असम का नाम चुनाव आयोग की मतदाता सूची के विशेष गहन संशोधन (SIR) के दूसरे चरण से अचानक बाहर कर दिया गया। इस फैसले ने राज्य की राजनीतिक दुनिया में तमाम अटकलों को जन्म दे दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि भाजपा सरकार, जो पहले से ही नागरिकता विवादों और हालिया राजनीतिक उथल-पुथल से जूझ रही है, इस संशोधन की 'गर्मी' को बर्दाश्त नहीं कर पा रही। असम विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभागाध्यक्ष जॉयदीप बिस्वास की राय में, यह फैसला भाजपा के लिए 2026 विधानसभा चुनावों से पहले एक बड़ी राहत है, क्योंकि SIR के जरिए मतदाता सूची से नाम हटने पर राज्य सरकार के लिए घातक स्थिति पैदा हो सकती थी। प्रोफेसर बिस्वास की बात को द हिन्दू अखबार ने सोमवार को प्रकाशित किया है।
असम में नागरिकता का मुद्दा आजादी के बाद से ही विवादास्पद रहा है। राज्य में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को 'अन्य' ठहराने की प्रवृत्ति साफ दिखाई देती है। प्रोफेसर बिस्वास के अनुसार, स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में गैर-असमिया और गैर-खिलोंजिया (मूल निवासियों) समुदायों को भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने की कोशिशें जारी रहीं। हाल के वर्षों में यह जटिलता और बढ़ गई है, जहां संविधान के भाग III में वर्णित मौलिक अधिकारों के कुछ अनुच्छेदों को जानबूझकर कमजोर या निलंबित किया गया। असम देश का इकलौता ऐसा राज्य है जहां दो प्रकार के मतदाता और दो प्रकार के नागरिक मौजूद हैं।
1997 में चुनाव आयोग के एक असंवैधानिक आदेश से निचले असम और बाराक घाटी के लाखों मतदाताओं, ज्यादातर बंगाली भाषी समुदाय को 'डी-वोटर' (संदिग्ध मतदाता) घोषित कर दिया गया। इससे करीब एक लाख लोग आज भी इस अपमानजनक स्थिति में फंसे हैं। 28 साल पहले लगभग पांच लाख मतदाताओं को इस जाल में फंसाया गया था, और विभिन्न विदेशी ट्रिब्यूनलों में 2.44 लाख मामले दर्ज हुए, जिनमें से 1.47 लाख का निपटारा हुआ। 
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इसी तरह, 2015-2019 के बीच केवल असम में ही राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का अपडेट किया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 2014 के फैसले के बावजूद यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी। 1,600 करोड़ रुपये खर्च होने के बाद भी 19.6 लाख लोगों को सूची से बाहर कर दिया गया, और छह साल बाद भी दस्तावेज अंतिम रूप नहीं ले सका।
प्रोफेसर बिस्वास ने लिखा है कि 1979-85 के बीच ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन और गण संग्राम परिषद द्वारा चलाए गए हिंसक 'विदेशी-विरोधी' आंदोलन ने असम के बहुसांस्कृतिक समाज में 'मूल निवासी बनाम विदेशी' का बनावटी विभाजन पैदा किया। राज्य तंत्र के खुलेआम और गुप्त समर्थन से यह द्वंद्व मजबूत हुआ। भाजपा के राज्य में प्रवेश ने सांप्रदायिक विभाजन को हवा दी, जिससे विपक्षी दलों को नेस्तनाबूद कर दिया। 2021 विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की जो थोड़ी-बहुत पकड़ बची थी, वह मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा द्वारा परिसीमन के नाम पर की गई जनगणना में हेराफेरी से खत्म हो गई। 

मुस्लिम आबादी को मात्र 20 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों तक सीमित कर दिया गया, ताकि मुस्लिम विधायक कभी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका न निभा सकें।

हालांकि, लोकप्रिय गायक-समाजसेवी ज़ुबीन गर्ग की सिंगापुर में 19 सितंबर को हुई रहस्यमयी मौत ने भाजपा की 2026 चुनावों में तीसरी लगातार जीत की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। 'डूबने से मौत' बताई गई इस घटना के बाद असम की जनता, खासकर जेन जी युवाओं ने लाखों की संख्या में सड़कों पर उतरकर न्याय की मांग की। 
ज़ुबीन, जो अपनी छोटी सी जिंदगी में असम की संस्कृति और लोगों के प्रति समर्पित थे, की मौत ने शेक्सपियर के कथन को चरितार्थ कर दिया: 'मृत सीजर जीवित सीजर से भी ज्यादा पावरफुल होता है।' सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा और उनकी पत्नी से जुड़े प्रभावशाली परिवारों जैसे उद्यमी श्यामकानु महंता के कथित कुप्रबंधनों की कहानियां वायरल हो रही हैं। जुबिन सिंगापुर में नॉर्थ ईस्ट फेस्टिवल में प्रदर्शन के लिए गए थे, जिसके मुख्य आयोजक महंता ही हैं। जनता अब स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की मांग कर रही है, जिससे भाजपा की एकजुट छवि चूर-चूर हो गई है।
अभी हाल ही में हुए बोडो टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) चुनावों में भाजपा को करारी हार मिली, जहां हग्रामा मोहिलरी की बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) ने पूर्ण बहुमत हासिल कर सत्ता में वापसी की। बीजेपी माने या न माने यह हार सीधे मुख्यमंत्री सरमा के लिए व्यक्तिगत अपमान है, क्योंकि वो भाजपा के मुख्य प्रचारक थे।
प्रोफेसर बिस्वास ने लिखा है कि ऐसे संवेदनशील दौर में मोदी-शाह-सरमा तिकड़ी असम में SIR का जोखिम नहीं ले सकती। जहां पहले से ही लाखों लोग नागरिकता विवादों में फंसे हैं, वहां मतदाता सूची से नाम हटाना भाजपा के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। चुनाव आयोग का तर्क कि असम के विशेष नागरिकता प्रावधानों के कारण इसे फिलहाल SIR से बाहर रखा गया, किसी को संतुष्ट नहीं कर रहा। यह फैसला 2026 चुनावों तक टालमटोल का संकेत देता है।
असम के समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था पर टिप्पणी करने वाले जॉयदीप बिस्वास ने अंत में लिखा है, "भाजपा भले ही असम में अपनी रणनीतिक वापसी मानती हो, लेकिन जनाक्रोश बढ़ने से राज्य की राजनीति में बड़े बदलाव की आहट सुनाई दे रही है।" राज्य में जारी विरोध प्रदर्शनों ने सत्ताधारी दल को नर्वस कर दिया है, और विपक्ष को नई ऊर्जा मिली है।