गैर मराठी भाषी लोगों के खिलाफ मुंबई में हिंसा को किस तरह उचित ठहराया जा सकता है। लेकिन बहुसंख्यकों की हिंसा के प्रति मौन समर्थन या नरमी की तुलना इस हिंसा से क्यों नहीं होना चाहिए। दोनों ही हिंसा जनतांत्रिक राजनीति के खिलाफ है। स्तंभकार अपूर्वानंद का विचारोत्तेजक लेखः
मुंबई में भाषा के नाम पर हिंसा का नया दौर चल रहा है। राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के सदस्य दुकानदारों, ऑटो रिक्शावालों , निजी सुरक्षा कर्मियों को मराठी न बोल पाने पर पीट रहे हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और दूसरे मंत्री खुलकर, स्पष्ट शब्दों में इस हिंसा के ख़िलाफ़ बोलने से बच रहे हैं। वे हिंसा को ग़लत ठहरा रहे हैं लेकिन इस स्पष्टीकरण के साथ कि महाराष्ट्र में रहनेवालों को मराठी तो बोलनी पड़ेगी। एक मंत्री ने यहाँ तक कहा कि मराठी बोलने से इनकार करने पर क़ानून कार्रवाई की जाएगी। लोगों ने ठीक ही पूछा है कि वह कौन सा क़ानून है जो मराठी न बोल पाने के लिए दंड का प्रावधान करता है।
राज ठाकरे की पार्टी इस हिंसा का बचाव यह कहकर कर रही है कि पार्टी के लोगों को इसलिए ग़ुस्सा आ गया कि दुकानदार मराठी का अपमान कर रहा था। पार्टी के कार्यकर्ता तो स्कूलों में त्रिभाषा फ़ार्मूला के तहत हिंदी की अनिवार्यता समाप्त किए जाने की ख़ुशी मना रहे थे। उस दुकानदार ने उस समय मराठी का अपमान किया इसलिए कार्यकर्ताओं को क्रोध आया और उन्होंने उसे पीट दिया।
इस पूरे प्रकरण में 3 मसले हैं।एक, लोगों की यह समझ कि अपने क्रोध की अभिव्यक्ति के लिए उनके पास हिंसा का अधिकार है और वह जायज़ है।उन्हें इस बात का भरोसा रहता है कि राजकीय तंत्र में इस हिंसा के प्रति सहिष्णुता होगी। दूसरे यह मसला कि अगर आप मराठीभाषी बहुसंख्या के बीच रह रहे हैं तो आपको अनिवार्यतः मराठी बोलनी पड़ेगी।यह बात किसी भी अन्य भाषाभाषी प्रदेश पर भी लागू हो सकती है। तीसरे, और इस ताज़ा भाषा विवाद का इस बात से सीधा रिश्ता है, स्कूल में भाषा की पढ़ाई कैसे की जाएगी।अभी हम सिर्फ़ पहले मसले पर बात करेंगे।
जन हिंसा के प्रति राजकीय और सामाजिक सहिष्णुता पर हमें बात करनी चाहिए यह कहना पड़ेगा कि राज्य उसी हिंसा के प्रति सहानुभूतिशील होता है जो बहुसंख्यक समाज की तरफ़ से की जाती है। तब राज्य उसे किसी न किसी तरह जायज़ ठहराने की कोशिश करता है। अभी कुछ समय पहले कुणाल कमरा के एक कार्यक्रम के बाद महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री के दल के लोगों ने भारी हिंसा की और कुणाल कामरा को जान से मार देने की खुली धमकी दी गई। इस धमकी की वजह से वे मुंबई नहीं आ पा रहे हैं।
इस हिंसा का विरोध करने और हिंसा में शामिल लोगों पर कार्रवाई की बात तो दूर, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने कुणाल कामरा को ही अपनी सीमा में रहने के लिए कहा। यही उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और अजीत पवार ने किया। हिंसा के कुछ वक्त गुजर जाने पर ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ के एक कार्यक्रम में जब मुख्यमंत्री से इस हिंसा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने उसका समर्थन कुछ इस तरह किया:”कई बार ऐसा होता है कि शिवसेना और हमारी अपनी पार्टी थोड़ी भावुक हो जाती है। हम व्यावहारिक राजनीतिज्ञ नहीं हैं। इसलिए कभी-कभी वह भावना हमें थोड़ी प्रतिक्रिया करने पर मजबूर कर देती है।”
बहुसंख्यक समाज की हिंसा को भावुकता के अतिरेक में मजबूरन हो गई प्रतिक्रिया मान लिया जाता है। इस हिंसा के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए जिनसे बहुसंख्यक समाज किसी वजह से खफा हो जाए।
मुंबई से दूर दिल्ली में मुख्यमंत्री से जब पूछा गया कि क्या कुणाल कामरा दिल्ली में अपना कार्यक्रम करने आ सकते हैं तो उन्होंने कहा कि वे अपने जोखिम पर दिल्ली आ सकते हैं। यानी अगर उनके ख़िलाफ़ हिंसा की गई तो राज्य सरकार उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करेगी। आख़िर जन प्रतिनिधि जन भावना जनित प्रतिक्रिया को रोक कैसे सकता है?
