अफ़ग़ानिस्तान के वॉर लॉर्ड्स यानी स्थानीय हथियारबंद गुटों के प्रमुखों से राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की मुलाक़ात और सरकार बचाने की अपील से कई सवाल खड़े हो रहे हैं।
यह मुलाक़ात ऐसे समय हुई है जब अमेरिकी खुफ़िया अधिकारियों ने कहा है कि तालिबान को नहीं रोका गया तो वे 90 दिनों के अंदर अफ़ग़ान सरकार को उखाड़ फेकेंगे।
अशरफ़ ग़नी की चिंता इससे समझी जा सकती है कि तालिबान लड़ाकों ने एक हफ़्ते के अंदर देश के नौ प्रांतों पर क़ब्ज़ा कर लिया है।
उनके नियंत्रण में वह ग़ज़नी प्रांत भी आ चुका है जो काबुल जाने वाले राजमार्ग पर है और जहाँ से काबुल सिर्फ 150 किलोमीटर दूर है।
काबुल से सिर्फ 150 किलोमीटर की दूरी पर तालिबान का क़ब्ज़ा उस समय हुआ है जब अमेरिकी ख़ुफ़िया अफ़सरों ने कहा है कि तालिबान 30 दिनों के अंदर काबुल को देश के बाकी बचे हिस्सों से काट सकता है।
दोस्तम, नूर से मुलाक़ात
अफ़ग़ान राष्ट्रपति बुधवार को बाल्ख़ प्रांत की राजधानी मज़ार-ए-शरीफ़ गए ताकि वे सैनिकों की हौसला आफजाई कर सकें।
पर ख़बर यह भी है कि उन्होंने अफ़ग़ान वॉर लॉर्ड समझे जाने वाले अब्दुल रशीद दोस्तम और अता मुहम्मूद नूर से भी गुपचुप मुलाक़ात की और काबुल के बाद देश के दूसरे सबसे बड़े शहर को तालिबान के हाथों जाने से बचाने की गुहार की।
अशरफ़ ग़नी ने इसके पहले भी सार्वजनिक रूप से इन गुटों से अपील की थी कि वे उनकी सरकार को बचा लें। राष्ट्रपति ने लोगों से कहा था कि उन्हें लोकतंत्र की रक्षा के लिए सामने आना चाहिए।
अफ़ग़ानिस्तान के नौ प्रांतों की राजधानियों पर तालिबान के क़ब्ज़े और कई जगहों पर अफ़ग़ान सेना के बहुत ही कम और नहीं के बराबर के प्रतिरोध के बाद आत्मसमर्पण ने अफ़ग़ानिस्तान सरकार को अंदर से झकझोड़ दिया है।
85 प्रतिशत हिस्से पर क़ब्ज़ा
जिस तेजी से तालिबान के लड़ाके आगे बढ़े और देखते ही देखते देश के लगभग 85 प्रतिशत हिस्से पर आनन फानन में नियंत्रण कर लिया, उससे यह साफ हो गया कि बहुत जल्द ही वे काबुल भी पहुँच सकते हैं।
तालिबान ने पिछले एक हफ्ते के अंदर ग़ज़नी, बदक्शान, निमरोज़, सर-ए-पुल, ताखर, हेलमंद, कुंदूज और अयबाक प्रांतों की राजधानियों पर क़ब़्जा कर लिया है। वे कांधार और हेरात में कई जगहों पर पकड़ बना चुके हैं।
वे बाल्ख़ प्रांत की राजधानी मज़ार-ए-शरीफ़ के आसपास भी पहुँच चुके हैं और किसी भी दिन शहर के अंदर दाखिल हो सकते हैं।
इतना ही नहीं, राजधानी काबुल के सबसे सुरक्षित क्षेत्र ग्रीन ज़ोन स्थित रक्षा मंत्री के घर पर आत्मघाती हमला कर तालिबान ने संकेत दे दिया है कि राजधानी भी बहुत दूर नहीं है।
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ग़नी की रणनीति
अब क्या हो, कैसे अफ़ग़ानिस्तान को बचाया जाए, ये सवाल अफ़ग़ानिस्तान प्रशासन को मथ रहे हैं।
ऐसे में अशरफ़ ग़नी को उन लोगों की याद आना स्वाभाविक है जो किसी ज़माने में तालिबान से लड़ चुके हैं।
