लेकिन क्या यह 'न्याय की जीत' है या 'न्याय की हार'? पीड़ित पक्ष के लिए यह निराशाजनक है। 2002 के दंगे हजारों मौतों और विस्थापन का कारण बने। ऐसे मामलों में सबूतों का गायब होना साजिश की अफवाहों को जन्म देता है, भले ही यह केवल प्रशासनिक विफलता हो। दूसरी ओर, आरोपियों के लिए 23 साल की कानूनी लड़ाई एक सजा से कम नहीं।
गुजरात दंगों के 200 से अधिक मामलों में से कई में इसी तरह की समस्याएं आईं— गवाहों का डरना, दबाव, समय के साथ स्मृति का धुंधलाना। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी ने कई मामलों में क्लोजर रिपोर्ट दी, लेकिन जहां ट्रायल चला, वहां सबूतों की मजबूती अहम रही। इस मामले से सबक यह है कि दंगों जैसे बड़े अपराधों में तत्काल डिजिटल सबूत संरक्षण, गवाह संरक्षण कार्यक्रम और तेज ट्रायल जरूरी हैं। आलोचक कह सकते हैं कि यह फैसला दंगाइयों को बचाने का तरीका है, लेकिन कानून भावनाओं पर नहीं चलता। यदि सबूत नहीं, तो सजा नहीं।