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आबादियों का विभाजन है 2019 का चुनाव परिणाम

2019 का चुनाव परिणाम सिर्फ़ यह साबित करता है कि 2014 विचलन नहीं था। यह मुसलमानों और ईसाइयों को सूचना है कि वे स्थायी राजनीतिक अल्पमत और मातहत रहेंगे। बहुमत में शामिल होने का एक ही तरीका है इस हिन्दुत्ववादी बहुमत के साये तले आ जाना।
अपूर्वानंद
2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। एक हिस्सा जश्न मना रहा है और एक ग़म और फ़िक्र में डूब गया है। यह स्वाभाविक ही है। हर चुनाव में कोई राजनीतिक पार्टी जीतती है और किसी की हार होती है। लेकिन इस बार की बात अलग है। इस बार जश्न और ग़म का यह बँटवारा पार्टियों के आधार पर नहीं है। यह आबादियों का विभाजन है। इसीलिए इस चुनाव परिणाम की जो व्याख्या की जा रही है, उसमें छिपे धोखे को पहचानना आवश्यक है। 

भारत का जनादेश?

भारतीय जनता पार्टी की विजय लगभग अखिल भारतीय है। केरल, तमिलनाडु को छोड़ दें तो पूरा भारत भारतीय जनता पार्टी के सम्मोहन में डूबा जान पड़ता है। लेकिन क्या इसे भारत का जनादेश कहा जा सकता है?
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भारत सिर्फ राज्यों का संघ नहीं है। वह अलग अलग प्रकार की आबादियों की साझेदारी से बना मुल्क है। 23 मई के चुनाव नतीजे में एक बड़ी आबादी की रजामंदी नहीं है।
धार्मिक अल्पसंख्यकों, बहुसंख्यक हिन्दुओं में भी एक अल्पसंख्यक समुदाय, यानी धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की आबादी इस ‘जनादेश’ में शामिल नहीं है। वह इस ‘जनादेश’ में अपनी किसी इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं देखती। इसलिए इसे भारत का जनादेश कहना भ्रामक है।
क्या यह जीत इसलिए हुई कि भारतीयों ने खुद को नरेंद्र मोदी से एकाकार कर लिया है, जैसा कुछ व्याख्याकार कह रहे हैं? यह कहना ग़लत नहीं जान पड़ता क्योंकि वोट भारतीय जनता पार्टी, स्थानीय उम्मीदवार आदि नहीं,  सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम पर पड़े हैं। लेकिन क्या मुसलमानों, ईसाइयों ने मोदी को अपना आदमी मान लिया है? सिर्फ उन्होंने नहीं, 86 की उम्र के मेरे पिता जैसे हिंदू भी क्या मोदी को कभी अपना नेता मान सकेंगे?  चुनाव परिणाम आते ही दो वर्ष पहले हैदराबाद में मिले एक बुजुर्ग हिंदू दम्पति का ध्यान हो आया, जो मोदी के प्रति अपनी बेटी के आकर्षण और उसके उग्र राष्ट्रवाद से त्रस्त थे। क्या वे इस जनादेश को कभी भी अपना पाएँगे?

किसका जनादेश?

यह आदेश किसी का तो है। यह उन हिंदुओं का है जो ख़ुद को इस देश का स्थायी बहुसंख्यक मानते हैं, जो खुद को इस देश के राष्ट्रवाद का एकमात्र वाहक मानते हैं और बाकी आबादियों को अपने मातहत मानते हैं। वे खुद को राष्ट्र का अभिभावक मानते हैं और मानते हैं कि शेष को अनुशासित करने का अधिकार उन्हें ही है। यह बहुसंख्या जो, 2019 में उभर कर सामने आई है, इस चुनाव का सबसे चिंताजनक पक्ष है।
आम तौर पर संसदीय प्रणाली के चुनावों में उभरने वाली बहुसंख्या में देश में रहने वाले सभी समुदायों की साझेदारी होती है। लेकिन यह दूसरा चुनाव है जिसने प्रभावी तरीके से एक बड़ी आबादी को इस बहुसंख्या से अलग किया है।
2014 में भारतीय जनता पार्टी का अपने बलबूते केंद्र में सरकार बना लेना भारतीय संसदीय जनतंत्र के लिए एक निर्णायक मोड़ था। उस वक्त के जनादेश का आशय यही था कि अल्पसंख्यकों को दरकिनार करके इस देश के संचालन का निर्णय किया जा सकता है।

