2002 के गुजरात दंगों के मामले में अदालत ने तीन आरोपियों को बरी कर दिया। जांच एजेंसियों के पास मौजूद ‘हार्ड वीडियोग्राफिक सबूत’ के गायब होने से सवाल उठे हैं। क्या न्याय प्रक्रिया पर असर पड़ा?
गुजरात के 2002 सांप्रदायिक दंगों से जुड़े एक पुराने मामले में अहमदाबाद की एक अदालत ने तीन आरोपियों को बरी कर दिया। 'हार्ड वीडियोग्राफिक सबूत' यानी वीडियो टेप का अदालत में कभी पेश न होना और वीडियोग्राफर का अपना बयान वापस लेना इस फैसले की मुख्य वजह बनी। आरोपियों में से एक पर एके-47 राइफल लहराने का गंभीर आरोप था, लेकिन 23 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद सबूतों की कमी के चलते अदालत ने उन्हें क्लीन चिट दे दी।
यह मामला दरीपुर पुलिस स्टेशन में दर्ज दो एफआईआर से जुड़ा है, जो 14 अप्रैल 2002 को हुई सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर आधारित हैं। शिकायतकर्ता सतीश दलवाड़ी थे। वह एक वीडियोग्राफर और क्षेत्रीय शांति समिति के सदस्य भी थे। उन्होंने पुलिस को एक वीएचएस कैसेट सौंपा था। इसमें कथित तौर पर आलमगीरी शेख, हनीफ शेख, इम्तियाज शेख, रऊफमिया सैयद और कुछ अन्य लोग हिंसा वाली भीड़ में शामिल दिखाई दे रहे थे। दलवाड़ी को तत्कालीन दरीपुर पुलिस इंस्पेक्टर आर.एच. राठौड़ ने सांप्रदायिक तनाव की किसी भी घटना को रिकॉर्ड करने का निर्देश दिया था।
चार्जशीट में क्या कहा गया था?
पुलिस जाँच के बाद दाखिल चार्जशीट में कहा गया कि इम्तियाज शेख एक ऑटोमैटिक हथियार (एके-47 जैसा) लिए हुए थे, जबकि एक अज्ञात व्यक्ति रिवॉल्वर थामे हिंदू समुदाय के लोगों पर निशाना साध रहा था। इसी वीडियो के आधार पर आरोपियों पर आर्म्स एक्ट और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मुक़दमा चलाया गया।
हालाँकि, ट्रायल के दौरान सबूतों का ढाँचा पूरी तरह ध्वस्त हो गया। टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार वीडियो टेप कभी अदालत में पेश नहीं किया गया और यह ग़ायब हो चुका था। शिकायतकर्ता दलवाड़ी ने प्रॉसिक्यूशन का साथ नहीं दिया और उन्हें हॉस्टाइल विटनेस यानी पलटा हुआ गवाह घोषित कर दिया गया। दलवाड़ी ने अदालत में कहा कि उन्हें ठीक-ठीक याद नहीं है कि उन्होंने क्या रिकॉर्ड किया था।
सुनवाई के दौरान आरोपी, गवाहों की मौत
23 साल की इस लंबी सुनवाई के दौरान आरोपियों में से एक हनीफ शेख की मौत हो गई। कई गवाह और जांच अधिकारी भी मर चुके हैं। जीवित बचे गवाहों में से अधिकांश मुकर गए। एक गवाह ने अदालत को बताया कि उसका हस्ताक्षर एक रेस्तरां में चाय पीते समय लिया गया था। पुलिस सब-इंस्पेक्टर एच.एच. चौहान भी पलट गए।
अदालत के फ़ैसले में साफ़ तौर पर उल्लेख किया गया है कि ट्रायल के दौरान वीडियो कैसेट पेश नहीं किया गया। आदेश में कहा गया, 'इसके अलावा इस मामले में कोई हथियार बरामद नहीं हुआ है, न ही कोई मौखिक या दस्तावेजी सबूत पेश किया गया है जो यह साबित करे कि आरोपियों के पास कथित अपराध के समय हथियार थे।'
यह मामला 2002 गुजरात दंगों की कई कानूनी लड़ाइयों में से एक है, जहां सबूतों की कमी और गवाहों के मुकरने से कई आरोपी बरी हो चुके हैं। अदालत का यह फैसला एक बार फिर दंगों से जुड़े मामलों में सबूतों की मजबूती और समय की भूमिका पर सवाल उठाता है। तीनों बरी हुए आरोपी आलमगीरी शेख, इम्तियाज शेख और रऊफमिया सैयद अब क़ानूनी रूप से निर्दोष घोषित हो चुके हैं।
सबूत गायब कैसे?
लेकिन क्या यह 'न्याय की जीत' है या 'न्याय की हार'? पीड़ित पक्ष के लिए यह निराशाजनक है। 2002 के दंगे हजारों मौतों और विस्थापन का कारण बने। ऐसे मामलों में सबूतों का गायब होना साजिश की अफवाहों को जन्म देता है, भले ही यह केवल प्रशासनिक विफलता हो। दूसरी ओर, आरोपियों के लिए 23 साल की कानूनी लड़ाई एक सजा से कम नहीं।
गुजरात दंगों के 200 से अधिक मामलों में से कई में इसी तरह की समस्याएं आईं— गवाहों का डरना, दबाव, समय के साथ स्मृति का धुंधलाना। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी ने कई मामलों में क्लोजर रिपोर्ट दी, लेकिन जहां ट्रायल चला, वहां सबूतों की मजबूती अहम रही। इस मामले से सबक यह है कि दंगों जैसे बड़े अपराधों में तत्काल डिजिटल सबूत संरक्षण, गवाह संरक्षण कार्यक्रम और तेज ट्रायल जरूरी हैं। आलोचक कह सकते हैं कि यह फैसला दंगाइयों को बचाने का तरीका है, लेकिन कानून भावनाओं पर नहीं चलता। यदि सबूत नहीं, तो सजा नहीं।