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क्या शिवसेना को बचा पाएंगे उद्धव ठाकरे? 

यह सवाल राजनीति में रुचि रखने वाले हर इंसान के ज़ेहन में चल रहा है और चर्चा का विषय भी बना हुआ है। कारण यह कि महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार के हाथों से सिर्फ सत्ता ही नहीं गयी अपितु संगठन भी खिसकने की प्रबल आशंकाएं नजर आ रहीं हैं।

दो तिहाई विधायकों की बगावत के बाद आधे से ज्यादा सांसदों का टूटना और बागियों द्वारा नयी राष्ट्रीय कार्यकारिणी का गठन कर अपने आपको "असली शिवसेना " होने का दावा करना तथा शिवसेना भवन पर कब्ज़ा करने की बातें करना बहुत से सवाल खड़े कर रहा है। 

एकनाथ शिंदे के साथ बग़ावत करने वाले विधायकों की पहचान क्या होगी ? यह सवाल अब गौण सा हो गया है। सवाल यह खड़ा हो गया है कि इतनी बड़ी संख्या में चुने हुए जनप्रतिनिधि एक साथ आकर क्या " शिवसेना " पर आधिपत्य जमा लेंगे? या फिर अपने शिव सैनिकों के दम पर उद्धव ठाकरे, शिवसेना प्रमुख का ताज़ और महाराष्ट्र की राजनीति के सत्ता का केंद्र माने जाने वाले " मातोश्री " या दादर स्थित शिवसेना का जलवा बरकरार रख पाएंगे ? 

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मुख्यमंत्री पद छोड़ते समय उद्धव ठाकरे ने सबसे प्रमुखता से जिस बात को प्रधानता दी थी  वह थी, शिवसेना प्रमुख। उन्होंने कहा था, “सरकारें आती जाती रहती हैं लेकिन मैं आपका शिवसेना प्रमुख हूँ। पार्टी संगठन को मजबूत करना है और कल से मैं शिवसेना भवन में पहले की तरह ही आता रहूंगा।”

शायद उद्धव ठाकरे ने उस वक्त यह कल्पना भी नहीं की होगी कि विरोधकों की रणनीति सिर्फ सरकार गिराने तक ही सीमित नहीं है। यह ऑपरेशन अन्य राज्यों में गैर भाजपाई सरकारों को अपदस्थ करने के लिए विधायकों की बग़ावत करवाने वाले कथित "ऑपरेशन लोटस " से कहीं ज्यादा व्यापक और कूटनीतिक है। क्योंकि यहाँ पर निशाने पर सिर्फ सत्ता ही नहीं है। 

शिवसेना में हुई इस बग़ावत का तानाबाना " हिंदुत्व " शब्द पर बुना गया है। इस शब्द पर भारतीय जनता पार्टी अपना एकाधिकार जमाये रखना चाहती है क्योंकि उसे पता है कि दिल्ली से लेकर गली मौहल्ले की सत्ता हांसिल करने में इस शब्द की बड़ी भूमिका है।

गठबंधन टूटने के बाद से उसे कहीं ना कहीं इस बात का ख़लल था कि शिवसेना महाराष्ट्र में उनके " हिंदुत्व कार्ड " को निष्क्रिय कर रही है। लोकसभा सदस्यों का संख्या बल देखें तो उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है और 2014 और 19 में भाजपा शिवसेना गठबंधन को यहां पर ऐसी अप्रत्याशित सफलता मिली जो आजतक कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस नहीं हांसिल कर सकी। 

महाराष्ट्र के इस राजनीतिक भूचाल में भारतीय जनता पार्टी का हाथ नहीं है यह कहना एक बचकाना तर्क ही कहा जाएगा। जब से शिवसेना ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर प्रदेश में सत्ता का नया समीकरण निर्धारित किया तबसे ही भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना को हिंदुत्व के मुद्दे पर घेरने की हर संभव कोशिश की। पालघर में कोरोना काल (लॉक डाउन ) के दौरान दो साधुओं की ग्रामीणों द्वारा पीटकर मार डालने की घटना हो या मंदिरों को पूजा पाठ  के लिए खोलने का मुद्दा। भारतीय जनता पार्टी ने उस समय ना सिर्फ विरोध किया अपितु घरों से बाहर निकलकर आंदोलन भी किया। भले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टेलीविजन चैनल पर आकर देश की जनता से " दो गज दूरी " की अपील करते थे लेकिन महाराष्ट्र में आंदोलन हुए। मसजिदों पर लगे माइक हों या हनुमान चालीसा का मुद्दा भाजपा ने उद्धव ठाकरे और उनकी शिवसेना को हिंदुत्व के मुद्दे पर घेरा। 