विचलन नहीं था 2014 का चुनाव

2014 को भारत के शुभेच्छुओं ने भारत के मुख्य मार्ग से विचलन के तौर पर देखने का आग्रह किया था। यह कहा गया था कि भले ही सत्ता हासिल करने के लिए एक मुसलमान विरोधी ध्रुवीकरण किया गया हो, सरकार समावेशी रुख रखेगी।
2014 से 2019 के साल लेकिन भारत के मुसलमानों के लिए सबसे भयावह रहे, उन्होंने माना था कि शायद 2019 शायद यह साबित करे कि यह दुःस्वप्न था। लेकिन यह नहीं हुआ। 2014 में अगर यह मुसलमान विरोधी घृणा प्रचार कुछ लुका-छिपा था तो 2019 में हर किस्म का लिहाज छोड़ दिया गया। प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
इस तरह इस चुनाव में हिंदुओं की ऊँची जातियों, पिछड़े वर्गों और दलितों को मिलाकर एक बहुसंख्या गढ़ी गई। उनको एक दूसरे से जोड़ने के लिए मुसलमान विरोधी नफ़रत और उनपर कब्जा करने की नीयत के सीमेंट या गोंद का इस्तेमाल किया गया।
कुछ लोग इसे जातियों के विलोप के तौर पर देखने की वकालत करते रहे हैं और सावरकर के जाति विरोध की प्रगतिशीलता की भाषा में समझाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन इसे ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि ‘पिछड़ी और दलित’ जातियों के हिन्दुत्वकरण  की इस परियोजना के दो हिस्से थे: एक यह कि मुसलमान और ईसाई विरोधी हिंदू राष्ट्रवाद के वाहकों में वे ऊँची जातियों के साथ एक ही कतार में होंगे, इस प्रकार समानता का अनुभव उन्हें मिलेगा। लेकिन सामाजिक स्तर पर पारम्परिक विभाजन और स्तरीकरण को विचलित नहीं किया जाएगा। इससे उस सामाजिक इत्मीनान को बरकरार रखा जाएगा जो सभी जातियाँ चाहती हैं।

जाति बनी अप्रासंगिक

जाति मात्र में जो परस्पर अलगाव और विरोध की भावना है, वह हर स्तर पर मौजूद है और वह हर जाति को किलेबंदी की तरह सुरक्षा का अहसास देती है। इसीलिए आंबेडकर के जाति उन्मूलन का प्रस्ताव सिर्फ ऊँची नहीं, हर स्तर की जाति ने खारिज कर दिया। उनके मुक़ाबले आरएसएस का प्रस्ताव अधिक लुभावना था। वह हिंदू राष्ट्र के नाम पर एक प्रकार की भागीदारी, समावेशिता और सत्ता प्रदान कर रहा था, सामाजिक परंपराओं को हिलाए बिना।
जाति को इस तरह राजनीतिक रूप में अप्रासंगिक बना दिया गया और एक राजनीतिक हिंदू बहुमत का निर्माण किया गया। जाति के बुनियादी सिद्धांत दबदबे और अपमान पर आधारित दर्जाबंदी में मुसलमानों को पेश किया गया, जिनके अपमान का सुख हर जाति को समान रूप से मिलेगा और जिन पर हर जाति का दबदबा बराबरी से रहेगा।

हिन्दू राष्ट्रवादी एकता

2019 का जनादेश इस बहुमत के स्थिर हो जाने की सूचना है।  जो यह मानते हैं कि भारतीय समाज नीचे जनतांत्रिक हो रहा है क्योंकि मतदाता अब यह पूछ रहा है कि आप क्या कर रहे हैं, न कि आपके पिता और दादा कौन थे, वे भारतीय हिंदू समाज की इस परिघटना को नहीं देख पा रहे। वे इसका उत्तर नहीं देते कि क्यों अभी भी दलित उम्मीदवार प्रायः आरक्षित संसदीय क्षेत्रों में ही उतारे जाते हैं! क्यों मुसलमानों को हिंदू बहुल क्षेत्रों में उम्मीदवार बनाने का जोखिम कोई दल नहीं लेता? इसका अर्थ यही है कि समाज में यह प्रश्न अभी भी सबसे बड़ा प्रश्न है कि आप कौन हैं, यह नहीं कि आप क्या करते हैं।
जनतांत्रिकता एक अर्थ में आई है। वह है हिंदुत्व में सबकी बराबर भागीदारी। धार्मिक अवसरों, पर्व-त्योहारों, कांवड़ यात्रा आदि का इस्तेमाल करते हुए एक हिंदू राष्ट्रवादी एकजुटता पैदा करके की गई है। हर बार इसे धर्मनिरपेक्षता के विलोम के रूप में पेश किया गया है।
2019 का चुनाव परिणाम इस तरह सिर्फ़ यह साबित करता है कि 2014 विचलन नहीं था। यह मुसलमानों और ईसाइयों को सूचना है कि वे स्थायी राजनीतिक अल्पमत और मातहत रहेंगे। बहुमत में शामिल होने का एक ही तरीका है इस हिन्दुत्ववादी बहुमत के साये तले आ जाना। क्या भोपाल के मुसलमान भोपाल के हिंदुओं की इच्छा का आदर नहीं करेंगे? क्या मुज़फ्फरनगर के मुसलमान संजीव बालियान को अपना नेता नहीं मानेंगे? क्या वे मज़े के लिए मुसलमानों की खिल्ली उड़ानेवाले को अपना नायक नहीं मानेंगे, जैसा हमें बताया जा रहा है कि हिन्दुओं ने मान लिया है? यह नया जनादेश उनके सामने यह नियति प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन क्या केवल उनके लिए?  
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