देश के तमाम जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए एक देश एक चुनाव की घोषणा जल्दबाजी में तो कर दी गई लेकिन इसे 2034 से पहले लागू करना संभव नहीं है। मोदी सरकार चाहती है कि विपक्ष अडानी घूसकांड का मुद्दा छोड़कर इसी पर बहस करे। लेकिन खुद सरकार के सूत्र कह रहे हैं कि इस डिजाइन का चुनाव तो 2029 में संभव ही नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए अबकी बार 400 पार का नारा दिया था। लेकिन देश की जनता ने भाजपा को 240 सीटों पर रोक दिया। लोकप्रियता में इतनी भारी गिरावट के बावजूद भाजपा ने संकेत को नहीं समझा और लगातार अभी भी अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रही है। एक देश एक चुनाव दक्षिणपंथी सरकार का मुख्य एजेंडा है। लेकिन सरकारी सूत्रों का कहना है कि एक देश चुनाव का मंसूबा 2034 से पहले मुमकिन नहीं है। 2034 में भी तभी संभव है जब मौजूदा विधेयक को इसी शक्ल में संसद के दोनों सदनों में पास कर दिया जाए। देखना यह है कि मोदी पार्टी के सहयोगी जेडीयू और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी क्या रुख दिखाती हैं।
मोदी कैबिनेट ने गुरुवार को जिस विधेयक को मंजूरी दी है, उसमें कहा गया है कि नये प्रावधान, अनुच्छेद 82 ए (1) के तहत राष्ट्रपति लोकसभा की पहली बैठक में "तय तिथि" को आम चुनाव को अधिसूचित करेंगे। संविधान में अनुच्छेद 82 ए (2) को शामिल करने से लोकसभा के पूर्ण कार्यकाल की समाप्ति के साथ "नियत तिथि" के बाद चुनी जाने वाली राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल घटा दिये जाएंगे। उन्हें अगले लोकसभा चुनाव के साथ तालमेल बिठाते हुए उसी समय कराये जा सकेंगे। यानी जब राष्ट्रपति लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव की तय तारीख घोषित करेंगे तो उस स्थिति में अगर किसी विधानसभा का कार्यकाल 3 साल बचा होगा, तो वो भंग हो जाएगी। उस कार्यकाल को पूरा होने का इंतजार नहीं किया जाएगा।
सूत्रों का कहना है कि अगर मौजूदा विधेयक को बिना बदलाव किये पारित किया जाता है, तो “नियत तिथि” सिर्फ 2029 में चुनी जाने वाली लोकसभा की पहली बैठक के दौरान ही अधिसूचित की जाएगी, क्योंकि अगली लोकसभा का पूरा कार्यकाल 2034 तक होगा। यानी 2029 के चुनाव के बाद जो पहली बैठक होगी, उसी में राष्ट्रपति 2034 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की घोषणा करेंगे। लेकिन यह तभी मुमकिन है जब भाजपा के नेतृत्व में एनडीए इसी शक्ल में बना रहे और उसके पास प्रचंड बहुमत बना रहे। भविष्य कोई नहीं जानता है। विपक्ष अगर जनता को बता ले गया कि ऐसी चुनाव प्रणाली के क्या खतरे होंगे तो सारा मामला पलट सकता है और मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट कूड़ेदान में फेंका जा सकता है।
महज बिल पास कर देने भर से ही एक देश एक चुनाव के पैटर्न पर वोटिंग इतनी आसान नहीं होगी। देश में चुनाव कराने की जिम्मेदारी भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) के पास है। जब 2029 में राष्ट्रपति अगले तय चुनाव की तारीख अधिसूचित करेंगे तब चुनाव आयोग का काम शुरू होगा। आयोग को विधानसभाओं और लोकसभा के लिए एक साथ मतदान की सुविधा के लिए नई इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के लिए ऑर्डर देने की जरूरत होगी। ईवीएम का पूरा डिजाइन बदलना पड़ेगा। पार्टियों की संख्या लोकसभा और विधानसभा में अलग-अलग ही रहेगी। इसका तालमेल ईवीएम में बैठाना आसान नहीं होगा। मोहम्मद तुगलक ने जब राजधानी दिल्ली से बदलकर दौलताबाद की थी तो कागजों पर सब कुछ अच्छा था लेकिन प्रेक्टिकल में तुगलक भी मार खा गया था।
ईसीआई के एक अधिकारी का कहना है कि एक साथ चुनाव के लिए ईवीएम की संख्या दोगुनी करने के लिए कम से कम ढाई से तीन साल की जरूरत होगी। इसमें पड़ने वाली “चिप्स और अन्य सामग्रियों की खरीद में ही सात से आठ महीने लगेंगे। ईवीएम बनाने वाली कंपनी ईसीआईएल और बीईएल को अपना उत्पादन बढ़ाना पड़ेगा क्योंकि वो अभी भी बड़े पैमाने पर ईवीएम का प्रोडक्शन नहीं कर पा रहे हैं। चुनाव आयोग कम से कम तीन साल अपनी तैयारी के लिए मांगेगा।
यह बिल 2025 या 2026 में तमाम बदलावों के बाद ही मोदी सरकार पारित करवा पाएगी। ऐसे में 2029 में एक देश एक चुनाव हर्गिज नहीं हो सकेंगे। क्योंकि तब चुनाव आयोग ही तैयारी के अभाव में मना कर देगा।
कोविंद कमेटी ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों के 100 दिन बाद एकल मतदाता सूची के जरिये स्थानीय निकायों (नगर निगम, नगर पालिका, पंचायत चुनाव) के चुनाव भी एकसाथ कराने की सिफारिश की है। लेकिन मोदी सरकार ने फिलहाल इस प्रस्ताव पर विचार नहीं किया है।
स्थानीय निकाय के चुनाव पूरे देश में एकसाथ कराने में तो लोकसभा-विधानसभा के मुकाबले ज्यादा झंझट वाला रहेगा। 50 फीसदी राज्यों को इसके लिए मंजूरी देनी होगी। क्योंकि स्थानीय निकाय चुनाव राज्यों के चुनाव विभाग कराते हैं। इसके लिए एकल मतदाता सूची बनाना होगा, वार्ड की सीमाओं को संबंधित विधानसभा क्षेत्रों के के हिसाब से लाना होगा। एकल मतदाता सूची का मतलब यह है कि एक ही वोटरलिस्ट का इस्तेमाल स्थानीय निकाय से लेकर विधानसभा और लोकसभा तक होगा। नये सिरे से वोटरलिस्ट बनाना इतना आसान नहीं होगा। उसके लिए भी अच्छा खासा समय चाहिए। कुल मिलाकर मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट के रास्ते में अभी कई रुकावटें हैं। विपक्ष चाहे तो आराम से अभी भी देश के जरूरी मुद्दों पर फोकस करता रहे और एक देश एक चुनाव को ऐसे ही छोड़ दे।
(इस रिपोर्ट का संपादन यूसुफ किरमानी ने किया)