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बलात्कार अभियुक्तों से क्यों है राजनीतिक दलों को ख़ास लगाव?

चौतरफ़ा दबाव में ही सही, बीजेपी ने आख़िरकार उन्नाव के बहुचर्चित गैंगरेप कांड के अभियुक्त विधायक कुलदीप सेंगर को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इससे पहले उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई को लेकर बीजेपी नेताओं के परस्पर विरोधाभासी बयान आ रहे थे। इधर जब सुप्रीम कोर्ट ने उन्नाव गैंगरेप से जुड़े सभी मामलों की जाँच उत्तर प्रदेश से बाहर दिल्ली में सुनवाई का आदेश दिया। इसी के साथ यह ख़बर भी आ गई कि बीजेपी ने अपने इस विधायक को पार्टी से निकाल कर इस मामले से से पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया है। 
हाल ही में लोकसभा में पीठासीन अधिकारी पर की गई अभद्र टिप्पणी की वजह से  समाजवादी पार्टी के आज़म खान को माफ़ी माँगने पर मजबूर किया गया। इस मामले में सबसे आगे बीजेपी ही थी। यह सवाल उठा कि आज़म ख़ान से माफी मँगवाने वाली बीजेपी और उसकी महिला सांसद उन्नाव के गैंगरेप मामले के अभियुक्त कुलदीप सेंगर पर चुप्पी साधे हुए हैं। मीडिया में इस मामले के तूल पकड़ने के बाद बीजेपी ने सेंगर को बाहर का रास्ता दिखाया है।
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मामला एम. जे. अकबर का

अब सवाल यह है कि कुलदीप सेंगर को पार्टी से निकालने वाली बीजेपी पूर्व पत्रकार और पूर्व विदेश मंत्री एम. जे. अकबर के ख़िलाफ़ कब कार्रवाई करेगी? पिछले साल 'मी टू' अभियान के तहत 20 से ज्यादा महिला पत्रकारों ने अकबर पर यौन शोषण के आरोप गंभीर आरोप लगाए थे। इन आरोपों के चलते  अकबर को विदेश राज्य मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके ख़िलाफ़ आरोपों की जांच के लिए मंत्रियों का एक समूह गठित किया था। बाद में इसे चुपचाप विघटित भी कर दिया गया। एमजे अकबर के ख़िलाफ़ न पार्टी ने कोई कार्रवाई की और ना ही किसी थाने में उनके ख़िलाफ़ कोई केस दर्ज हुआ। 
आज़म ख़ान मामले पर संसद में चल रही बहस के दौरान असदउद्दीन ओवैसी ने अकबर के ख़िलाफ़ कार्रवाई का मामला उठाकर बीजेपी की बोलती बंद कर दी थी।
उन्होंने लोकसभा स्पीकर से आज़म ख़ान के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की मांग के साथ-साथ सरकार से अकबर के ख़िलाफ़ भी कड़ी कार्रवाई की मांग की थी।उस वक्त लोकसभा में यह मामला दब गया था। लेकिन अब कुलदीप सेंगर के ख़िलाफ़ हुई कार्रवाई के बाद अकबर का मामला एक बार फिर उठ सकता है।
अकबर अकेले ऐसे मंत्री नहीं थे, जिन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा था। 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली सरकार में राजस्थान से जीते बलात्कार के अभियुक्त निहालचंद मेघवाल को मंत्री बनाया था।
तब इसे लेकर मोदी सरकार की काफ़ी आलोचना हुई थी। कांग्रेस ने मोदी सरकार को इस मामले पर कई बार घेरा था। लेकिन उनके पीएम मोदी ने उन्हें ना मंत्रिमंडल से निकाला न ही कोई दूसरी कार्रवाई हुई। बाद में मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल के दौरान मोदी ने मेघवाल को बाहर का रास्ता दिखा दिया था।

दूसरे दलों में भी ऐसे लोग

बलात्कार के अभियुक्तों से सिर्फ़ बीजेपी को लगाव है, ऐसा नहीं है। दूसरी पार्टियों में भी ऐसे सांसद और विधायक मौजूद हैं, जिन पर बलात्कार या महिला विरोधी अपराधों में मुक़दमे चल रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में 2012 में बनी अखिलेश यादव की सरकार में बलात्कार के दो अभियुक्त मंत्री बने थे। आज दोनों ही जेल में हैं।
उत्तर प्रदेश के खनन मंत्री रहे गायत्री प्रसाद प्रजापति पर बलात्कार के आरोप है। हालांकि कुछ ही दिन पहले बलात्कार के आरोप लगाने वाली महिला ने अपनी शिकायत वापस ले ली।
अखिलेश यादव की सरकार में मंत्री रहे बिजनौर के नगीना से विधायक मनोज पारस पर भी गैंगरेप का आरोप था। लेकिन आरोपों की अनदेखी करते हुए अखिलेश ने न सिर्फ उन्हें मंत्री बनाया, बल्कि उनका बचाव भी किया।
वह अखिलेश सरकार में करीब 3 साल मंत्री रहे। जब पीड़िता की याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मनोज पारस के ख़िलाफ़ वारंट जारी किए, तब अखिलेश ने उन्हें मंत्रिमंडल से हटाया। आज मनोज पारस इसी  मामले में उत्तराखंड की नैनी जेल में बंद है।

ऐसों को टिकट क्यों?

