रूस ने यूक्रेन की सीमा पर एक लाख से ज़्यादा सैनिक जमा कर रखे हैं। पुतिन नहीं चाहते कि यूरोपीय संघ और नेटो संगठन का फैलाव रूस की सीमा तक हो। इसलिए वे अमेरिका और नेटो से इस बात की गारंटी चाहते हैं कि यूक्रेन को नेटो और यूरोपीय संघ में शामिल नहीं किया जाएगा।
लेकिन रूसी विदेश मंत्रालय ने ब्रितानी आरोप का खंडन करते हुए एक ट्वीट जारी किया और कहा कि ब्रिटन ‘झूठी अफ़वाह फैला’ रहा है। ख़ुद येवहन मुरायेफ़ ने भी ब्रिटेन के आरोप का खंडन करते हुए कहा है कि ब्रितानी आरोप बेतुका है क्योंकि रूस ने तो उनके प्रवेश पर रोक लगा कर उनकी संपत्ति ज़ब्त कर रखी है।
रूसी सेनाएँ तैनात
अमेरिका और उसके साथी नेटो संगठन के देशों का कहना है कि पुतिन साहब जिस गारंटी की माँग कर रहे हैं उसे दे पाना संभव ही नहीं है। क्योंकि वह अंतर्राष्ट्रीय क़ायदे-कानूनों का उल्लंघन और यूक्रेन की प्रभुसत्ता का अतिक्रमण होगा।
अमेरिका और यूरोप के देश केवल इतना आश्वासन दे रहे हैं कि फ़िलहाल यूक्रेन को यूरोपीय संघ और नेटो की सदस्यता देने का न तो कोई प्रस्ताव है और न ही ऐसी कोई योजना है। पर वे यह चेतावनी भी दे रहे हैं कि वे एकजुट होकर यूक्रेन के साथ हैं। अगर रूस ने यूक्रेन की सीमाओं को पार करने या और किसी तरह की गड़बड़ी करने की कोशिश की तो अमेरिका और यूरोपीय देश कड़े से कड़े प्रतिबंध लगाकर उसका यथोचित जवाब देंगे।निकलेगा हल?
लावरोफ़ ने रूसी सेना को यूक्रेन की सीमा से हटाने का कोई संकेत नहीं दिया और ब्लिंकन ने हमले के ख़िलाफ़ अपनी चेतावनी को दोहराते हुए यूक्रेन को दिए जा रहे अमेरिकी हथियारों पर रोक लगाने का संकेत नहीं दिया। उल्टे अमेरिका ने अपने नागरिकों को यूक्रेन से बाहर चले जाने की सलाह दी और दूतावास के कर्मचारियों के परिवारों को वापस बुला लिया जिससे लगता है कि स्थिति बिगड़ने की आशंका प्रबल होती जा रही है।
सवाल उठता है कि पुतिन की रणनीति क्या है? यदि वे नहीं चाहते कि रूस की सीमाएँ नेटो और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों से घिरें, तो यूक्रेन को हड़पने का कोई तुक नहीं बनता। क्योंकि यूक्रेन की पश्चिमी सीमाएँ तो पोलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी और रूमानिया जैसे देशों से घिरी हैं जो यूरोपीय संघ और नेटो के सदस्य हैं।
दूसरे वहाँ की केवल एक तिहाई जनता ही रूसी बोलती है और रूस के समर्थन में आ सकती है। बाक़ी दो तिहाई से ज़्यादा लोग यूक्रेनी भाषा बोलते हैं। वे प्रखर राष्ट्रवादी माने जाते हैं और 1932-33 के अकाल और शोषण को नहीं भूले हैं जिसमें लगभग 35 लाख लोग मारे गए थे। यूरोप का धानकटोरा माने जाने वाले यूक्रेन की खेती को स्तालिन की नीतियों ने चौपट कर डाला था। भुखमरी का ऐसा आलम था कि लोग अपनी जान बचाने के लिए नरभक्षी बनने पर विवश हो गए थे।
रास्ता चाहे जो हो, यूक्रेन का हाथ से निकल कर यूरोपीय संघ के खेमे में जाना पुतिन को कतई गवारा नहीं है। उन्होंने पिछले साल रूसियों की एकता पर एक लंबा लेख लिखा था जिसमें यूक्रेनी और रूसी लोगों की एकता के सदियों पुराने इतिहास की याद दिलाने की कोशिश की गई थी।
पुतिन साहब के लेख से एक बात और समझ में आती है कि उनके लिए यूक्रेन सुरक्षा से ज़्यादा आन की बात बन चुका है। वे 1991 के सोवियत संघ के बिखराव और उसके बाद वारसा संधि का कवच टूट जाने की पीड़ा को नहीं भुला पाए हैं। पूर्व सोवियत देशों को वे रूस के प्रभाव क्षेत्र के रूप में देखते हैं और उनके यूरोपीय संघ या नेटो जैसे दुश्मन के पाले में जाने को शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। इसीलिए कज़ाख़्स्तान में विद्रोह भड़कते ही उन्होंने सरकार की सुरक्षा में अपने टैंक उतार दिए।
वे जानते हैं कि इतिहास के पहिए को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। इसलिए वे एक नया इतिहास शुरू करना चाहते हैं जिसमें वे सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके आसपास के पूर्व सोवियत देशों में उनकी बात मानने वाली सरकारें रहें। मुश्किल यह है कि इसे वे पड़ोसी देशों के विकास के ज़रिए नहीं बल्कि सरकारों को कमज़ोर बना कर हासिल करना चाहते हैं। ऐसा लगता है पुतिन के इस काम में चीन भी उनके साथ है या फिर चीन पुतिन को एक बड़े मोहरे के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है।
यूक्रेन के संकट और अमेरिका से बढ़ती अनबन ने पुतिन और शी को एक-दूसरे के निकट ला दिया है। पुतिन जल्दी ही चीन की यात्रा पर जाने वाले हैं जहाँ वे शी जिनपिंग से मिलेंगे और यूक्रेन के संकट पर कोई रणनीति बनाएँगे। पुतिन और शी दोनों यह चाहते हैं कि अमेरिका के एकछत्र वर्चस्व को ख़त्म किया जाए और दुनिया में बहुध्रुवीय वर्चस्व वाली व्यवस्था कायम हो। अमेरिका और उसके यूरोपीय मित्र देशों का वर्चस्व अंधमहासागर में रहे और एशिया-प्रशान्त में चीन और रूस का वर्चस्व क़ायम हो।
वैसे प्रतिबंधों को लेकर अभी यूरोपीय देशों के बीच आमराय नहीं बन पाई है। क्योंकि यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक और औद्योगिक शक्ति जर्मनी रूस के बाज़ार और गैस की सप्ताई पर बुरी तरह निर्भर है। यूरोप की 40 प्रतिशत गैस अकेले रूस से आती है। कोविड की मार और यूक्रेन के संकट की वजह से यूरोप में गैस के दाम चार गुणा हो चुके हैं। फिर भी, अमेरिका और यूरोप के प्रतिबंध लगने की सूरत में रूस को चीन की आर्थिक, व्यापारिक और कूटनीतिक मदद की ज़रूरत पड़ेगी।
भारत के लिए यूक्रेन का संकट चारों ओर से बुरी ख़बर है। यदि रूस यूक्रेन में गड़बड़ करता है तो उसे भारत से कूटनीतिक समर्थन नहीं तो कम से कम तटस्थता बरतने की अपेक्षा होगी।