ये वे हथियारबंद गुट थे जिन्होंने रूसी सेना के साथ मिल कर मुजाहिदीन और उसके बाद तालिबान को रोकने की कोशिश की और वे लोग भी जिन्होंने अमेरिकी सेना के साथ मिल कर तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ा।
ये हथियारबंद गुट अलग-अलग इलाक़ों में बिखरे हुए हैं, अपने-अपने जातीय समूहों में सिमटे हुए हैं और अपने-अपने नेता के प्रति वफ़ादार हैं।
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इस पूरे मामले को समझने के लिए एक बार अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान को संक्षेप में समझना होगा।
पश्तून आन्दोलन
तालिबान मूल रूप से एक पश्तून आन्दोलन है जिसके लड़ाके सऊदी अरब के पैसे से चलने वाले मदरसों से पढ़ कर निकले और बहावी इसलाम की अवधारणा से ओत प्रोत हैं। इसलाम की उनकी अपनी व्याख्या है और उस तरह के इसलामी राज की स्थापना उनके जीवन का मक़सद है।
तालिबान लड़ाकों में ज़्यादातर लोग पश्तून जनजाति के हैं, जो अपनी जातीय श्रेष्ठता और उसके अहंकार से भरे हुए हैं।
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में पश्तूनों के अलावा दसियों जनजातियाँ हैं, जिनमें हज़ारा, उज़बेक और ताज़िक सबसे ताक़तवर और रसूख वाले हैं। उनकी संख्या भी अधिक है।
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पश्तून आन्दोलन के ख़िलाफ़
लेकिन उनमें वह धार्मिक कट्टरता नहीं है जो पश्तून तालिबान में है और न ही वे उस इसलामी राज की स्थापना के लिए निकले हैं जिसे पश्तून तालिबान कायम करना चाहते हैं।
इस वजह से इन जनजातियों के लड़ाके धार्मिक कारणों से नहीं, बल्कि क़बीलाई कारणों से लड़ते आए हैं। वे अपने इलाक़े में अपने क़बीले के वर्चस्व के लिए लड़ते हैं।वे नहीं चाहते कि तालिबान उनके इलाक़े में आकर उन पर हुक़्म चलाएं।
अतीत में भी ताज़िक और उज़बेक जनजातियों के लोगों की पश्तूनों से नहीं बनी है क्योंकि पश्तून दबंग भी रहे हैं और उनके हाथ में सत्ता भी रही है। उज़बेक, ताज़िक और हज़ारा भी आपस में लड़ते रहे हैं, पर वे सब मिल कर पश्तूनों के ख़िलाफ़ भी लड़ चुके हैं।
इन कारणों से ये जनजातियाँ तालिबान के ख़िलाफ़ रही हैं।
अब तालिबान से लड़ाई में बुरी तरह पिछड़ रही अफ़ग़ान सरकार इन जनजातियों के हथियारबंद गुटों और उनके कमान्डरों का सहारा लेना चाहती है।
राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की अपील इसी परिप्रेक्ष्य में है।
अब्दुल रशीद दोस्तम
इन हथियारबंद गुटों के कमान्डरों में सबसे ऊपर नाम है अब्दुल रशीद दोस्तम का। ये उज़बेक नस्ल के हैं। उन्हें उदार और प्रगतिशील विचारों का माना जाता है। उनके प्रभाव वाले इलाक़े में न तो लड़कियों के स्कूल बंद हुए न ही उन्हें हिज़ाब पहनने को कहा गया था। वे खुद संगीत और शराब के शौकीन समझे जाते हैं। उन्होंने कभी लंबी दाढ़ी नहीं रखी।
