंग होती हैं। ये गलतियाँ जिन्हे कुछ लोग, प्रधानमंत्री जी द्वारा बोले गए, ‘झूठ’ भी कहते हैं, सिर्फ भाषणों तक सीमित नहीं है यह उनकी योजनाओं और ‘विजन’ में भी परिलक्षित होते रहते हैं।
2008 में गुजरात के मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए उन्होंने ‘ढोलेरा स्मार्ट सिटी’ का ‘विजन’ सामने रखा था। उसी समय के एक भाषण में वह अपनी तारीफ स्वयं करते नजर आते हैं जिसमें उनका कहना था कि “मेरी स्पीड और स्केल वाला मामला तो रहता ही है हर चीज में” इसके बाद वो भविष्य की ढोलेरा सिटी के बारे में बोलना शुरू करते हैं। “मित्रों आज जो दिल्ली है, हजारों साल बाद आज जो दिल्ली बना है,…हमारा जो नया ढोलेरा बनेगा उसकी साइज़ दिल्ली से डबल(दोगुनी) है।” इसके बाद वो आगे कहते हैं कि “हमारा जो ढोलेरा बनेगा उसकी साइज़ आज के शंघाई से 6 गुनी अधिक होगी”। 
तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी का यह भाषण सुनकर माथा पीटना एक आम घटना होगी। दिल्ली का क्षेत्रफल 1483 वर्ग किमी है, और शंघाई का 6340 वर्ग किमी, और वो एक ऐसे शहर के निर्माण का दावा कर डालते हैं जो एक साथ दिल्ली का दोगुना और शंघाई का 6 गुना होगा! जबकि आंकड़ों के हिसाब से जो दिल्ली का दोगुना होगा वह शंघाई का आधा होगा, ऐसे ये ढोलेरा 6 गुना कहाँ से हो गया? अगर यह बात उनकी जुबान से फिसली होती तो भी बात समझी जा सकती है।
अपने भाषण के दौरान वो जिस ढोलेरा की वेबसाइट की बात कर रहे हैं उसमें भी यही गलत तथ्य लिखा हुआ है। मतलब यह है कि झूठ को ही तथ्य बना देना और उसे अपने ‘विजन’ के रूप में पेश करना यह नरेंद्र मोदी जी के लिए नई बात नहीं है। आज भी उनका यही रवैया बरकरार है। अविश्वास प्रस्ताव पर जवाबी भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि “मैं इन शब्दों को बड़े विश्वास के साथ कहना चाहता हूँ कि हम जो कर रहे हैं उसका प्रभाव आने वाले एक हज़ार साल तक रहने वाला है”। अपनी बात को बढ़-चढ़ा कर कहना और खुद को विकास का मास्टर साबित करना प्रधानमंत्री जी को सही लगता है क्योंकि उनका हर भाषण, वादा और विचार सिर्फ और सिर्फ अतिशयोक्ति अलंकार से डूबा हुआ अर्थहीन साहित्य है। उन्हे स्वयं कभी आईने के सामने आकर सोचना चाहिए कि पिछले 9 सालों में उन्होंने जो कहा उसे किस सीमा तक पूरा किया?
“सबका साथ सबका विश्वास” नारे में साल दर साल बस शब्द जुड़ते गए, लेकिन अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों और मोनू मानेसरों पर पीएम मोदी का न कोई विचार है और न ही इनके खिलाफ कोई प्रतिक्रिया! नूह में जो हुआ, जो हो रहा है और जिस तरह पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने खुलकर भाजपा सरकार से कहा कि नूह में “राज्य द्वारा प्रायोजित ‘नृजातीय संहार’ हो रहा है” उसके बाद भी पीएम मोदी को इस विषय पर, देश में बढ़ती धार्मिक खाई पर और देश की एकता के लिए बढ़ते खतरे के विषय में कुछ नहीं कहना, ऐसे में यह नारा और इसके पीछे का विचार झूठ ही मानना चाहिए। 
नोटबंदी के बाद आ रही दिक्कतों के लिए पीएम मोदी ने 50 दिनों का वक्त माँगा लेकिन वह अपने इस वादे पर भी सफल नहीं रहे, नोटबंदी की असफलता जगजाहिर है और इसने जिस तरह भारत के नागरिकों को पूर्णतया निराशकिया, चोट पहुंचाई उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। ‘हर घर जल’ का वादा भी झूठा रह गया, प्रधानमंत्री जी उज्ज्वला योजना के पीछे का मन्तव्य भी पूरा न कर सके। मेक इन इंडिया शब्द का इस्तेमाल शायद ही अब प्रधानमंत्री जी करते हों। और अब जबकि भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में यह खुलासा कर दिया है कि आयुष्मान योजना जिसे भारतीय नागरिकों के स्वास्थ्य खर्चे को कम करना था, उसमें एक मोबाइल नंबर से लाखों की संख्या में लोग जुड़े हैं और अरबों की धांधली हो रही है तब यह पूरी आशा है कि पीएम मोदी इस योजना का नाम लेना भी जल्द ही बंद कर देंगे। 

