मोदी सरकार हाल ही महंगाई, ईडी की मनमानी के मुद्दे पर कांग्रेस के आंदोलन से डर गई। मात्र इस आंदोलन से डरने वाली सरकार कितनी मजबूत निकली, वो सामने आ गया। इसी से पता चलता है कि भारत में कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आने पर मनमानी तो कर सकता है लेकिन वो इस मजबूत लोकतंत्र को विलुप्त नहीं कर सकता।
महात्मा गांधी कहा करते थे कि "मृतकों, अनाथों और बेघरों को इससे क्या फर्क पड़ता है, कि मूर्खतापूर्ण विनाश सर्वसत्तावाद के नाम पर किया गया है या स्वतंत्रता व लोकतंत्र के पवित्र नाम पर?" सिर्फ वोट लेकर और चुनाव जीतकर लोकतंत्र को बचाया नहीं जा सकता। लोकतंत्र को लोगों का समूह कहने से बेहतर है इसे स्वतंत्र और शक्तिशाली संस्थाओं के समूह के रूप में परिभाषित किया जाए।
ऐसे में यह जिम्मेदारी सरकार पर आती है। लेकिन जब सरकार अपनी जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दे तो संस्थाओं को वंचितों के बचाव में आना पड़ता है। लेकिन अगर संस्थाएं सिर्फ सरकार के मैंडेट से चलें संविधान और कानून से नहीं, तो सड़क के सिवाय कोई अन्य रास्ता नहीं बचता। शांतिपूर्ण संघर्ष का यह अहिंसक रास्ता ही लोकतंत्र और इसकी संस्थाओं में लग रहे घुन को कुरेद कर निकाल सकता है।
लोकतंत्र कोई मीनार नहीं है कि कुछ लोग धक्का देकर इसे गिरा दें। न ही इसका कोई निश्चित पता है कि चुनी हुई सरकारें ईडी या सीबीआई का छापा डलवा दें। एक बार लोकतंत्र की नींव का पत्थर रख जाए और उस पत्थर के ऊपर 70 सालों तक सफलतापूर्वक ढाँचा खड़ा किया जा सके तो यह लगभग असंभव है कि कोई सरकार या विचार उस ढांचे को कभी समाप्त कर पाएगी।
जनजातीय आधिकारों के लिए जीवन भर लड़ाई लड़ने वाले स्टैन स्वामी की जेल में ही मौत हो जाती है, भीमा कोरेगाँव मामले में उन्हे आरोपी बनाया गया, अभी तक कुछ साबित नहीं हुआ, लेकिन वह बुजुर्ग आदमी देश की न्यायपालिका की ओर आशा की निगाह से देखता रहा गया पर उसे राहत नहीं दी गई। सबसे अधिक उम्र में आतंकवाद के ‘आरोप’ में स्टैन स्वामी जेल में ही मर गए। देश में खुलेआम दल-बदल कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है लेकिन न्यायालय असहाय हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं पर थोक के भाव UAPA लगाया जा रहा है लेकिन न्यायालय खामोश हैं।
कोरोना काल में छात्रों के 2-2 अवसर महामारी की भेंट चढ़ गए लेकिन सरकार और आयोग दोनों असंवेदनशील बने हुए हैं, कोई राहत देने को तैयार नहीं। आयोग एक संवैधानिक संस्था है लेकिन 12 महीनों में प्रारम्भिक परीक्षा के लिए 150 सही प्रश्न तक नहीं बना पाता। औसतन हर साल 10-15 गलत प्रश्न छात्रों की साल भर की मेहनत पर पानी फेर देते हैं। अभी हाल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आयोग की 2021 की सम्पूर्ण परीक्षा ही रद्द कर दी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि आयोग क्या कर रहा है? साथ ही यह भी समझा जा सकता है कि सरकार छात्रों की जायज मांगों के प्रति कितना गंभीर है।
2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष का वादा करने के बाद भी सरकार पिछले 8 सालों मंय कुछ लाख रोजगार ही दे सकी। जब बेरोजगारी के आंकड़ों ने सरकारी मशीनरी की गर्मी बढ़ाई तो बिना सोची समझी योजना ‘अग्निवीर’ के रूप में सामने आई। लाखों छात्रों ने देशभर में प्रदर्शन किया लेकिन सरकार पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वेटेरन लेफ्टिनेंट जनरल प्रकाश कटोच का मानना है कि- सरकार की मंशा सेना की रेजिमेंटल प्रणाली को खत्म करने की है, जो आर्मी की आधारशिला है। यह योजना इतनी जल्दबाजी में क्यों लाई गई?