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अब्दुल रशीद दोस्तम तुर्की से अफ़ग़ानिस्तान लौट चुके हैं। उनकी नज़र मज़ार-ए-शरीफ़ पर है, वे तालिबान को चुनौती देना चाहते है और समझा जाता है कि तुर्की उनकी मदद कर सकता है।
उज़बेक समुदाय में उन्हें पाशा कहा जाता है और उनकी बड़ी इज्ज़त है। लेकिन उन पर मानवाधिकार उल्लंघन के गंभीर आरोप लगे हैं, उन पर जेल में बंद दो हज़ार तालिबान क़ैदियों की हत्या का आरोप है।
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भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने सितंबर 2020 में उनसे मुलाक़ात की थी।
सवाल यह है कि भारत ने दोस्तम की तरफ दोस्ती का हाथ क्यों बढाया है। क्या अफ़गान वॉर लॉर्ड्स को तालिबान के ख़िलाफ़ खड़ा करने की रणनीति को भारत सरकार बढ़ावा दे रही है?
गुलबुद्दीन हिक़मतयार
अब्दुल रशीद दोस्तम के ठीक उलट गुलबुद्दीन हिक़मतयार इसलामी हैं, पूर्व मुजाहिदीन नेता हैं, उन्होंने रूसी फ़ौज और अफ़ग़ान सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है।
वे ज़ल्फ़िकार अली भुट्टो के जमाने में पाकिस्तान चले गए, ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह में रहे और प्रशिक्षण लिया। वे अफ़ग़ानिस्तान आए तो सीआईए से संपर्क किया।
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सीआईए की मदद से उन्होंने हिज़्बे इसलामी खालिस की स्थापना की थी। सीआईए ने उन्हें रूसी सेना के ख़िलाफ़ उतारा। लेकिन पाकिस्तान से उनके संपर्क बने रहे।
नजीबुल्लाह के पतन के बाद हुए गृह युद्ध में उन्हें काबुल की घेरेबंदी के लिए जाना जाता है, जिसमें उन्होंने बड़े पैमाने पर मिसाइल हमले किए। उन्हें 50 हज़ार लोगों की मौत के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है।
बाद में अहमद शाह मसूद के जमाने में वे दो बार अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति बने, एक बार 1993-94 में और उसके बाद थोड़े समय के लिए 1996 में।
पाकिस्तान गुलबुद्दीन हिक़मतयार को अफ़ग़ानिस्तान में अपना एजेंट मानता था। लेकिन जब तालिबान का प्रभाव बढ़ने लगा तो पाकिस्तान ने उनका समर्थन बंद कर दिया क्योंकि उसे पश्तून आन्दोलन का समर्थन और उसका अपने हित में इस्तेमाल करना था।
हिक़मतयार ग़िलज़ी पश्तून के खरोटी क़बीले के थे। लेकिन तालिबान से उनकी नहीं बनी, लड़ाई हुई, उनके बहुत सारे लड़ाके मारे गए और उन्हें भाग कर ईरान में शरण लेनी पड़ी।
जब अशरफ़ ग़नी 2016 में राष्ट्रपति बने और मेल मिलाप और सुलह सफाई का अभियान चलाया तो उन्होंने हिक़मतयार को माफ़ कर दिया, उन पर लगे युद्ध अपराध और मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप वापस ले लिए गए। हिक़मतयार ने 2019 का राष्ट्रपति चुनाव लड़ा और तीसरे स्थान पर रहे।
अब एक बार फिर हिक़मतयार को सामने लाने की कोशिशें की जा रही हैं। वे ईरान से लौट चुके हैं और पाकिस्तान से उनके रिश्ते भी सुधर गए हैं। पर उनके साथ दिक्क़त यह है कि पाकिस्तान तालिबान के साथ है और वे उसके ख़िलाफ़ हैं।
