केंद्र में मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी (राम बिलास ) के नेता चिराग पासवान को इन दिनों बिहार की बहुत याद आ रही है। हाल में संवाददाताओं से उन्होंने कहा कि बिहार उन्हें बुला रहा है। बिहार के हाजीपुर संसदीय सीट से सांसद चिराग कभी बयान देते हैं कि वो 2030 में विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे तो कभी संकेत देते हैं कि उनका इरादा इसी साल होने वाला विधान सभा चुनाव लड़ने का है। उनकी पार्टी बिहार की एक क्षेत्रीय पार्टी है। सवाल ये है कि उन्हें बिहार बुला रहा है या उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उन्हें बिहार की तरफ़ खींच रही है।

चिराग ख़ुद ही उसका खुलासा भी करते हैं। “मेरे पिता राम विलास पासवान केंद्र की राजनीति करते थे लेकिन मैं राज्य की राजनीति करना चाहता हूं” आख़िरकार चिराग के इस बिहार प्रेम का राजनीतिक मतलब क्या है। कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि चिराग की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है। और वो इसके लिए भूमिका तैयार कर रहे हैं। चिराग अच्छी तरह जानते हैं कि फिलहाल ये संभव नहीं है। उनकी पार्टी फिलहाल 15-20 सीटों तक सीमित है। अभी उनकी नजर विधानसभा के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सीटें हासिल करना है। 
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2020 के विधान सभा चुनावों में चिराग एनडीए यानी बीजेपी गठबंधन से बाहर थे। उन्होंने 135 उम्मीदवार खड़े किए। पर जीत सिर्फ एक को मिली थी। 2024 के लोक सभा चुनावों में उनकी एनडीए में वापसी हुई। उन्हें लोक सभा की पांच सीटें मिलीं। सभी पांच पर जीत के बाद चिराग की महत्वाकांक्षा बढ़ी हुई दिखाई दे रही है।

परिवार में विवाद

एक बात तो माननी पड़ेगी कि चिराग काफ़ी हद तक अपने बूते पर राजनीति में खड़े हुए हैं। राजनीति उन्हें अपने पिता राम विलास पासवान से विरासत में मिली, लेकिन अपने को स्थापित करने के लिए उन्हें ख़ुद मेहनत करनी पड़ी। अक्टूबर 2020 में राम विलास पासवान की मृत्यु के बाद एनडीए ने चिराग को बाहर का रास्ता दिखा दिया। उनके चाचा पशुपति पारस के नेतृत्व में लोक जन शक्ति पार्टी के चार में से तीन सांसदों ने बग़ावत कर दी। पारस को केंद्र में मंत्री बनाया गया। पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न भी छिन गया। चिराग ने 2020 का चुनाव अपने दम पर लड़ा। 

चिराग का आरोप था कि 2020 में उन्हें नीतीश कुमार के चलते एनडीए से अलग किया गया। इसलिए उन्होंने जेडीयू के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ चुन चुन कर उम्मीदवार खड़ा किया।

चुनाव के दौरान उन्होंने ख़ुद को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान घोषित कर दिया और साफ़ कहा कि बीजेपी से उनका कोई विवाद नहीं है। वो सिर्फ़ जेडीयू को हराने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। नीतीश की पार्टी का इस चुनाव में जबरदस्त नुक़सान का एक कारण चिराग को भी माना गया। 2024 के लोकसभा चुनावों में चिराग की एनडीए में वापसी हो गयी। पारस हाशिए पर डाल दिए गए। अब पारस ने एनडीए से अलग होकर चिराग को चुनौती देने की तैयारी शुरू कर दी है।

