Presidential Reference Hearing: केंद्र के अनुसार यदि राज्यपाल बिल को रोकते हैं और वह बिल ख़त्म हो जाता है, तो मनी बिल का क्या होगा? क्या यह संवैधानिक प्रक्रिया को निष्प्रभावी नहीं कर देगा? जानें सुप्रीम कोर्ट ने क्या क्या सवाल उठाए।
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सुनवाई के दौरान केंद्र की दलीलों पर कड़ी टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि यदि राज्यपालों को विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों को मंजूरी रोकने का खुली छूट है तो इसमें कुछ हद तक दिक्कतें हैं क्योंकि इससे मनी बिल सहित सभी प्रकार के बिलों को रोका जा सकता है। अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 200 की व्याख्या करते हुए यह बात कही। यह अनुच्छेद राज्यपालों को बिलों पर मंजूरी देने, रोकने या राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजने की शक्ति देता है।
यह मामला राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सुनवाई पर आया। प्रेसिडेंशियल रेफरेंस से राष्ट्रपति किसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की राय मांग सकते हैं। इस मौजूदा प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में कोर्ट से पूछा गया है कि क्या राज्यपालों और राष्ट्रपति को बिलों पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा निर्धारित की जा सकती है। यह प्रेसिडेंशियल रेफरेंस अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद आया, जिसमें तमिलनाडु के मामले में कोर्ट ने राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए बिलों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित की थी। कोर्ट ने तब कहा था कि राज्यपाल बिलों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते और राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 के तहत तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।
सुनवाई पांच जजों की संवैधानिक पीठ द्वारा की जा रही है। इसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई कर रहे हैं। पीठ में जस्टिस सूर्य कांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिम्हा और अतुल एस. चंदुरकर शामिल हैं। केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास बिल को मंजूरी देने, रोकने, राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजने या विधानसभा को पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के चार विकल्प हैं।
सुप्रीम कोर्ट की चिंता
सुनवाई के दौरान जस्टिस नरसिम्हा ने केंद्र के इस तर्क पर सवाल उठाया कि यदि राज्यपाल बिल को रोकते हैं, तो वह बिल अपने आप ख़त्म हो जाता है। कोर्ट ने कहा कि यदि राज्यपालों को बिलों को अनिश्चितकाल तक रोकने की शक्ति दी जाती है तो इससे निर्वाचित सरकारें राज्यपालों की मर्जी पर निर्भर हो जाएंगी। कोर्ट ने इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए खतरनाक करार दिया।
कोर्ट ने विशेष रूप से इस बात पर चिंता जताई कि यदि राज्यपालों को बिलों को रोकने का पूरा अधिकार है तो वे वित्तीय बिलों को भी रोक सकते हैं, जो राज्य सरकारों के लिए बेहद अहम होते हैं।
जस्टिस नरसिम्हा ने पूछा, 'यदि राज्यपाल बिल को रोकते हैं और वह ख़त्म हो जाता है, तो मनी बिल का क्या होगा? क्या यह संवैधानिक प्रक्रिया को निष्प्रभावी नहीं कर देगा?' कोर्ट ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 200 में 'जितनी जल्दी हो सके' फ्रेज तात्कालिकता को दिखाता है और राज्यपालों को बिलों पर अनिश्चितकाल तक चुप्पी साधने नहीं दिया जा सकता है।
केंद्र का तर्क
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र की ओर से तर्क दिया कि अनुच्छेद 200 और 201 में कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है और यह राज्यपालों और राष्ट्रपति का 'उच्च विशेषाधिकार' है। उन्होंने कहा कि कोर्ट को समयसीमा निर्धारित करके संवैधानिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मेहता ने यह भी तर्क दिया कि यदि संविधान में समयसीमा का उल्लेख होता तो वह साफ़ तौर पर शामिल की जाती, जैसा कि अनुच्छेद 201 में राष्ट्रपति द्वारा बिल वापस करने पर विधानसभा के लिए छह महीने की समयसीमा के मामले में है।
मेहता ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि के कार्यों का बचाव करते हुए कहा कि राज्यपाल ने बिलों पर निर्णय लिया था, भले ही वह देरी से हुआ हो। उन्होंने कोर्ट से कहा कि संविधान की व्याख्या सबसे खराब उदाहरणों के आधार पर नहीं की जानी चाहिए।
तमिलनाडु राज्यपाल का मामला क्या
यह विवाद तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर.एन. रवि के बीच लंबित बिलों को लेकर हुआ था। 2023 में तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि राज्यपाल ने 10 बिलों पर तीन साल से अधिक समय तक कोई कार्रवाई नहीं की थी। इन बिलों को विधानसभा ने दोबारा पारित किया था, लेकिन राज्यपाल ने इन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए भेज दिया था।
8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि राज्यपालों को बिलों को अनिश्चितकाल तक लंबित रखने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करते हुए यह सुनिश्चित किया कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को बिलों पर सही समय में निर्णय लेना होगा। कोर्ट ने यह भी साफ़ किया कि यदि विधानसभा किसी बिल को फिर से पारित करती है तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी होगी, और वह इसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी और चल रही सुनवाई भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या को स्पष्ट करने की दिशा में एक अहम कदम है। यदि राज्यपालों को बिलों को अनिश्चितकाल तक रोकने की शक्ति दी जाती है, तो यह न केवल विधायी प्रक्रिया को बाधित करेगा, बल्कि लोकतांत्रिक शासन को भी कमजोर करेगा। कोर्ट का अंतिम फैसला इस बात को निर्धारित करेगा कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों को समयसीमा के दायरे में लाया जा सकता है, और यह भारत के संघीय ढांचे को और मजबूत करने में अहम भूमिका निभाएगा।