पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव तो अगले साल अप्रैल-मई में होने हैं. लेकिन सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदारों यानी तृणमूल कांग्रेस और भाजपा ने अभी से इसकी रणनीति पर काम शुरू कर दिया है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अगले चुनाव में भाजपा की सीटें घटने का दावा किया है. उन्होंने इसके साथ ही राज्य में तीसरे मोर्चे के गठन की वकालत भी की है.
विधानसभा के पिछले अधिवेशन के दौरान भाजपा विधायकों ने विभिन्न मुद्दों पर जमकर हंगामा किया था. उन्होंने शिक्षक भर्ती घोटाले का जिक्र करते हुए सदन में 'नौकरी चोर-गद्दी छोड़' जैसे नारे लगाए थे जिसका जवाब ममता ने 'वोट चोर, गद्दी छोड़' नारा लगा कर दिया था. इस हंगामे की वजह से विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी समेत पार्टी के पांच विधायकों को निलंबित कर दिया गया था.
भाजपा के इस हंगामे के बाद ही ममता ने सदन में कहा था कि वो चाहती हैं कि अगले साल चुनाव के बाद विपक्ष की कुर्सी पर भाजपा के अलावा दूसरे राजनीतिक दलों के लोग भी रहें. जाहिर है कि उनका इशारा कांग्रेस और वामपंथी दलों की ओर था. फिलहाल सदन में इन दोनों दलों का कोई विधायक नहीं है. ममता के इस बयान के बाद राज्य में तीसरे मोर्चे की अटकलें तेज होने लगी हैं.
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अपने पहले दोनों कार्यकाल के दौरान ममता को विपक्ष में कांग्रेस और वाम मोर्चे के विधायकों का ही सामना करना पड़ा था. पहले कार्यकाल यानी वर्ष 2011 से 2016 के बीच सीपीएम नेता सूर्यकांत मिश्र विपक्ष के नेता रहे थे जबकि दूसरे कार्यकाल के दौरान 2016 से 2021 के बीच यह कुर्सी कांग्रेस के अब्दुल मन्नान के पास थी. लेकिन उनके रहते सत्तारूढ़ पार्टी को सदन में इतनी मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा था. इसकी एक  वजह यह थी कि  उन दोनों दलों के  नेता और विधायक सदन में सरकार के कामकाज का हंगामेदार विरोध नहीं करते थे. लेकिन 2021 के चुनाव के बाद खासकर किसी दौर में ममता के दाहिने हाथ रहे शुभेंदु अधिकारी के विपक्ष के नेता बनने के बाद सदन में लगातार हंगामा होता रहा है. भाजपा विधायक लगभग हर मुद्दे पर सरकार पर आक्रामक तरीके से हमले करते रहे हैं.
लेकिन क्या ममता सिर्फ हंगामे की वजह से ही तीसरे मोर्चे की वकालत कर रही हैं? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ममता बनर्जी जानती हैं कि अगले चुनाव में पार्टी की राह आसान नहीं होगी. लगातार 15 साल तक सत्ता में रहने की वजह से पार्टी को सत्ता विरोधी लहर से भी जूझना होगा. प्रचार और संसाधन के लिहाज से भी वह भाजपा से बहुत पीछे हैं. तृणमूल में ममता और कुछ हद तक अभिषेक बनर्जी के अलावा कोई स्टार प्रचारक नहीं हैं. दूसरी ओर, भाजपा के समर्थन में पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल बंगाल में बना रहता है.
विश्लेषकों के मुताबिक, ममता ने तृणमूल कांग्रेस विरोधी वोटों के बंटवारे की रणनीति के तहत ही तीसरे मोर्चे की वकालत की है. सीपीएम और कांग्रेस बीते चुनावों में औपचारिक और अनौपचारिक तौर पर एक दूसरे के साथ चुनावी तालमेल करते रहे हैं. उनकी रैलियों में भीड़ तो जुटती है. लेकिन वह वोटों में तब्दील नहीं होती.
बीते करीब एक दशक के दौरान राज्य में भाजपा के उभार के साथ ही धार्मिक ध्रुवीकरण की कवायद तेजी हुई है. इससे कांग्रेस और सीपीएम को नुकसान हुआ है और उसके वोटरों का झुकाव भगवा पार्टी की ओर हुआ है..यह सिलसिला वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव से देखने को मिल रहा है. उस साल भाजपा के वोटों में भारी बढ़ोतरी हुई और वह 40 प्रतिशत तक पहुंच गया. लेकिन दूसरी ओर, कांग्रेस और सीपीएम जैसी पार्टियां चार से छह प्रतिशत के बीच ही अटक गई.
दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के नए प्रदेश अध्यक्ष शमीक भट्टाचार्य ने भी कुर्सी संभालने के तुरंत बाद यह कहते हुए वामपंथी दलों के समर्थकों से भी भगवा पार्टी का साथ देने को कहा था कि वो मिल कर तृणमूल को सत्ता से बाहर कर सकते हैं. वैसी स्थिति में वापमंथी दलों को विपक्षी दल की कुर्सी मिलने की संभावना है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस और कुछ हद तक भाजपा भले तीसरे मोर्चे की वकालत कर रही हों, इससे उनके सियासी हित जुड़े हैं. तृणमूल कांग्रेस चाहती है कि कांग्रेस व सीपीएम भाजपा के हिंदू वोट बैंक में सेंधमारी करे तो दूसरी ओर, भाजपा चाहती है कि यह दोनों पार्टियां तृणमूल के मजबूत अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगा कर उसकी (भाजपा की) सत्ता की राह कुछ आसान कर दे.
दरअसल, दोनों पार्टियां बीते लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए राजनीति की बिसात पर तीसरे मोर्चे की गोटी चल रही हैं. बीते साल कम से कम 14 सीटों पर हार-जीत का अंतर कांग्रेस और सीपीएम को मिले कुल वोटों से कम था. इसी तरह उत्तर बंगाल की कम से पांच सीटों पर कांग्रेस व सीपीएम के कारण तृणमूल कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा.
दोनों दलों की रणनीति को ध्यान में रखते हुए यह साफ है कि विधानसभा में प्रतिनिधित्व नहीं होने के बावजूद कांग्रेस और सीपीएम बंगाल की राजनीति में इस बार पहले के मुकाबले ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ममता बनर्जी का मकसद राज्य को धार्मिक ध्रुवीकरण से मुक्त करना है ताकि भाजपा को इसका सियासी फायदा नहीं मिल सके. इसी वजह से वो सीपीएम और कांग्रेस के मजबूत प्रदर्शन की पक्षधर हैं.
सीपीएम और कांग्रेस के नेता भी मानते हैं कि फिलहाल धार्मिक आधार पर बढ़ते ध्रुवीकरण ही राज्य के लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. सीपीएम नेता मोहम्मद सलीम का कहना है कि पार्टी अगले चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर अपनी जगह बनाएगी. हम तृणमूल कांग्रेस या भाजपा के सियासी फायदे के लिए नहीं बल्कि राज्य के लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के लिए कृतसंकल्प हैं.
लेकिन राज्य में क्या किसी तीसरे मोर्चे की संभावना या जगह है? लाख टके के इस सवाल का जवाब तो आने वाले दिनों में ही मिलेगा.