उन्हें पिछले कुछ महीनों से बदाक्शन और हेरात प्रांतों में सक्रिय देखा गया है।
मुहम्मद इसमाइल ख़ान
मुहम्मद इसमाइल ख़ान ताज़िक नस्ल के हैं। वे अफ़ग़ान राष्ट्रीय सेना में कैप्टन थे। सोवियत संघ की फ़ौज के वहाँ पहुँचने के बाद उनके ही शहर हेरात में सैनिकों ने रूसियों के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी थी। स्थानीय गवर्नर नूर मुहम्मद तराक़ी ने इस विद्रोह को बुरी तरह कुचला, जिसमें 24 हज़ार लोग मारे गए थे।
इसमाइल ख़ान ने भी विद्रोह किया, वहां से भाग कर पाकिस्तान चले गए और जमात-ए-इसलामी से जुड़ गए। बाद में वे अफ़ग़ानिस्तान आए और मुजाहिदीन से जुड़ गए जिसने सीआईए की मदद से रूसियों के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ रखी थी।
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तालिबान ने जब हेरात पर 1995 में हमला किया तो यह इसमाइल ख़ान ही थे, जिन्होंने तालिबान को शिकस्त दी और वहां से खदेड़ दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने तालिबान के गढ़ कांधार पर भी हमला किया, लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी।
लेकिन उज़बेक-ताज़िक प्रतिद्वंद्विता के कारण उज़बेक नेता अब्दुल रशीद दोस्तम ने हेरात पर हमला किया तो इसमाइल ख़ान को भाग कर ईरान में शरण लेनी पड़ी।
तालिबान के पतन के बाद हामिद करज़ई की सरकार बनने पर वे पहले हेरात के गवर्नर और बाद में ऊर्जा मंत्री बनाए गए।
वे एक बार फिर सक्रिय हैं, उन्हें जुलाई 2021 में हेरात में लोगों को संगठित करते देखा गया। वे अफ़गान राष्ट्रीय सेना के साथ हैं और तालिबान के ख़िलाफ़ लोगों को गोलबंद करने में जुटे हैं।
अता मुहम्मद नूर
ताज़िक नस्ल के अता मुहम्मद नूर पूर्व मुजाहिदीन कमान्डर हैं, सीआईए द्वारा स्थापित जमीअत-ए- इसलामी से जुड़े हुए थे और रूसी सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी।
रूसियों के जाने के बाद वे अहमद शाह मसूद के साथ जुड़ गए और नदर्न अलायंस के होकर तालिबान से लड़ते रहे। मसूद ने उन्हें बाल्ख़ का कमान्डर बनाया था।
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अमेरिका की आलोचना
तालिबान के पतन के बाद हामिद करज़ई ने उन्हें 2006 में बाल्ख़ का गवर्नर बना दिया। लेकिन 2018 में उन्हें नए राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने इस पद से हटा दिया।
बाल्ख का गवर्नर रहते हुए नूर ने अफ़ीम की खेती बंद करवाई और इस धंधे पर रोक लगा दी। इस वजह से उनकी तारीफ की जाती है।
नूर को दूसरे कारणों से भी प्रगतिशील समझा जाता है। उन्होंने समाचार एजेंसी एपी को दिए एक इंटरव्यू में अमेरिका की यह कह कर तीखी आलोचना की थी कि उसने अफ़ग़ानिस्तान को कभी आत्मनिर्भर नहीं बनने दिया।
नूर चाहते थे कि हवाई जहाज़ के कल-पुर्जे, छोटे-मोटे हथियार और दूसरे छोटे हथियार अमेरिका से लाने के बजाय अफ़ग़ानिस्तान में ही बने और यह काम अमेरिकी कंपनी ही करे।