सेना में अगर इतना व्यापक परिवर्तन करना था तो कम से कम तीनों सेनाओं के जितने भी जीवित मुखिया हैं उनके साथ सलाह मशविरा कर लेते। यह डर कि सबसे मशविरा करने पर योजना पर पानी फिर सकता है, एक कमजोर सरकार का लक्षण हैं। जिस तरह से केंद्र सरकार के सबसे प्रमुख मंत्री खुलेआम सीआईएसएफ को धीरे धीरे खत्म करके सुरक्षा प्राइवेट हाथों में सौंपने की बात करते पाए गए उससे तो यह भी लगता है कि यह योजना सिर्फ कमजोर सरकार की नहीं बल्कि भ्रष्ट सरकार के दृष्टिकोण से आई है।
यूपीए के 10 सालों के दौरान प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मात्र 112 छापे मारे लेकिन वर्तमान सरकार के कार्यकाल में पिछले 8 सालों में ईडी, 3000 से अधिक छापे मार चुकी है। अगर नोटबंदी से काला धन खत्म हो चुका था तो ईडी को इतने छापे क्यों मारने पड़ गए? अगर नोटबंदी के बाद भी देश में फिर से इतना काला धन इकट्ठा हो गया कि लगातार छापे मारने पड़ जाएँ तो इसका मतलब यह है कि सरकार असक्षम और कमजोर है। उसमें भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कोई विजन नहीं है। और अगर काला धन इकट्ठा नहीं हुआ है और नोटबंदी सफल रही है तो इसका मतलब है कि सरकार कमजोर और असुरक्षित है। और अपनी असुरक्षा के कारण विपक्षी दलों के नेताओं को उत्पीड़ित कर रही है। वास्तविकता क्या है यह या तो सरकार स्वयं बताए या जनता उससे पूछे।
जहां देसी उद्योग बर्बाद हो रहा था वहीं कुछ उद्योग घराने 1000 करोड़ रुपया प्रतिदिन कमा रहे थे। यह फैसला दृष्टिहीनता वाली कमजोर सरकार का फैसला था जिसकी कीमत देश के गरीबों और अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ी। आज हालत यह है कि खाने के सामानों -आटा, दालें, दूध और इसके उत्पादों पर जीएसटी 5% है और हीरा उद्योगजिसमें भारी प्रॉफ़िट होता है, इसमें जीएसटी 1.5% है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2021, में 116 देशों में 101वें स्थान पर रहने वाले भारत में ऐसी सरकारी नीति! सरकार की नीयत पर प्रश्न उठाने वाली है। अपने नागरिकों के हितों का संरक्षण करने में नाकाम सरकार कमजोर ही कही जाएगी।
महंगाई पर वित्त मंत्री का भाषण और दलीलें सुनने से अच्छा है कि यह समझा जाए कि क्यों कन्नौज की 6 साल की कृति अब 7 रुपये की छोटी मैगी मिलने से परेशान है? उसकी जेब में पड़े 5 रुपये अब मैगी खरीदने के लिए कम पड़ गए हैं। जब कृति के नई पेंसिल मांगने पर उसकी माँ उसे डांटती है तो उसे नहीं समझ आता ऐसा क्यों है? महंगाई को लेकर किसी भी आँकड़े से अधिक कृति का यह पत्र महत्त्वपूर्ण है जिसमें वह प्रधानमंत्री से शिकायत करती है कि आपने पेंसिल और रबड़ भी महंगी कर दी है।
महंगाई सिर्फ सांख्यिकी का आंकड़ा मात्र नहीं है बल्कि करोड़ों भारतीयों द्वारा हर दिन, हर पल जिया जाने वाला यथार्थ है। बढ़ती महंगाई गरीबों के अपने ही चादर में सिकुड़ कर बैठ जाने का प्रमाण है। कृति को रुपये की घटती कीमत चुभ रही है, लेकिन ‘ब्लैक एण्ड व्हाइट’ मीडिया को इसमें अच्छाई दिख रही है और मैडम मिनिस्टर को रुपये की घटती कीमत रुपये द्वारा अपने रास्ते की तलाश समझ आ रही है। कृति के घर की आय मंत्री महोदय और लाखों के ‘पैकेज’ के ऊपर बैठे पत्रकारों को कभी नहीं समझ आएगी।
विपक्षी नेताओं के खिलाफ प्रतिशोध की राजनीति, कमजोरी की निशानी है। विपक्षी नेताओं को जेल भेजकर डराने की कोशिश, कोई रणनीति नहीं बल्कि डर का प्रतीक है। संवैधानिक और वैधानिक संस्थाओं को ‘कंट्रोल’ करके उनके माध्यम से आलोचकों को ‘खामोश’ करना किसी ‘चाणक्य’ का ‘मास्टरस्ट्रोक’ नहीं बल्कि सत्ता फिसल जाने के डर की हड़बड़ी में किए गए फैसलों का प्रतीक है।
स्वयं के किए वादों और फ्लैग-शिप योजनाओं को भूल जाना वादों और इरादों में पनपनते भ्रष्टाचार का प्रतीक है। मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, गंगा का जीर्णोद्धार, किसानों की आय दोगुनी(2022 तक), 2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष, काले धन की वापसी, सारे वादे कहीं अतीत में दब गए हैं। इन वादों पर कई अन्य वादों का भार आ चुका है। लगता है जैसे पुराने वादे दम घुट कर मर चुके हों। यह कमजोर सरकार की कमजोर नीतियों, जिन्हे कमजोर नीति- निर्माताओं ने एक लचर विजन से देश के अंतःकरण से ‘खेलने’ के लिए बनाया था।
किसी नेता को किस आधार पर मजबूत कहा जा सकता है जबकि उसके पास 25-30 पत्रकारों के सवालों का जवाब देने का भी साहस न बचा हो। वह सरकार कैसे सशक्त और हिम्मत वाली हो सकती है जिसका नेतृत्व एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में हो जिसे मोनोलॉग करने की आदत हो चुकी हो। लोकतंत्र जिसका दूसरा नाम ही संवाद है वहाँ मोनोलॉग, एक अस्वस्थ परंपरा है।
रही बात भारत में लोकतंत्र के खत्म होने की, तो यह समझ लें कि भारत का लोकतंत्र रेडियोएक्टिव पदार्थ की तरह है जिसकी ज्यादा से ज्यादा अर्द्ध-आयु तो बताई जा सकती है लेकिन समाप्ति की घोषणा नहीं की जा सकती। अर्थात स्रोत कभी खत्म नहीं होगा और भारत में जीवन भर अनंत काल तक लोकतंत्र का उत्सर्जन होता रहेगा।