यह बात मुख्यमंत्री ने हँसकर कही लेकिन है यह कितनी भयानक बात। मुख्यमंत्री जब यह कह दे कि वह अपनी जनता के क्रोध से किसी की रक्षा नहीं कर सकती तो उस राज्य में किसी एक नागरिक के जीवन की कल्पना ही की जा सकती है।
अभी मुंबई में जिन्होंने हिंसा की है, वे सत्ताधारी दल से जुड़े नहीं हैं। इसलिए उनपर कार्रवाई की बात की भी जा रही है। दूसरे, इस बार हमला हिंदुओं पर हुआ है। इसलिए भी शायद हिंसा करनेवालों पर कार्रवाई हो भी सकती है।
कुणाल कामरा मामले में कुणाल पर ही क़ानूनी कार्रवाई की गई, हिंसा करनेवालों के प्रति रियायत बरती गई। मामला इससे आगे भी है।भाषा के बहाने हिंसावाले ताज़ा मामले में कार्टूनिस्ट मंजुल ने पूछा है कि मुख्यमंत्री हिंसा की आलोचना तब कर रहे हैं जब उसका शिकार गुजराती हुए। जबतक हिंदी प्रदेशों के लोग शिकार थे,वे चुप रहे। मंजुल के इस व्यंग्य में कितनी सच्चाई है, यह कहना कठिन है लेकिन क्या वह निराधार है?
इस प्रसंग में हिंसा का बचाव यह कहकर किया जा रहा है कि लोग तब भड़क उठे जब मराठी का अपमान किया गया। मुंबई में कोई मूर्ख ही मराठी के बारे में कुछ ऐसा कहेगा जो उसके लिए अपमानजनक हो।इसलिए इसपर विश्वास करना कठिन है। असल चिंता की बात है कि राज्य यह नहीं कह रहा है कि आपको किसी बात से कितनी ही चोट क्यों न पहुँचे, शारीरिक हिंसा का अधिकार आपको क़तई नहीं है।
इसके साथ हमें हिंसा के प्रति सामाजिक रवैये के बारे में भी बात करनी चाहिए।पिछले कुछ सालों में हमें एक ख़ास प्रकार सामूहिक हिंसा की आदत पड़ गई है। वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ होती है। इसलिए अधिकतर हिंदू उस हिंसा को किसी न किसी बहाने से उचित ठहराते हैं। दलितों के ख़िलाफ़ सामूहिक हिंसा को लेकर भी समाज में कोई चिंता नहीं दिखलाई पड़ती। न तो टी वी, न अख़बार, कहीं भी इस हिंसा के बारे में फ़िक्र ज़ाहिर नहीं की जाती।लेकिन इस बार मामला अलग है।
मुंबई में हिंदुओं ने हिंदुओं पर ही हमला कर दिया है।जिनपर हमला हुआ है, उनमें से कई ख़ुद मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा या हिंदुत्ववादी राजनीति के समर्थक हैं। वे इसलिए आहत हैं कि उनपर उनके ही लोगों ने वार कर दिया है : अपनों ने अपनों पर वार कर दिया है। यह तो कोई बात न हुई! उन्हें दूसरों पर हमला करना चाहिए था। ये दूसरे कौन हैं, यह हम सब जानते हैं।
महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री बड़े गुस्से में राज ठाकरे के लोगों को ललकारते रिकॉर्ड किए गए कि अगर उनकी हिम्मत है तो दाढ़ी, टोपीवालों के पास जाएँ! यानी मंत्री महोदय को इससे कोई एतराज नहीं कि मुसलमानों पर हिंसा की जाए। बल्कि वे राज ठाकरे के लोगों को चुनौती दे रहे हैं कि अगर उनमें हिम्मत है तो वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा करें। वे ख़ुद अनेक बार मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़कानेवाले बयान देते रहे हैं।
बहुसंख्यक हिंदू समाज को कहा जा रहा है कि आपस में हिंसा न करो, दूसरों पर भले कर लो। एक साहब, जिनके दफ़्तर पर उनके बयान से क्रुद्ध मराठीवादियों ने हमला कर दिया, राज ठाकरे से माफी माँग रहे हैं और गुहार लगा रहे हैं कि वे तो उनके हिंदुत्ववाद के प्रशंसक रहे हैं। सिर्फ़ एक टिप्पणी के लिए उनपर हमला उचित नहीं है। अपने आदमी पर हिंसा उचित नहीं है!
दूसरों पर होती रहे, सिर्फ़ अपने ऊपर हिंसा नहीं होनी चाहिए।हिंसा के प्रति भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं का रवैया यही है।
इस बार हिंसा के नायक राज ठाकरे हैं।उनको केंद्र में रखकर विपक्ष के सारे दलों ने रैली की है।उस रैली में भी हिंसा की निंदा नहीं की गई।विपक्ष के सारे लोग प्रसन्न हैं कि इस बहाने विपक्ष एक हो गया है। लेकिन वह यह नहीं समझ रहा कि हिंसा जनतांत्रिक राजनीति को आख़िरकार कमजोर ही करेगी।वह उसके लिए गोंद का काम नहीं कर सकती। या शायद हम ग़लत कह रहे हैं।उन सबको जनतांत्रिक राजनीति में हिंसा की उपयोगिता का पता है।