सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ, सलाहकारी अधिकारिता के तहत सुनवाई कर रही है (अनुच्छेद -143)। इस अनुच्छेद के अनुसार, यदि राष्ट्रपति को यह महसूस होता है कि विधि के किसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर, जिसका सार्वजनिक महत्व बहुत अधिक है और सुप्रीम कोर्ट की राय जानना जरूरी है तो वो इस अनुच्छेद का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट से राय माँग सकते हैं। संविधान बनने के बाद यह 16वाँ मौक़ा है जब राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से अनुच्छेद-143 के तहत कोई सलाह माँगी गई है।

राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से विधि के 14 सवालों पर उसकी राय माँगी गई है। यह सलाह क्यों माँगी गई है इसके पीछे तमाम विधायी और कार्यपालिका संबंधी घटनाएँ हैं जिन्हें समझना बहुत ज़रूरी है। तमिलनाडु विधानसभा ने 13 जनवरी 2020 से 28 अप्रैल 2023 के बीच 12 ऐसे विधेयकों को पारित किया जिनका उद्देश्य राज्य विश्वविद्यालयों में संस्थागत और नियुक्ति संबंधी सुधार करना था। लेकिन तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि ने बीते तीन सालों के समय में इन विधेयकों पर न ही अपनी सहमति दी और न ही इन्हें राज्य विधानसभा को वापस लौटाया। राज्यपाल के रवैये से परेशान होकर तमिलनाडु सरकार ने 18 नवम्बर 2023 को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इनमें से 10 विधेयकों को पारित कर दिया और इसी दिन इन सभी विधेयकों को पुनः राज्यपाल रवि के पास पहुँचा दिया। इसके बाद भी राज्यपाल द्वारा इन विधेयकों को उनकी सहमति प्रदान नहीं की गई। तमिलनाडु सरकार ने मजबूर होकर सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में एक याचिका दायर कर दी। इस याचिका का उद्देश्य राज्यपाल को अनुच्छेद-200 के तहत मिली शक्तियों के दुरुपयोग को चुनौती देना था। राज्य का कहना था कि राज्यपाल अनंत काल तक विधेयकों पर अपनी सहमति को रोककर नहीं रख सकते।
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राज्यपाल को एससी का झटका!

महीनों की लंबी सुनवाई के बाद 8 अप्रैल 2025 को जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस महादेवन की पीठ ने राज्यपाल आर. एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों पर सहमति (assent) देने में की गई देरी को त्रुटिपूर्ण और अवैध घोषित किया और अनुच्छेद-142 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए तमाम लंबित विधेयकों को स्वीकृति प्रदान कर दी। कोर्ट का यह फैसला राज्यपाल रवि को झटका दे गया, साथ साथ केंद्र सरकार को भी इससे सदमा लग गया। सालों से राज्यपाल ने जिस विधायिका का ‘कार्यकारी अपहरण’ किया था उसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था।

केंद्र सरकार और राज्यपाल लकीर के फ़क़ीर बनकर संविधान के अनुच्छेद-200 के शाब्दिक अर्थ से इसमें दी गई शक्तियों के दुरुपयोग में लगे थे। उन्हें यह उम्मीद भी नहीं थी कि जो बात संविधान में सीधे-सीधे लिखी भी नहीं है सुप्रीम कोर्ट उसे एक झटके में लागू कर देगा। सरकार और राज्यपाल की संविधान को लेकर उनकी संकीर्ण सोच ने उनकी नासमझी को उजागर कर दिया। वो भूल गए कि सुप्रीम कोर्ट भारतीय संविधान का ‘अभिरक्षक’ है और जब जब इस संविधान के अपहरण और दुरुपयोग की कोशिश की जाएगी सुप्रीम कोर्ट बीच में आ जाएगा। असल में अनुच्छेद-200 में साफ़-साफ़ लिखा है कि जब भी कोई विधेयक विधानसभा से पारित होकर राज्यपाल के पास जाएगा, उस वक़्त राज्यपाल के पास तीन विकल्प होंगे। या तो राज्यपाल विधेयक को अनुमति देंगे, या तो अनुमति रोक लेंगे या फिर विधेयक को (यदि यह उच्च न्यायालय की शक्तियों से संबंधित हुआ तो) राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजेंगे। 