विधान सभा चुनाव पर नज़र 

चिराग पासवान के हाल के बयानों पर नजर डालने से पता चलता है कि असल में उनकी नजर अक्टूबर- नवंबर में होने वाले विधान सभा चुनावों में अपनी पार्टी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सीटें हासिल करने पर है। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में चिराग ने कहा कि लोक सभा चुनावों में उनकी पार्टी को राज्य की 40 में से 5 सीटें मिली थीं। उन्हें सभी सीटों पर जीत मिली जबकि एनडीए की बाक़ी पार्टियाँ बची हुई 35 सीटों पर लड़ीं और सिर्फ़ 25 जीत पायीं। इस हिसाब से उन्हें विधान सभा की 40 से 50 सीटें मिलनी चाहिए।
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2020 के सीटों के बंटवारे के हिसाब से देखें तो चिराग की पार्टी को इतनी सीटें मिलना मुश्किल लगता है। 2020 में कुल 243 सीटों में से बीजेपी 117 और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी 116 सीटों पर लड़ी थी। बीजेपी को 74 और जेडीयू को 43 सीटों पर जीत मिली। 10 सीटें जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुसवाहा की पार्टी को दी गयी थी। चिराग की मांग अगर मानी जाती है तो किसी की सीट कम करनी होगी। बीजेपी भविष्य में अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री देखना चाहती है। इसलिए आधे से कम सीटों पर लड़ना उसके भविष्य के लिए घातक होगा। 
तो क्या नीतीश कुमार अपनी पार्टी के लिए कम सीटें स्वीकार करेंगे? राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बहुत कम सीटों पर लड़ना नीतीश की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर भारी पड़ेगा। वैसे, जीत के हिसाब से नीतीश का ग्राफ़ लगातार नीचे जा रहा है। 

2015 में नीतीश की पार्टी को 70 सीटों पर जीत मिली थी जो 2020 में घट कर 43 रह गयी। माना जाता है कि चिराग ने नीतीश के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार खड़ा करके खेल बिगाड़ दिया था।

और भी हैं दावेदार 

एनडीए में ज़्यादा सीटों के लिए दो और दावेदार हैं। जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान अवाम पार्टी (हम) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी 20-20 सीटों पर दावा ठोक रही है। एनडीए के लिए ये एक बड़ी समस्या है। चिराग पासवान के चाचा पशुपति कुमार पारस एनडीए से नाराज़ होकर अलग होने की घोषणा कर चुके हैं। नीतीश को साथ रखना बीजेपी की मजबूरी है। इसका एक कारण ये भी है कि उनके लिए आरजेडी और लालू-तेजस्वी के दरवाजे भी खुले हुए हैं। 
बीजेपी ने नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की घोषणा तो कर दी है, लेकिन चुनाव के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बनाए रखने की घोषणा अभी नहीं हुई है। लंबे समय से चर्चा चल रही है कि राजनीति के माहिर खिलाड़ी नीतीश उप राष्ट्रपति या राष्ट्रपति जैसे किसी बड़े पद के बिना मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे। बीच-बीच में उनके स्वास्थ्य में गिरावट की ख़बरें भी आती रहती हैं। हाल के कुछ सर्वे बताते हैं कि नीतीश की लोकप्रियता में कमी आई है लेकिन उन्हें हाशिए पर नहीं रखा जा सकता है। अति पिछड़ों, अति दलितों और महिलाओं के बीच नीतीश की पैठ अब भी बरकरार है। चिराग की महत्वाकांक्षा के सामने नीतीश सबसे बड़ी समस्या हैं।

बिहार में चिराग के एक और प्रशंसक मौजूद हैं- प्रशांत किशोर। चुनाव रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर कई बार चिराग की सराहना कर चुके हैं। वो चिराग को ईमानदार नेता बताते हैं और ये भी संकेत देते हैं कि चिराग अगर एनडीए से अलग हो जाएँ तो उनकी बात हो सकती है। लेकिन चिराग अभी एनडीए छोड़ने की बड़ी चुनौती स्वीकार नहीं कर सकते हैं। प्रशांत की जन सुराज पार्टी पहली बार चुनाव लड़ने जा रही है। उनका ख़ुद का राजनीतिक भविष्य अभी तय नहीं है।