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अदालत में दिलीप कुमार ने कहा था- मुझे मधुबाला से मुहब्बत है!

कहने में रटी-रटाई सी बात लगती है लेकिन उनका जाना सचमुच एक युग का अंत है। मृत्यु दुखद है। शतायु होते तो अच्छा होता लेकिन उम्र के किसी भी आँकड़े से ऊपर, अपनी अदाकारी के बूते पर दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के इतिहास में ही नहीं, दुनिया के सिनेमा में अमर हो चुके हैं।
अमिताभ

प्रेम कितना जटिल और जानलेवा हो सकता है/होता है, यह अगर आपके जीवन में घटा है तो भी और नहीं घटा है तो भी ; दिलीप कुमार की अदाकारी उस अनुभव को जितनी सघनता से दिखाती है, शायद ही हिंदी सिनेमा में कोई दूसरा अभिनेता कर पाया हो। कुंदन लाल सहगल उनसे पहले देवदास बन चुके थे, शाहरुख़ ख़ान ने उनके बरसों बाद देवदास का किरदार निभाया लेकिन शरत चंद्र के देवदास का अक्स दिलीप कुमार के चेहरे पर जितना प्रामाणिक लगा उतना कहीं और नहीं।

दिलीप कुमार शायद इकलौते अभिनेता हैं जिन्होंने एक्टिंग की क्राफ्ट को एक मिस्टिकल टच देकर उसका रुतबा बढ़ाया है। प्रेम में नाकामी, जीवन की त्रासदी और मृत्यु को इतना आकर्षक बना देना कि लोग किसी नाकाम इन्सान के किरदार से बेपनाह मुहब्बत करने लग जाएँ, यह सिर्फ़ और सिर्फ़ दिलीप कुमार ने बहुत प्रामाणिक ढंग से किया और ऐसा लगातार करते हुए अदाकारी को एक ऐसी तिलिस्मी ऊँचाई दे दी जहाँ पहुँचना किसी भी अभिनेता का सपना तो हो सकता है लेकिन जहाँ पहुँच पाना सबके बस की बात नहीं।

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देवदास, नया दौर, दाग, अंदाज़, दीदार, अमर, पैगाम, कोहिनूर, उड़नखटोला, राम और श्याम, मधुमती, मुग़ल-ए-आज़म, आदमी, शक्ति, मशाल यादगार फ़िल्में ही नहीं हैं, अदाकारी की वो किताबें हैं जिन्हें देखकर जाने कितने अभिनेताओं ने दिलीप कुमार जैसा बनने का सपना देखा। शायद ही कोई एक्टर होगा जिसकी परछाइयों (मनोज कुमार, राजेंद्र कुमार) के हिस्से में भी अपने अपने ढंग से लोकप्रियता का भरपूर उजाला आया हों। ट्रेजेडी के दृश्यों में अमिताभ बच्चन की अदाकारी पर भी दिलीप कुमार का असर साफ़ दिखता है। अपनी श्रद्धांजलि में उन्होंने ठीक ही कहा कि दिलीप कुमार एक संस्थान थे।

पेशावर में 22 दिसंबर 1922 को जन्मे दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ 1944 में आई थी। बॉम्बे टाकीज़ के बैनर तले। जिसकी मालकिन थीं देविका रानी।

हिमांशु राय की मौत के बाद जब बॉम्बे टॉकीज़ दो टुकड़ों में बँटा और स्टूडियो के लिए बतौर हीरो काम करने वाले अशोक कुमार बॉम्बे टाकीज़ छोड़कर फिल्मिस्तान चले गये तो देविका रानी को अपनी कंपनी के लिए हीरो ढूंढने की फिक्र सताने लगी। ऐसे में एक दिन यूसुफ़ ख़ान नाम के एक नौजवान से उनकी मुलाक़ात हुई। बात आगे बढ़ी। चेहरा-मोहरा, कद-काठी तो देविका रानी को पसंद आ गये लेकिन नाम नहीं जंचा।

