मामला चाहे जामिया के छात्रों के प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा का हो या नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में हुए आंदोलनों के दौरान हुई आगजनी का। सुप्रीम कोर्ट अगर इन मामलों में जल्द सुनवाई शुरू कर देता तो इससे हिंसा को रोका जा सकता था। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में मामला होने के कारण लोगों को फ़ैसले का इंतजार रहता और न्याय मिलने की उम्मीद भी होती। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ और हिंसा और पुलिस की ज़्यादतियों के बीच ऐसा लगता है कि देश में एक युद्ध छिड़ गया है।
जिस केंद्र सरकार के विरुद्ध यह हिंसा हो रही है, वह ऐसा कह सकती है कि जब तक हिंसा जारी रहेगी, हम आपकी माँगों पर कोई विचार नहीं करेंगे ताकि ऐसा संदेश न जाए कि लोकतंत्र में कोई हिंसा करके अपनी जायज़-नाजायज़ माँगें मनवा सकता है। अगर केंद्र सरकार ऐसा स्टैंड लेती तो कोई उसे ग़लत नहीं कह सकता था।
कोई भी लड़ाई, चाहे वह सड़क पर दो व्यक्तियों के बीच हो या दो देशों में, उसे रोकने का सबसे आसान तरीक़ा यही होता है कि विवाद के मुद्दे को जल्द-से-जल्द किसी ऐसे तीसरे पक्ष के हवाले कर दिया जाए जिसपर उन दोनों को विश्वास हो। भारत में सुप्रीम कोर्ट ही वह तीसरा पक्ष है।