Maharashtra political crisis Eknath Shinde and Uddhav Thackeray faction - Satya Hindi

यही नहीं एकनाथ शिंदे ने भी जब शिवसेना से बग़ावत की तो यही बात कही कि पार्टी बालासाहब ठाकरे और उनके राजनीतिक गुरु आनंद दिघे के हिंदुत्व के एजेंडे से भटक गयी है। इन आक्रमणों का जवाब शिवसेना ने हमेशा यह कहते हुए दिया कि उनका हिंदुत्व वैसा नहीं है जैसा भाजपा प्रचारित करती है। दरअसल शिवसेना का जन्म जिन परिस्थितियों में हुआ उस समय देश में हिंदुत्व की राजनीति हाशिये पर पडी हुई थी। 

शिवसेना की स्थापना के जड़ में  " मराठी माणूस " रहा है। बॉम्बे प्रेसिडेंसी के महाराष्ट्र और गुजरात में बंटवारे और मुंबई किस प्रदेश का हिस्सा रहेगी, उसको लेकर चले आंदोलन। महाराष्ट्र की सत्ता, राजकाज, भाषा संस्कृति, कारोबार में गैर-मराठी लोगों के बढ़ते प्रभाव के ख़िलाफ़ एक आंदोलन के रूप में इस पार्टी का उदय हुआ। मुंबई में बाहरी लोग हावी हो रहे थे और उनके हावी होने से मराठी लोगों की स्थिति महाराष्ट्र में ही कमजोर पड़ रही थी, इस सूत्र को साधकर शिवसेना आगे बढ़ी। महाराष्ट्र को गैर-मराठी भाषियों के वर्चस्व से बचाए रखने का शिवसेना ने लोगों से वादा किया और उनके लिए सडकों पर संघर्ष भी।

शिवसेना का उभार 

मुंबई चूंकि एक समय बॉम्बे प्रेसिडेंसी का प्रशासनिक केंद्र था और गुजराती, पारसी तथा मारवाड़ी व्यापारी यहां के व्यापार पर हावी थे, इसलिए यहां मराठी भाषी लोगों का संपत्ति के स्रोत पर नियंत्रण नहीं के बराबर था। यही नहीं मुंबई में अंग्रेजी भाषी दक्षिण भारतीय लोगों का खासा दबदबा रहा। ट्रेड यूनियनों पर भी जॉर्ज फर्नांडीस जैसे गैर-मराठी लोग हावी थे। इन सबके खिलाफ ही शिवसेना का उभार हुआ, जिसने सबसे पहले ट्रेड यूनियनों को तोड़ा और इसके लिए मराठी अस्मिता का मुद्दा उठाया गया। इसके बाद शिवसेना ने दक्षिण भारत के लोगों को निशाना बनाया। 

दक्षिण भारतीय लोग क्लर्क, असिस्टेंट, स्टेनोग्राफर, एकाउंटेंट जैसे जॉब में छाए हुए थे। शिवसेना मराठी भाषी युवाओं को ये समझाने में कामयाब रही कि जो नौकरियां मराठी युवकों को मिलनी चाहिए, उन नौकरियों पर दक्षिण भारत के लोगों ने कब्जा कर लिया है। इस दौरान  उत्तर भारत, खासकर यूपी और बिहार के लोगों ने मुंबई का रुख किया।

Maharashtra political crisis Eknath Shinde and Uddhav Thackeray faction - Satya Hindi

