लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठा रहे हैं। उनका आरोप है कि मोदी सरकार ने 2023 में एक ऐसा कानून बनाया, जिसके तहत चुनाव आयुक्तों के ख़िलाफ़ भविष्य में कोई मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता। यानी उन्हें किसी भी दंड से छूट मिल गयी है। राहुल का दावा है कि इस कानून के ज़रिए सरकार ने आयुक्तों को यह भरोसा दिलाया है कि वे बेझिझक बीजेपी के पक्ष में हेराफेरी कर सकते हैं। पकड़े जाने पर भी उन्हें सजा नहीं होगी।

बिहार में चल रही वोट अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गाँधी इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठा रहे हैं। उन्होंने दावा किया है कि स्पेशल इंटेसिव रिवीजन के नाम पर गरीबों, खासकर दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के नाम मतदाता सूची से हटाये जा रहे हैं। यह सब चुनाव आयोग की मिलीभगत से हो रहा है। पिछले दिनों राहुल ने दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करके कर्नाटक की एक विधानसभा सीट पर एक लाख से ज्यादा फर्जी वोट जोड़ने का दस्तावेज़ी ‘प्रमाण’ दिया था, जिसके चलते लोकसभा चुनाव का परिणाम प्रभावित हुआ। उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर सरकार बदली, तो बेईमान आयुक्तों के खिलाफ कार्रवाई होगी, भले ही वे रिटायर हो चुके हों। अब वे यह भी बता रहे हैं कि सरकार ने एक कानून बनाकर इस रास्ते में बाधा खड़ी कर दी है।

अनूप बरनवाल केस: कहानी की शुरुआत

राहुल के आरोपों को समझने के लिए हमें 2015 में दायर अनूप बरनवाल की जनहित याचिका (PIL) की ओर जाना होगा। सेवानिवृत्त IAS अधिकारी अनूप बरनवाल ने सुप्रीम कोर्ट में मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को चुनौती दी थी। उनका तर्क था कि मौजूदा व्यवस्था, जिसमें राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सिफारिश पर आयुक्तों की नियुक्ति करते हैं, चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को कमजोर करती है। याचिका में निष्पक्ष, पारदर्शी और योग्यता-आधारित चयन प्रक्रिया की मांग की गयी थी।

संविधान सभा की बहस

चुनाव आयोग का गठन 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के साथ हुआ था। संविधान सभा में अनुच्छेद 324 पर 1949 में लंबी बहस हुई थी। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने कहा था कि लोकतंत्र की सफलता के लिए आयोग की स्वतंत्रता जरूरी है। कुछ सदस्यों, जैसे प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना, ने माँग की थी कि नियुक्तियाँ संसद की मंजूरी से हों, लेकिन आंबेडकर ने इसे अव्यावहारिक माना। यह माना गया कि सरकार की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे। एक बार आयुक्त बन जाने के बाद वह निष्पक्ष रहेगा।

संविधान के अनुच्छेद 324(5) के तहत मुख्य चुनाव आयुक्त को सुप्रीम कोर्ट के जजों जैसी सुरक्षा दी गई, ताकि सरकार का उन पर दबाव न रहे।

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला

अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ का मामला करीब सात साल तक चला। 2 मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की संविधान पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। इस पीठ की अध्यक्षता जस्टिस के.एम. जोसेफ ने की, और इसमें जस्टिस अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, ऋषिकेश रॉय और सी.टी. रविकुमार शामिल थे। कोर्ट ने फैसला दिया कि:
  • मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति खुली, उचित और योग्यता-आधारित होनी चाहिए।
  • एक चयन समिति, जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों, नियुक्तियों के लिए उम्मीदवारों का चयन करेगी।
  • अगर विपक्ष का कोई नेता नहीं है, तो लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल के नेता को समिति में शामिल किया जाएगा।
  • यह व्यवस्था तब तक लागू रहेगी, जब तक संसद कोई उचित कानून नहीं बनाती।
इस फैसले को लोकतंत्र में चुनाव आयोग की स्वायत्तता को मजबूत करने वाला माना गया। कोर्ट ने माना कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला हैं, और इसके लिए आयोग का कार्यकारी प्रभाव से मुक्त होना जरूरी है। मुख्य न्यायाधीश की मौजूदगी से चयन समिति में संतुलन बनता था—एक वोट सरकार का, एक विपक्ष का और तीसरा निष्पक्ष।