कभी कभी लगता है मानो उनका हर वादा और हर बड़ी योजना की घोषणा और उस पर गाजे-बाजे के साथ किए जाने वाले कार्यक्रम बस बात का संकेत मात्र है कि वह आने वाले अन्य 5 वर्षों में सत्ता में रहने में उनकी मदद कर सके।


प्रधानमंत्री को जनता ने इसलिए नहीं चुना कि वह संसद का कीमती वक्त कॉंग्रेस की कमियों को बताने में बर्बाद करें क्योंकि इसके लिए उनके पास संसद के बाहर पर्याप्त मंच और संसाधन उपलब्ध हैं। संसद में प्रधानमंत्री से यह आशा की जाती है कि वह मुद्दों पर बोलें, इधर उधर की बात कर उनसे भागे नहीं!, आशा की जाती है कि अन्य दलों की तथाकथित कमियों व उनके इतिहास के पीछे न छिपें बल्कि एक मजबूत नेता और नायक की तरह समस्याओं और जनता के बीच आकर खुलकर खड़े हों। वो शायद नहीं समझ पा रहे हैं कि पूरे देश के संसाधन(संसद, सुरक्षा बल) उनके पीछे खड़े हैं और वो हैं कि देश की समस्याएं सुलझाने की बजाय 2024 के आगामी चुनावों के पीछे जाकर चिपक गए हैं। 

अपने हर वादे से पीछे हट जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मणिपुर के मामले में संसद में किए गया वादा कि “जल्दी ही मणिपुर में शांति का सूरज उगेगा। देश की जनता मणिपुर के लोगों, बहन-बेटियों के साथ है”, को कैसे सच मान लें?


कॉंग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने प्रधानमंत्री से तीन सवाल पूछे। उन्होंने कहा कि पीएम मोदी बताएं कि वह किस जिद पर अड़े हैं कि अभी तक मणिपुर नहीं गए? मणिपुर के मुख्यमंत्री को क्यों नहीं बर्खास्त किया? और मणिपुर पर 80 दिन चुप्पी क्यों? पर ताज्जुब की बात तो यह कि पीएम ने किसी सवाल का जवाब नहीं दिया। संभवतया, प्रधानमंत्री जी ‘भाषण’ और ‘जवाब’ में अंतर ही नहीं कर पा रहे हैं। वो ऐसे विद्यार्थी की तरह व्यवहार कर रहे हैं जिससे चाहे जो भी प्रश्न पूछा जाए लेकिन वो उत्तर सिर्फ वही देता है जो पढ़कर आया होता है उसे प्रश्न से मतलब नहीं है उसके लिए सभी सवालों का एक ही उत्तर है।
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संसद में अविश्वास प्रस्ताव के मायने अलग हैं लेकिन संसद से इतर कुछ ऐसे ‘अविश्वास प्रस्ताव’ हैं जो जनता द्वारा लाए जा रहे हैं जो लगातार सरकार और प्रधानमंत्री के सामने सर उठा कर खड़े हैं। महत्वपूर्ण यह है कि यहाँ पीठासीन अधिकारी जनता है। मणिपुर में महिलाओं के साथ जो हुआ उससे पूरे देश की महिलाओं का ‘अविश्वास प्रस्ताव’ उनके सामने है, एक राज्य जल रहा है और फिर भी संसद में पीएम की हंसी उनकी गंभीरता पर ‘अविश्वास प्रस्ताव’ है। 
हरियाणा के नूह और महाराष्ट्र के कोल्हापुर में जो हुआ और लगातार असम के भाजपा मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा जो कर और कह रहे हैंसाथ ही ‘बुलडोजर जस्टिस’ पर पीएम की चुप्पी अल्पसंख्यकों के ‘अविश्वास प्रस्ताव’ के रूप में उनके सामने है। जलते हुए प्रदेश को छोड़कर विदेश यात्रा पर चले जाना, राष्ट्रीय सुरक्षा का ‘अविश्वास प्रस्ताव’ उनके सामने है। इन प्रस्तावों पर किसी भी किस्म की ‘पीठासीन मदद’ नहीं मिल सकेगी, इन प्रस्तावों पर उनको ‘जवाब’ देने होंगे क्योंकि लोग शायद अब एक और उबाऊ ‘भाषण’ के लिए तैयार नहीं है।
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वंदिता मिश्रा
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