महात्मा गाँधी को एक औरत ने सलाह दी कि उन्हें अब हिमालय पर चले जाना चाहिए क्योंकि वह अप्रासंगिक बातें बोल रहे हैं। फिर भी गाँधी बोलते रहे और वही बोलते रहे जो लोगों को नापसंद था, जिससे लोग सहमत नहीं थे। गाँधी ने यह नहीं सोचा कि वह अलोकप्रिय हो रहे हैं। अकेले पड़ जाने का ख़तरा उठाकर भी वही बोलना जो नैतिक और उचित लगता है, गाँधी का रास्ता था। अपूर्वानंद का यह लेख अगस्त 2019 में प्रकाशित हुआ था।
इस आरोप और लानत में दम है। लेकिन ऐसा नहीं है कि यह पहली बार और सिर्फ़ हमारे साथ हो रहा है। आज से 73 साल पहले एक बूढ़ा दिल्ली में बैठा यही अफ़सोस जाहिर कर रहा था, “एक वक्त था जब पूरा हिन्दुस्तान मेरी एक आवाज़ पर एक इंसान की तरह उठ खड़ा होता था, आज मेरी कोई नहीं सुनता!” उसकी आवाज़ वीराने में गूँज कर उसी के पास लौट आती है, यह उस बूढ़े ने कहा। वह हमारी तरह का मामूली शख़्स न था। महात्मा कहे जानेवाले गाँधी जब नोआखाली, बिहार, कलकत्ता और दिल्ली में भटक रहे थे तो बार-बार उन्हें इसका अहसास हो रहा था कि उन्हें सुना नहीं जा रहा है।
यह कहना लेकिन ग़लत है कि गाँधी को सुना नहीं जा रहा था। वरना दिल्ली की सड़कों पर गाँधी के ख़िलाफ़ नारे न लगते, उनकी प्रार्थना सभाओं में आकर उनका विरोध न किया जाता। लोग उन्हें सुन रहे थे और ठुकरा रहे थे। उन्हें एक औरत ने सलाह दी कि उन्हें अब हिमालय पर चले जाना चाहिए क्योंकि वह अप्रासंगिक बातें बोल रहे हैं।
फिर भी गाँधी बोलते रहे और वही बोलते रहे जो लोगों को नापसंद था, जिससे वे सहमत न थे। गाँधी ने यह नहीं सोचा कि वह अलोकप्रिय हो रहे हैं। अकेले पड़ जाने का ख़तरा उठाकर भी वही बोलना जो नैतिक और उचित लगता है, गाँधी का रास्ता था।
‘अव्यक्त’ ने गाँधी की भाषा पर विचार करते हुए उन्हें “सत्याग्रह” के अपने एक लेख में (https://satyagrah.scroll.in/article/108872/august-kranti-quit-india-movement-mahatma-gandhi-statemen...) कुछ इस तरह उद्धृत किया है। भाषा के अलावा जिस बात पर ध्यान जाना चाहिए वह यह कि गाँधी कबूल कर रहे हैं कि वह कांग्रेस में लोकप्रिय नहीं हैं। लेकिन गाँधी वह बोलने से इनकार करते हैं जो लोग सुनना चाहेंगे।
हमेशा हिंदू ही क्यों रहें बहुसंख्यक?
भारत में प्रायः हिन्दुओं को यह कहकर डराया जाता है कि एक दिन ऐसा आएगा जब मुसलमान उनसे अधिक हो जाएँगे। कई भले लोग इसका प्रतिकार करने के लिए आंकड़ों के साथ बहुत श्रम करते हैं। हिंदू ही इस मुल्क में हमेशा अधिक रहेंगे, यह आश्वासन वे हिन्दुओं को देते हैं। इस आश्वासन में एक बौद्धिक भीरुता है। क्यों भारत में हमेशा हिन्दुओं को ही बहुसंख्या में होना चाहिए? क्यों मुसलमान या पारसी यहाँ चिरकाल तक अल्पसंख्यक रहें?
पटेल, अजमल का नाम लेकर डराया
यह प्रश्न अटपटा लग सकता है। जैसे यह कि गुजरात के मुख्यमंत्री अहमद पटेल हो सकते हैं। कांग्रेस साज़िश कर रही है कि अहमद पटेल मुख्यमंत्री हों, जब यह कहकर हिंदुओं को डराया गया, तब किसी ने खड़े होकर नहीं कहा कि यह पटेल का संवैधानिक अधिकार है। अगर कांग्रेस बहुमत हासिल करे और उन्हें अपना नेता चुने तो वह मुख्यमंत्री बन ही सकते हैं। लेकिन यह सीधी-सी बात नहीं कही जा सकी। क्योंकि यह कहना लोकप्रिय नहीं था। असम के चुनाव के समय वहाँ की हिंदू जनता को इसी तर्क से फिर डराया गया, यह कहकर कि बदरुद्दीन अजमल मुख्यमंत्री बन जाएँगे। उस समय भी किसी ने नहीं पूछा, “इसमें ग़लत क्या होगा?”
अधिक संख्यावाले समूह का दावा भारत पर अधिक होगा और कम संख्यावाले का कम, इसे मानने को गाँधी कभी राजी न होते। लेकिन क्या यह आज का कोई राजनेता कह सकता है?
आज सारे राजनेता, ख़ासकर कांग्रेस के, दलील दे रहे हैं कि अगर उन्होंने धारा 370 पर सरकारी फ़ैसले की आलोचना की तो जनता, जिसका अर्थ है हिंदू जनता उनके ख़िलाफ़ हो जाएगी। इस भय को छिपाने के लिए वे देशभक्ति की आड़ लेते हैं। लेकिन स्वाधीनता के मूल्य और देशभक्ति या राष्ट्रवाद में किसे चुना जाना चाहिए? फिर गाँधी को ही सुनिए -
‘...अगर आप सच्ची आज़ादी पाना चाहते हैं तो आपको मेल-जोल पैदा करना होगा। ऐसे मेल-जोल से ही सच्चा लोकतंत्र पैदा होगा, ऐसा लोकतंत्र जैसा कि पहले देखने में नहीं आया और न ही जिसके लिए पहले कभी कोशिश ही की गई।...मेरे लोकतंत्र का मतलब है कि हर व्यक्ति अपना मालिक ख़ुद हो।...कुछ लोग शायद कहें कि मैं ख़यालों की दुनिया में रहता हूं।’