मोदी सरकार का क़ानूनी दाँव

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के कुछ महीने बाद ही मोदी सरकार ने एक ऐसा कदम उठाया, जिसने इस फैसले की भावना को नष्ट कर दिया। अगस्त 2023 में सरकार ने संसद में 'मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और कार्यकाल) अधिनियम' पेश किया, जिसे दिसंबर 2023 में पारित कर 28 दिसंबर को अधिसूचित किया गया। इस कानून में दो बड़े बदलाव:

चयन समिति से मुख्य न्यायाधीश को हटाया गया: उनकी जगह प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक कैबिनेट मंत्री को शामिल किया गया। अब समिति में प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री और नेता प्रतिपक्ष शामिल हैं। इसका मतलब है कि सरकार के पास हमेशा बहुमत रहेगा, और विवाद की स्थिति में 2-1 का फैसला सरकार के पक्ष में ही होगा।

आयुक्तों को दंड से छूट: कानून में प्रावधान किया गया कि आयुक्तों के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान किए गए कार्यों के लिए कोई सिविल या आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

इन बदलावों ने सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर दिये। विशेषज्ञों का मानना है कि मुख्य न्यायाधीश को हटाकर सरकार ने चयन प्रक्रिया को अपने नियंत्रण में ले लिया। साथ ही, दंड से छूट का प्रावधान आयुक्तों को गलत काम करने की खुली छूट देता है। क्या सरकार को लगता है कि आयुक्त ऐसी गड़बड़ियां कर रहे हैं, जिनके लिए भविष्य में सजा हो सकती है? यह प्रावधान ठीक वैसा ही है, जैसा राष्ट्रपति को प्राप्त है।

हाईकोर्ट के फ़ैसले को भी पलटा

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इन बदलावों ने विपक्ष की चिंताओं को और बढ़ा दिया। इसके अलावा, हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 से जुड़ा एक और मामला सामने आया। 9 दिसंबर 2024 को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने वकील महमूद प्राचा की याचिका पर सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग को फॉर्म 17सी और सीसीटीवी फुटेज साझा करने का आदेश दिया। याचिका में दावा किया गया था कि हरियाणा चुनाव में शाम 5 बजे के बाद मतदान में 7.83% की असामान्य वृद्धि हुई, यानी करीब 76 लाख वोट बढ़े। फॉर्म 17सी में ईवीएम का सीरियल नंबर, मतदान केंद्र पर मतदाताओं की संख्या और वोटिंग मशीन में दर्ज वोटों की संख्या जैसी जानकारी होती है।

लेकिन हाईकोर्ट के आदेश के 11 दिन बाद ही सरकार ने 'कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स' में संशोधन कर दिया। नए नियमों के तहत सीसीटीवी फुटेज और अन्य चुनावी दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की प्रक्रिया को और सख्त कर दिया गया। अब इन्हें केवल विशेष परिस्थितियों में कोर्ट की अनुमति से ही साझा किया जा सकता है। साथ ही, सीसीटीवी फुटेज रखने की अवधि को एक साल से घटाकर 45 दिन कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट की धीमी चाल

इन बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि मुख्य न्यायाधीश को चयन समिति से हटाना और आयुक्तों को दंड से छूट देना चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को कमजोर करता है। हैरानी की बात है कि डेढ़ साल बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई नहीं की। बार-बार सुनवाई टल रही है, जिससे याचिकाकर्ता निराश हैं। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के फैसले की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, लेकिन कोर्ट खामोश है।

राहुल गांधी

राहुल गांधी का बढ़ता अभियान 

राहुल गांधी अपनी वोट अधिकार यात्रा के दौरान इस मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं। बिहार में उनकी सभाओं में भारी भीड़ जुट रही है, और जनता की प्रतिक्रिया बताती है कि उनके आरोपों का असर हो रहा है। राहुल का कहना है कि ये कानूनी बदलाव चुनाव में हेराफेरी को आसान बनाने के लिए किए गए हैं, ताकि आयुक्त पकड़े जाने पर भी सजा से बच सकें।

विशेषज्ञों का मानना है कि नया कानून संवैधानिक सिद्धांतों, खासकर निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। अगर चौराहों पर चुनाव आयोग की निष्पक्षता की धज्जियां उड़ रही हैं, तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप करेगा, और क्या चुनाव आयोग अपनी खोई हुई साख को वापस हासिल कर पाएगा? मुख्य चुनाव आयुक्त की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में गूँजे विपक्ष विरोधी डायलॉग को देखते हुए ऐसा हो पाना आसान नहीं लगता।