यूसुफ़ ख़ान अपना नाम बदलने के हक में नहीं थे लेकिन अपने कड़क पठान पिता से फ़िल्मों में काम करने की बात छुपाने के लिए, अपनी पहचान छुपाने की ज़रूरत की वजह से मान गये।

कंपनी में काम कर रहे गीतकार और लेखक पंडित नरेंद्र शर्मा ने तीन नाम सुझाये- वासुदेव, जहांगीर और दिलीप कुमार। यूसुफ़ को जहांगीर नाम पसंद आया लेकिन उसी कंपनी में काम कर रहे मशहूर हिंदी साहित्यकार भगवती चरण वर्मा ने दिलीप कुमार नाम चुना। देविका रानी ने इस पर मुहर लगा दी। और इस तरह यूसुफ़ ख़ान दिलीप कुमार बन गये।

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1944 से लेकर 1998 तक 54 साल के करियर में दिलीप कुमार ने 60 फ़िल्मों में काम किया। 1948 में ही एक साल के भीतर पाँच फ़िल्में आईं। उसके बाद उन्होंने कभी एक साल में दो या तीन फ़िल्मों से ज़्यादा काम नहीं किया। 1948 से लेकर 1961 के 13 बरसों में उनकी 31 फ़िल्में आईं। दिलीप कुमार को 8 बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर सम्मान मिला लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि उन्हें एक बार भी राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं मिला। दादा साहेब फाल्के सम्मान के अलावा पाकिस्तान के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय नागरिक सम्मान ‘निशाने इम्तियाज़’ से भी सम्मानित हुए। ‘निशाने इम्तियाज़’ को स्वीकार करने के लिए उनकी आलोचना भी हुई थी और हिंदुत्ववादियों ने उनको निशाना बनाया था।
remembering veteran actor dilip kumar  - Satya Hindi

दिलीप कुमार ने सबसे ज़्यादा फ़िल्में नरगिस और वैजयंती माला के साथ की थीं। उनका नाम शुरुआत में क़ामिनी कौशल के साथ भी जुड़ा लेकिन मधुबाला के साथ उनकी मुहब्बत को हिंदी सिनेमा के रसीले रोमांटिक क़िस्सों में एक महाकाव्यात्मक प्रेम कहानी का दर्जा हासिल है जो दिलीप कुमार की ही किसी फ़िल्मी त्रासदी की ही तरह असल ज़िंदगी में मुकम्मल न हो सकी। दिलीप कुमार ने भरी अदालत में अपनी गवाही के दौरान मधुबाला से मुहब्बत का सरेआम इक़रार किया था।

मुग़ल-ए-आज़म का एक-एक सीन यादगार है। सलीम अनारकली का वह अमर प्रेम दृश्य तो ख़ैर अमर है ही, जहाँ अनारकली को लेकर शहंशाह अकबर और शहज़ादे सलीम के बीच टकराव हुआ है, वे सारे दृश्य अपनेआप में बेमिसाल हैं। बाप-बेटे के टकराव का चरम जंग के मैदान में होता है लेकिन उससे पहले जब अकबर सलीम को समझाने और उससे मिलने उसके खेमे में जाते हैं और पिता पुत्र के साथ सम्राट और बाग़ी शहज़ादे के दोहरे किरदार में जो बातचीत होती है, उस सीन में दिलीप कुमार और पृथ्वीराज कपूर के बीच का टकराव शानदार अभिनय की एक यादगार मिसाल है। उस सीन में एक जगह शहजा़दे सलीम बने दिलीप कुमार अकबर यानी पृथ्वीराज कपूर पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं- ‘शहंशाह बाप का भेस बदल कर बोल रहा है।’

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जो लोग फ़िल्में ग़ौर से देखते हैं उन्हें शायद याद आ जाए कि यही संवाद मुग़ल-ए-आज़म के बरसों बाद अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ‘दीवार’ में दोहराया गया। शशि कपूर और अमिताभ बच्चन के बीच एक तनावपूर्ण दृश्य में। बस थोड़े से फ़र्क़ के साथ। शहंशाह की जगह मुजरिम और बाप की जगह भाई, क्योंकि यह संवाद ‘दीवार’ में इंस्पेक्टर बने शशि कपूर अपने स्मगलर भाई अमिताभ बच्चन से कहते हैं। टकराव वाले अलग-अलग रास्तों पर चल रहे दोनों भाई उसी पुल के नीचे मिलते हैं जहाँ दोनों ने अपना अभावग्रस्त बचपन एक साथ गुज़ारा था।