सवाल यह है कि संसद में महिला सम्मान के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने वाले तमाम राजनीतिक दल ऐसे बलात्कार या यौन शोषण के आरोपियों को टिकट देते ही क्यों हैं? ऐसे लोग राजनीतिक पार्टी से जुड़ कर विधायक या सांसद बनने के बाद अपने ख़िलाफ़ चल रहे मुकदमों में पुलिस पर दबाव डाल कर केस कमज़ोर कर देते हैं। ज़्यादातर मामलों में  पीड़िता पर दबाव डाल कर शिकायत वापस करा देते हैं। गायत्री प्रसाद प्रजापति का मामले में ऐसा ही हुआ है। मनोज पारस ने भी पीड़िता पर शिकायत वापस लेने का खूब दवा डाला था, लेकिन पीड़िता उसके दबाव में झुकी नहीं।

सांसदों और विधायकों के आपराधिक रिकॉर्ड पर नज़र रखने वाली संस्था एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 5 साल में मान्यता प्राप्त पार्टियों की तरफ से बलात्कार के 26 अभियुक्तों को टिकट दिए गए।
इन पार्टियों ने 327 ऐसे  लोगों को उम्मीदवार बनाया, जिनके ख़िलाफ़ महिला विरोधी अपराधों में मामले दर्ज थे। ऐसे दाग़ी नेताओं को टिकट देने के मामले में बीजेपी नंबर एक पर है तो बीएसपी नंबर दो पर। बीजेपी ने जहाँ ऐसे 47 दाग़ी नेताओं को टिकट दिए, बीएसपी ने 35 ऐसे दाग़ी नेताओं को अपना उम्मीदवार बनाया। वहीं कांग्रेस ने भी 24 ऐसे दाग़ी नेताओं को लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा का टिकट देने में कोई कोताही नहीं की, जिनके ख़िलाफ़ महिला विरोधी अपराधों में मुक़दमे दर्ज थे। 

क्या कहते हैं चुनाव हलफ़नामे?

एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले 5 साल में लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ने वाले 4,896 उम्मीदवारों में से 4,845 के हलफ़नामों का अध्ययन किया है। इनमें लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले 776 में से 768 उम्मीदवारों और विधानसभा चुनाव लड़ने वाले 4,120 मैं इसे 4,077 उम्मीदवार शामिल हैं।
इस अध्ययन से पता चलता है कि 1,580 यानी करीब 33% सांसद और विधायकों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 48 के ख़िलाफ़ महिला विरोधी अपराधों में मुक़दमें दर्ज हैं। इनमें में 45 विधायक हैं और तीन सांसद। महिला विरोधी अपराधों में जिन सांसदों और विधायकों पर मुकदमे दर्ज हैं उनमें सबसे ज्यादा बीजेपी के 12,  शिवसेना के 7 और तृणमूल कांग्रेस के 6 हैं।
मौजूदा लोकसभा के 539 सदस्यों में से 233 सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। हालांकि इनमें अभी यह साफ़ नहीं है कि कितने सांसदों के ख़िलाफ़ महिला विरोधी अपराधों में मुकदमे दर्ज हैं। लेकिन यह आंकड़ा करीब 43% बैठता है।
आपराधिक छवि वाले माननीय सांसदों की तादाद में पिछली लोकसभा के मुकाबले 26% का इजाफ़ा हुआ है। मौजूदा लोकसभा में बीजेपी के 116 यानी 39% सांसद तो कांग्रेस के 29 यानी 57% सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज है। वहीं जनता दल यूनाइटेड के 13 यानि 81% सांसद, एडीएमके 10 और तृणमूल कांग्रेस के 9 सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं।

पिछले कई दशक से राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए कड़े कदम उठाए जाने के बात हो रही है। लेकिन न तो कोई सरकार इसके प्रति गंभीर दिखती है और न ही राजनीतिक दल। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के दिशा निर्देशों के बावजूद राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को टिकट देने में कोताही नहीं बरतते। उन्हें हर हालत में जीत चाहिए होती है। कुलदीप सेंगर का ही उदाहरण ले लीजिए। वह उत्तर प्रदेश की मौजूदा विधानसभा में बीजेपी के सदस्य हैं। 2007 और 2012 में वह समाजवादी पार्टी के टिकट पर विधायक बने थे। इससे पहले 2002 में बीएसपी के टिकट पर वह चुनाव जीते थे। 

जब देश में महिला सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है और केंद्र से लेकर राज्य सरकारें तक इसके प्रति अपनी चिंता व्यक्त कर रही हैं, ऐसे में राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे टिकट देते वक़्त कम से कम इस बात का ध्यान रखें कि महिला विरोधी अपराधों में लिप्त नेताओं को विधानसभा और लोकसभा का टिकट न दें। ऐसा क़दम उठाकर ही महिला विरोधी अपराधों में शामिल नेताओं को संसद और विधानसभा में पहुंचने से रोका जा सकता है। 

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यूसुफ़ अंसारी
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