अनुच्छेद-200 को पढ़कर शायद राज्यपाल आर एन रवि को लगा होगा कि वे इसका इस्तेमाल करके, सालों तक; एक चुनी हुई विधायिका के काम में बाधा डालते रहेंगे, लेकिन राज्यपाल की इस सोच पर लगाम लगायी गयी और कोर्ट ने मनमानापन नहीं होने दिया।

अनुच्छेद-200 की क्रांतिकारी व्याख्या

8 अप्रैल को जब फ़ैसला आया तो सुप्रीम कोर्ट ने सभी 10 विधेयकों को ‘पारित घोषित’ कर दिया। जस्टिस पारदीवाला द्वारा लिखे गए लगभग 400 पेज के उनके निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-200 की एक क्रांतिकारी व्याख्या कर दी। इस निर्णय में आज़ादी के पहले बने, कॉमनवेल्थ ऑफ़ इंडिया बिल 1925, नेहरू रिपोर्ट 1928, ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ़ हिंदुस्तान फ्री स्टेट’-1944 (हिंदू महासभा द्वारा निर्मित), एम एन रॉय द्वारा बनाया गया ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ़ फ्री इंडिया’ (1944), गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 आदि सब पर ध्यान दिया गया। न्यायालय ने पाया कि जैसे जैसे भारत आज़ादी की ओर बढ़ रहा था राज्यपालों की निरंकुश शक्तियों को लगातार कमजोर किया जा रहा था। लगातार ही यह कोशिश की जा रही थी कि एक राज्यपाल को चुने हुए प्रतिनिधियों के ऊपर कम से कम तरजीह दी जाये। इन्हीं कोशिशों में एक और कोशिश आज़ाद भारत के लिए बने संविधान के पहले ड्राफ्ट (बी एन राव) में भी दिखी। 

लेकिन यह बताने के लिए कि यह अंतिम कोशिश नहीं है। संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरपर्सन डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अनुच्छेद-200 (ड्राफ्ट में अनुच्छेद-175) में एक छोटा लेकिन बेहद महत्वपूर्ण बदलाव, उसमें संशोधन के लिए संविधान सभा में पेश किया। बीएन राव के ड्राफ्ट से अलग जाकर उन्होंने इस अनुच्छेद से ‘स्व विवेक’ शब्द को हटाने का प्रस्ताव दिया, जोकि संविधान सभा में पारित भी हो गया।
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डॉ. आंबेडकर की सोच क्या?

जरा सोचकर देखिए कि आख़िर आंबेडकर को यह आवश्यकता क्यों महसूस हुई कि राज्यपाल के विधायी आधिकार क्षेत्र से ‘स्वविवेक’ शब्द को हटा दिया जाये? संघीय ढांचे की मजबूती और राष्ट्रीय एकता के लिए राज्यपाल की भूमिका को नकारना मुश्किल बहुत है लेकिन राज्यपाल रवि के मामले के बाद से यह भी स्पष्ट हो गया है कि यही राज्यपाल संघीय ढांचे और राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न करने की भी शक्ति रखता है। इस मामले ने दिखा दिया है कि राज्यपाल किस तरह केंद्र सरकार के इशारे पर, पूरी विधानसभा को गतिहीन कर सकता है, प्रदेश का प्रशासनिक जीवन बाधित कर सकता है, राज्य के लोगों को क़ानूनों और ‘कानून के शासन’ से वंचित कर सकता है, पूरे राज्य के मतदाताओं को महत्वहीन कर सकता है, प्रदेश के राजनैतिक नेतृत्व को वैशाखी पर चलने पर मजबूर कर सकता है, इस तरह लोगों के ‘जीवन के अधिकार’ को छीन सकता है या यह कहा जाए कि प्रदेश के लोकतांत्रिक ढांचे को तोड़ सकता है।