मराठी माणुस का नारा

शिवसेना ने उनका भी विरोध किया और "मराठी माणुस" का अपना आधार मजबूत करती गयी। लेकिन वह प्रदेश की सत्ता में आने में सफल नहीं हो सकी। लेकिन जब लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर आंदोलन को परवान चढ़ाया तो शिवसेना ने अपनी पुरानी वैचारिक भावनात्मक अपील काफी हद तक कम कर दी। स्वयं बालासाहब ठाकरे ने भी अपने साक्षात्कारों में इस बात को कहा है कि पार्टी का विस्तार करने के लिए उन्होंने 80 के दशक में हिंदुत्व की लाइन पकड़ी। उसके बाद बालासाहब का नया अवतार  " हिन्दू हृदय सम्राट " के रूप में हुआ। यह  शिव सेना का नया चेहरा था क्योंकि अपने शुरुआती वर्षों में शिवसेना का मुसलमानों से कोई टकराव नहीं था, बल्कि उनका संबंध सामंजस्य का था।  

बीजेपी के साथ आकर शिवसेना ‘मराठी अस्मितावादी पार्टी से हिंदुत्व वाली पार्टी’ बन गई। शिवसेना की ये पहचान महाराष्ट्र विकास आघाड़ी (एमवीए) सरकार बनने तक कायम रही। कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाने के बाद शिवसेना को बार बार हिंदुत्व के एजेंडे पर वार झेलने पड़े। उद्धव और आदित्य ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना ने विकास, गवर्नेंस, पर्यावरण संरक्षण, शहर विकास को अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश की। आरे में मेट्रो कार शेड बनाने का मुद्दा इसका ज्वलंत उदाहरण है।

Maharashtra political crisis Eknath Shinde and Uddhav Thackeray faction - Satya Hindi
मुख्यमंत्री बनने के बाद उद्धव ठाकरे ने उद्योगपतियों का सम्मलेन बुलाकर ये संकेत भी दिए कि उनकी सरकार कारोबारियों के साथ भी खड़ी रहेगी। लेकिन आज उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री नहीं हैं। विरोधी उनसे हिंदुत्व का एजेंडा छीनकर स्वयं को असली शिवसेना होने का दावा कर रहे हैं। शिवसेना युवाओं की पार्टी कही जाती है और उसके युवा कैडर ने पिछले चार दशकों में पार्टी का हिन्दू चेहरा ही देखा है। अपने नेता में हिन्दू ह्रदय सम्राट की छवि देखने वाला शिव सैनिक क्या आज उद्धव ठाकरे के साथ खड़ा रह पायेगा ? इस सवाल का ज़वाब तो वक़्त ही देगा लेकिन कुछ बातें हैं जिनके आधार पर कयास निकाले जा सकते हैं।
शिवसेना एक कैडर आधारित पार्टी है इसलिए विधायकों और सांसदों से ज्यादा अहमियत पार्टी में जिला प्रमुखों की रही है। चुनावों की सारी जवाबदेही पार्टी जिला प्रमुखों को ही देती रही है। जिला प्रमुखों की कितनी अहमियत है इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि बग़ावत के बाद से उद्धव ठाकरे जिला प्रमुखों से चार बार बैठक कर चुके हैं।

इस्तीफ़ा देने के बाद उद्धव ठाकरे ने नए सिरे से संगठन का निर्माण करने की बात कही थी, वह जमीनी स्तर पर कहीं ना कहीं नजर भी आ रहीं हैं। बैठकों और सम्मेलनों का दौर जारी है। लेकिन क्या कैडर पार्टी छोड़कर गए अग्रिम पंक्ति के नेताओं स्थान ले सकेगा ?

 दरअसल वर्तमान में शिवसेना भावनात्मक मुद्दे पर त्रिशंकु की स्थिति में नजर आती है। विरोधी हिंदुत्व का मुद्दा उनसे छीनने का प्रयास कर रहे हैं। भावनात्मक रूप से एक बात उद्धव ठाकरे के पक्ष में है वह है उनके पिता का नाम। इस्तीफे के बाद उद्धव ठाकरे ने यह कहा भी था, बागी नेता अपने बाप का नाम इस्तेमाल करें मेरे बाप के नाम पर वोट नहीं मांगे। दरअसल यह पहली बार नहीं हुआ है जब शिवसेना में फूट पडी हो। साल 1991 में छगन भुजबल ,2005  में नारायण राणे ,2006 में राज ठाकरे ने पार्टी छोड़ी थी। ये तीनों बगावतें उस समय हुई थी जब पार्टी प्रदेश की सत्ता में नहीं थी। लेकिन इस बार का संकट पार्टी के लिए भारी है। 

वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सदस्य कुमार केतकर का कहना है कि महाराष्ट्र में शतरंज की बिसात बदल गयी है। उनके अनुसार हो सकता है उद्धव ठाकरे अभी नहीं जीतें लेकिन बालासाहब की पहचान साथ जुड़े होने का उन्हें फायदा रहेगा। आने वाले चुनावों में एकनाथ शिंदे को बाग़ी या विश्वासघात करने वाले नेता के रूप में ही देखा जाएगा।

वरिष्ठ पत्रकार संतोष प्रधान का मानना है कि , "शिवसेना का डीएनए हिंदुत्व का है। कांग्रेस से गठजोड़ करके उद्धव ठाकरे प्रो-हिंदुत्व भूमिका नहीं ले रहे थे। जबकि शिवसैनिकों के लिए हिंदुत्व प्रमुख है। भाजपा हिंदुत्व को लेकर शिवसेना पर हमले कर रही थी और  इसलिए पार्टी संकट में है। " ‘बाल ठाकरे ऐंड द राइज़ ऑफ़ शिवसेना' के लेखक वैभव पुरंदरे की मानें  तो  वर्तमान में ठाकरे परिवार के नेतृत्व में पार्टी लीडरशिप  कार्यकर्ताओं से कटी हुई थी जिस तरह से शिवसेना ने जम्मू और कश्मीर से धारा 370 हटाने का विरोध किया, 'कश्मीर फ़ाइल्स' फ़िल्म पर हमले किए, इससे पार्टी समर्थक ख़ुश नहीं थे। 

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जबकि राजनीतिक जानकारों की राय इसके विपरीत है। उनके कहना है आप  उद्धव ठाकरे का रिकार्ड देखिए। 2014 में चुनाव के 15 दिन पहले भाजपा ने ये सोचकर नाता तोड़ा था कि उद्धव ठाकरे कुछ नहीं कर पाएंगे और पार्टी ढह जाएगी लेकिन हुआ क्या? उद्धव ठाकरे कांग्रेस और एनसीपी के आगे निकल गए थे और  63 सीटें जीती थी। बीजेपी की 122 सीटें आई थीं यानी 15 दिन में वो भाजपा की आधी शक्ति लेकर आए थे। वो भी ऐसे माहौल में जब भाजपा के पास पैसा और सब कुछ था और उद्धव ठाकरे के पास कुछ नहीं था। 
जो लोग आज उद्धव ठाकरे को सेक्युलर बोलकर कठघरे में खड़ा करने का प्रयास करते हैं, वे इस बात को दरकिनार करते हैं। उद्धव ठाकरे न कभी ज़्यादा मुस्लिम विरोधी रहे, न ही उत्तर-भारतीय विरोधी।

उत्तर भारतीयों में पैठ बनाने के लिए उन्होंने बालासाहब के रहते हुए ही " मी मुंबईकर " मुहिम चलाई थी और मुंबई महानगरपालिका में आज तक पार्टी की सत्ता को बरकरार रखा है। भाजपा ने जब उन पर हिंदुत्व को लेकर हमले किये तो उस समय उद्धव ठाकरे को इस बात पर विश्वास था कि  उनका कार्यकर्ता हिंदुत्ववादी कार्यकर्ता नहीं अपितु मराठी मानुष वाला कार्यकर्ता है।  लेकिन अब ये कार्यकर्ता उनके विश्वास पर मुहर लगाता है या नहीं यह समय बताएगा। 

वर्तमान में परिस्थितियां शिवसेना के अनुकूल नज़र नहीं आ रही। केंद्र सरकार की जांच एजेंसियों पर आरोपों की लम्बी फ़ेहरिस्त है। धनबल के बड़े बड़े आरोप लगे हैं। न्यायपालिका या चुनाव आयोग से भी कोई ख़ासी आस शिवसेना को नहीं है। आने वाले दिनों में मुंबई, ठाणे, नवी मुंबई, कल्याण आदि कई महा नगरपालिकाओं के चुनाव महाराष्ट्र में होने वाले हैं। इन चुनावों में उद्धव ठाकरे की पार्टी का प्रदर्शन यह बता देगा की शिवसेना असली किसकी है।  वैसे उद्धव ठाकरे ने कई राजनीतिक लड़ाईया अच्छे से जीती हैं लेकिन इस बार का संकट बाहरी से ज्यादा गहरा और अंदरूनी है। 

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संजय राय
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