उनका कहना था कि इससे अफ़ग़ानिस्तान में निवेश होगा और लोगों को रोज़गार मिलेगा, एक अलग उद्योग खड़ा हो जाएगा।
नूर अपने ताज़िक नस्ल के लोगों में आज भी लोकप्रिय हैं। वे अफ़ग़ान सेना को समर्थन देना चाहते हैं। उन्होंने बाल्ख़ की राजधानी मज़ार-ए-शरीफ़ और उसके आसपास के लोगों को लामबंद करने की कोशिश की है।
अब्दुल ग़नी अलीपुर
अब्दुल ग़नी अलीपुर हज़ारा समुदाय के हैं, जो शिया इसलाम को मानने वाले होते हैं। उन्हें पाकिस्तान का सबसे अधिक उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय माना जाता है।
तालिबान पश्तून आन्दोलन तो है ही, कट्टर सुन्नी आन्दोलन भी है जो बहावी कट्टरता की हद तक जाता है। इसलाम की उनकी व्याख्या में शिया समुदाय के लिए कोई जगह नहीं है।
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हज़ारा समुदाय के लोगों के तालिबान के ख़िलाफ़ होने की मूल वजह यही है। इसके अलावा अल्पसंख्यक होने की वजह से भी उनका बुरा हाल है।
अब्दुल ग़नी अलीपुर मैदान वर्दक प्रांत के बहशूद ज़िले के हैं और कमान्डर अलीपुर के रूप में लोकप्रिय हैं।
अलीपुर ने तालिबान के ख़िलाफ़ शुरू से ही मोर्चा लिया और दाईकुन्डी, ग़ोर, ग़ज़नी और मैदान वर्दक प्रांतों में तालिबान को फटकने नहीं दिया।
बीच-बीच में सुन्नी गुटों से उनकी झड़प होती रही। सुन्नी मिलिशिया पर मिसाइल हमला करने के आरोप में उन्हें गिरफ़्तार भी किया गया था, बाद में उन्हें छोड़ भी दिया गया था।
अलीपुर मैदान वर्दक के इलाक़े में एक बार फिर सक्रिय हैं, शिया हज़ारा समुदाय का समर्थन उन्हें हासिल है और वे तालिबान को एक बार फिर चुनौती दे रहे हैं।
सवाल तो यह है कि ये कमान्डर कितने दिन तालिबान को रोकने में कारगर होंगे। इनमें से कुछ तो 70-80 साल के हो चुके हैं, अशक्त हैं और लड़ने की स्थिति में नहीं हैं। उनका गुट बिखर चुका है, उनके पास हथियार नहीं हैं।
हालांकि अपने-अपने नस्ली समूहों में इन कमांडरों की इज्ज़त आज भी है और वे लोगों को गोलबंद कर सकते हैं। अफ़ग़ान सेना उनके लड़ाकों को हथियार और प्रशिक्षण देकर तालिबान के ख़िलाफ़ उतार सकती है।
इनकी अहमियत इसलिए भी है कि अफ़ग़ान सेना के फ़ौजियों में उत्साह नहीं है, वे पूरी तरह प्रशिक्षित नहीं, कई सैनिकों को वेतन तक नहीं मिला है। उन्हें लगता है कि उनके लिए तालिबान ही भले हैं।
वे जहाँ तहाँ तालिबान के सामने हथियार डाल रहे हैं। जुलाई महीने में ताजिकिस्तान से सटे इलाक़े में वे तालिबान से लड़ने के बजाय भाग कर तालिबान चले गए और पनाह ली।
ऐसे में ये वॉर लॉर्ड अशरफ़ ग़नी के लिए डूबते को तिनके का सहारा साबित हो सकते हैं।
पर जिस बिजली की गति से तालिबान ने एक के बाद एक नौ प्रातों पर एक हफ़्ते में क़ब्ज़ा कर लिया है, उससे लोग चकित हैं। ऐसे में ये कमान्डर कहीं चुके हुए कारतूस न साबित हों, यह ख़तरा बना हुआ है।
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