यह बात तो तय है कि राज्यपाल को अहम अधिकार इसलिए नहीं दिए गए थे कि वह किसी राज्य के साथ इस क़िस्म का व्यवहार करे, जैसा रवि साहब कर रहे हैं। संवैधानिक पद राज्यपाल का हो या राष्ट्रपति का, मनमर्जी के आधार पर नहीं चल सकते। इस मनमर्जी वाली बात को समझाने के लिए कि यदि कार्यपालिका अपने अधिकारों की आड़ में संविधान को ठेस पहुँचाएगी तो ‘अभिरक्षक’ के रूप में सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना ही होगा। इसके लिए संविधान निर्माताओं ने सुप्रीम कोर्ट को ‘न्यायिक पुनर्विलोकन’ और अनुच्छेद-142 जैसी शक्तियाँ दी हैं जिससे राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता/लालच/वैमनस्य के लिए अनमोल भारतीय लोकतंत्र को तबाह न कर दिया जाये।

जब अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया तो केंद्र सरकार बहुत आहत हो गयी, आहत होकर केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से अनुच्छेद-143 का उपयोग करके सुप्रीम कोर्ट को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है। संवैधानिक रूप से सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को सलाह देने के लिए बाध्य नहीं है।

'चुनी हुई सरकार राज्यपाल की मनमानी पर निर्भर?'

इसके बावजूद न्यायालय ने राष्ट्रपति के सभी 14 सवालों पर सलाह देने का फैसला किया है। इस पर चल रही सुनवाई पूरी होने में अभी वक्त लगेगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट के रूख को देखकर लग रहा है कि उसका उद्देश्य संविधान के शब्दों को बचाना नहीं, संविधान की आत्मा को बचाना है। इसलिए पीठ की अध्यक्षता कर रहे भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी आर गवई ने केंद्र सरकार से पूछा, “क्या चुनी हुई सरकार का भविष्य राज्यपाल की मनमानी और कल्पना पर निर्भर है?”

केंद्र सरकार शर्म और मर्यादा की परतें निकाल चुकी है और खुलकर यह कह रही है कि देश की हर समस्या का समाधान न्यायालय में तो नहीं हो सकता। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि- अगर राज्यपाल सालों से विधेयकों को पारित नहीं कर रहे थे तो मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री से मिलना चाहिए था, समाधान निकल आता।

मेरा सवाल है कि क्या तुषार मेहता यह कहना चाहते हैं कि मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के मातहत कोई कर्मचारी है? क्या मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री का सब-ऑर्डिनेट पद है? क्या राज्यों का शासन केंद्र से चलेगा? क्या राज्यों के शासन के लिए शक्ति केंद्र से प्राप्त होती है? मेहता इस तरह बात कर रहे हैं जैसे उन्हें संविधान के बारे में जानकारी ही ना हो। क्या एस जी मेहता को नहीं पता कि राज्यों के शासन के लिए संविधान में अलग व्यवस्था की गई है? राज्य संविधान से चलता है, केंद्र की दया पर नहीं, इतनी सी बात को पचाने में केंद्र सरकार को क्या समस्या हो रही है? मिस्टर मेहता को पता होना चाहिए कि एक चुनी हुई विधानसभा के संचालन के दिशानिर्देश केंद्र की मोदी सरकार से नहीं लिए जा सकता। केंद्र सरकार चाहे खुश हो या नाराज, राज्यों का शासन संविधान से ही चलना तय है, इसलिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन को सुप्रीम कोर्ट ही जाना चहिये था प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के पास नहीं, क्योंकि यही संविधान की मंशा है।
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बिहार एसआईआर का मामला