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खैर, बात फिल्म ‘मुग़ले आज़म’ में बाप और बेटे के टकराव वाले दृश्य के बहाने दिलीप कुमार की हो रही थी। बातचीत में तनाव इस हद तक बढ़ जाता है कि सलीम अपने पिता के ख़िलाफ़ तलवार निकाल लेता है। पिता जो कि मुल्क का शहंशाह भी है, बादशाही अकड़ से सीना तानता है लेकिन उसी सेकेंड के सौंवे हिस्से में कमज़ोर बाप का कंधा झुकता है, आँखों में अविश्वास सा कौंधता है  और हल्की सी व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट के साथ पृथ्वीराज कपूर दिलीप कुमार से कहते हैं-‘शेखू, क्या इसी दिन के लिए माँगा था तुम्हें?’

झुँझलाया सलीम तलवार फेंक देता है। ग़ुस्सा, शर्मिंदगी, झुँझलाहट - ये सारे मिलेजुले भाव दिलीप कुमार के चेहरे पर तेज़ी से आते हैं। 

दिलीप कुमार तो ख़ैर दिलीप कुमार हैं, लेकिन इस सीन में पृथ्वीराज कपूर ने अद्वितीय अभिनय किया है।

अब मुग़ल-ए-आज़म के बरसों बाद बनी ‘शक्ति’ का एक सीन जहाँ दिलीप कुमार सख़्त अनुशासन प्रिय पिता की भूमिका में हैं और अमिताभ बच्चन उनके बाग़ी बेटे बने हैं।

पिता पुलिस अफ़सर है, बेटा स्मगलर। स्मगलर के ठिकाने पर पुलिस धावा बोलती है और बेटे की पिस्तौल पिता की तरफ़ तनी नज़र आती है। बाप-बेटे की आँखें मिलती हैं और एक बार फिर बेटा हथियार फेंक देता है।

अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’ में दिलीप कुमार की ‘गंगा जमुना’ का अक्स देखा जा सकता है।

कहने में रटी-रटाई सी बात लगती है लेकिन उनका जाना सचमुच एक युग का अंत है। मृत्यु दुखद है। शतायु होते तो अच्छा होता लेकिन उम्र के किसी भी आँकड़े से ऊपर, अपनी अदाकारी के बूते पर दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के इतिहास में ही नहीं, दुनिया के सिनेमा में अमर हो चुके हैं।

बिमल रॉय की देवदास का वो सीन याद करिए -शराब का गिलास हाथ में लिए नशे में डूबी थोड़ी ऊँची आवाज़ में देवदास यह कहता है- कौन कमबख्त बर्दाश्त करने के लिए पीता है। बैलगाड़ी हाँक रहे गाड़ीवान से दिलीप कुमार जब कहते हैं -अरे भाई ये रास्ता क्या कभी ख़तम नहीं होगा तो देवदास के अभागेपन, उसकी व्यथा, उसके अकेलेपन की पीड़ा मन को बहुत गहरे तक बींध जाती है। हिंदी सिनेमा में प्रेम की पीड़ा का ऐसा मार्मिक, मोहक और विश्वसनीय मायालोक रचने वाला सिर्फ़ एक ही शख्स है- दिलीप कुमार। अशोक कुमार, बलराज साहनी और संजीव कुमार के अभिनय में भी बहुत सहजता थी, मोतीलाल भी माने हुए मास्टर थे सहज अभिनय के स्कूल के और निस्संदेह अमिताभ बच्चन में बहुत विविधता है लेकिन दिलीप कुमार फिर भी दिलीप कुमार हैं। उनका कोई सानी नहीं। कतार वहीं से शुरू होती है जहाँ वो खड़े हैं, खड़े रहेंगे क़यामत तक।
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