मामला चाहे जामिया के छात्रों के प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा का हो या नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में हुए आंदोलनों के दौरान हुई आगजनी का। सुप्रीम कोर्ट अगर इन मामलों में जल्द सुनवाई शुरू कर देता तो इससे हिंसा को रोका जा सकता था। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में मामला होने के कारण लोगों को फ़ैसले का इंतजार रहता और न्याय मिलने की उम्मीद भी होती। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ और हिंसा और पुलिस की ज़्यादतियों के बीच ऐसा लगता है कि देश में एक युद्ध छिड़ गया है।
बोबड़े के दोनों बयान हालाँकि हिंसा के मामलों से जुड़े हैं लेकिन जामिया और बाक़ी मामलों में दायर याचिकाओं में अंतर है। जामिया के केस में वकील पुलिस की ज़्यादतियों की शिकायत करने गए थे और उस मामले में आंदोलनकारियों द्वारा की गई हिंसा कोर्ट के लिए एक मुद्दा बन सकती है। लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून से जुड़ी जितनी भी याचिकाएँ हैं, वे आंदोलन या हिंसा के बारे में नहीं हैं बल्कि इस क़ानून की संवैधानिक वैधता के बारे में है। जैसा कि बोबड़े ने गुरुवार को ख़ुद भी कहा है कि कोर्ट का काम किसी क़ानून को संवैधानिक घोषित करना नहीं बल्कि उसकी संवैधानिक वैधता की जाँच करना है। जब मुख्य न्यायाधीश मानते हैं कि यही उनका काम है तो नागरिकता संशोधन क़ानून के संबंध में उन्हें यह काम जल्द-से-जल्द करना चाहिए था।
यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट नागरिकता क़ानून को लेकर हो रही हिंसा से चिंतित है और वह चाहता है कि यह हिंसा जल्द-से-जल्द रुके। लेकिन ऐसा करने के लिए उसे सुनवाई टालने के बजाय सुनवाई जल्द-से-जल्द करनी चाहिए थी। यदि कोर्ट ऐसा करता तो हो सकता है कि हिंसा होती ही नहीं।
कोई भी लड़ाई, चाहे वह सड़क पर दो व्यक्तियों के बीच हो या दो देशों में, उसे रोकने का सबसे आसान तरीक़ा यही होता है कि विवाद के मुद्दे को जल्द-से-जल्द किसी ऐसे तीसरे पक्ष के हवाले कर दिया जाए जिसपर उन दोनों को विश्वास हो। भारत में सुप्रीम कोर्ट ही वह तीसरा पक्ष है।