संवैधानिक संस्थाओं के अपने दायित्व हैं जिनसे वो बँधी हुई हैं। संस्थाओं के कार्य उन्हें नियुक्त करने वालों की ख़ुशी पर निर्भर नहीं होने चाहिए। फिर वो राज्यपाल हों या निर्वाचन आयोग, फ़र्क नहीं पड़ता। लेकिन जिस तरह मोदी के कार्यकाल में संवैधानिक संस्थाएं काम कर रही हैं उससे उनके पतोन्मुख होने का पता चलता है। जिस तरह निर्वाचन आयोग ने बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण (SIR) के दौरान मनमानी की है, मतदाता सूची की आड़ में पूरे प्रदेश में नागरिकता अभियान चला डाला, जिस लापरवाही और गैरजिम्मेदाराना तरीके से राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ के आरोपों को नकारा है, समय पर दस्तावेजों को उपलब्ध नहीं कराया, सीसीटीवी फुटेज देने से मना किया, उससे साफ साफ़ दिखाई पड़ रहा है कि आयोग अपने नियुक्तिकर्ता को अपना दीवाना बनाने में लगा है। अगर देश की सर्वोच्च अदालत ने SIR में ‘आधार कार्ड’ को मानने का निर्णय न दिया होता, SIR ड्राफ्ट में गायब हुए 65 लाख मतदाताओं की सूची देने का आदेश ना दिया होता तो निर्वाचन आयोग अपनी मनमर्जियाँ करने से बाज नहीं आता।

देखें तो यहाँ भी सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद, ही निर्वाचन आयोग को मजबूर किया जा सका कि भारतीय लोकतंत्र मतदान और समावेशी मतदाता सूची की अनुपस्थिति में बहुत ज़्यादा दिन साँस नहीं ले पायेगा। संविधान की मंशा एकदम साफ़ है लेकिन संस्थाएं अपने कर्त्तव्यों के अनुपालन के लिए संविधान की ओर नहीं केंद्रीय सत्ता की ओर देखने लगी हैं।

25 नवंबर 1949, अपने समापन भाषण के दौरान बोलते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि 
संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर उसे चलाने वाले लोग बुरे निकलें, तो वह संविधान भी बुरा सिद्ध होगा। और संविधान कितना भी बुरा क्यों न हो, अगर उसे चलाने वाले लोग अच्छे हों, तो वह संविधान अच्छा साबित होगा।
बी आर आंबेडकर
स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं को यह पता था कि ऐसी भी सरकारें आयेंगी जो राज्यों की शक्तियों को हथियाने की कोशिश करेंगी, आम लोगों के मूल अधिकारों को कम करने या ख़त्म करने की कोशिश करेंगी। इसलिए सरकार के अतिक्रमण से बचाने का भार उन्होंने संविधान के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के कंधे पर डाला न कि संसद या प्रधानमंत्री के कंधे पर। 

SC संविधान का संरक्षक

संविधान ने ठनक के साथ घोषणा भी की, कि जब कभी किसी को भी लगे कि उसके मूल अधिकारों का हनन हो रहा है तो वह सीधे देश की सर्वोच्च अदालत से राहत पा सकता है (अनुच्छेद-32), जब भी केंद्र किसी राज्य को दबाने की कोशिश करे तो राज्य को सुप्रीम कोर्ट का सहारा मिलेगा (अनुच्छेद-131)। 

जिस तरह ED और आयकर विभाग ने पूरे राजनैतिक विपक्ष को क़ैदी बना रखा है, राज्यपालों ने राज्य सरकारों को बंधक बना रखा है, कुछ राज्यों की पुलिस ने कानून के नाम पर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को बंधक बना रखा है और निर्वाचन आयोग को सिर्फ़ विपक्ष की ही ख़ामियाँ नजर आती हैं, ऐसे में संवैधानिक अदालतों की जिम्मेदारी कई गुना बढ़ गई है। संविधान को सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। असल में संविधान की व्याख्या के लिए सिर्फ़ संविधान के शब्दों पर आश्रित रहना बुद्धिमत्ता नहीं है। संविधान की व्याख्या के लिए संविधान सभा की बहसों और सम्पूर्ण संवैधानिक यात्रा को भी ध्यान में रखना होगा। बिना इसके संविधान के दुरुपयोग को रोक पाना बहुत मुश्किल काम होगा। संविधान का मूल उन चिंताओं में छिपा है जो संविधान सभा में बहस के दौरान सभा के सामने रखी गईं। संविधान की व्याख्या का आधार किसी व्यक्ति/दल/विचारधारा का हित नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र की मजबूती होना चाहिए। भारतीय संविधान लाखों लोगों की शहादत के बाद जन्म लेने वाला दस्तावेज है। देश इसी से चलना चाहिए किसी नेता के खयाली पुलाव और सनक से नहीं।