रायबरेली में एक दलित युवक की लिंचिंग का मामला कांग्रेस और सपा ने जोरशोर से उठाया। राहुल गांधी ने दलित युवक के परिवार से फोन पर संपर्क किया। दलितों के अधिकार के लिए लड़ने वाली बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) इस मुद्दे पर खामोश है। हाल ही में दलितों पर अत्याचार की कई घटनाएं हुईं लेकिन बसपा और इस पार्टी की प्रमुख मायावती चुप रही हैं। लेकिन यूपी में जब दलितों ने नाराज़गी दिखानी शुरू की और कांग्रेस के झंडे के नीचे आने लगे तो मायावती के कान खड़े हो गए। उन्होंने मंगलवार को बहुत लंबा-चौड़ा ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने सपा और कांग्रेस पर सीधा हमला बोला। उन्होंने दलितों को सावधान भी किया कि वे सपा-कांग्रेस के बहकावे में न आएं। 
पार्टी को एकजुट करने और कार्यकर्ताओं को संदेश देने के लिए मायावती ने 9 अक्टूबर को लखनऊ के तालकटोरा स्टेडियम में 'मेगा रैली' का आयोजन किया है। राजनीतिक हलकों में सभी की निगाहें मायावती के भाषण पर टिकी हुई हैं, जहां वह पार्टी की भविष्य की रणनीति, संभावित गठबंधनों या स्वतंत्र लड़ाई के संकेत दे सकती हैं। लेकिन मामला स्पष्ट है। उनके निशाने पर सत्तारूढ़ बीजेपी नहीं है, बल्कि विपक्ष के दो प्रमुख दल सपा और बसपा निशाने पर हैं।
रैली में दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समुदायों को लाने की कोशिश जारी है। बसपा के वरिष्ठ नेताओं को लाखों लोगों के पहुंचने की उम्मीद है। जिसके जरिए बसपा अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहती है। विश्लेशक इस आयोजन को बसपा के लिए उत्तर प्रदेश सहित राष्ट्रीय स्तर पर खोई हुई जमीन वापस हासिल करने का एक बड़ा कदम मान रहे हैं।
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पिछले कुछ वर्षों में बसपा को कई झटके लगे हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन किया था, जो शुरुआत में आशाजनक लगा लेकिन अंत में अपेक्षित सफलता नहीं दिला सका। इसके बाद बसपा ने 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अकेले दम पर उतरने का फैसला किया, लेकिन भाजपा की लहर में वह उम्मीदों से काफी पीछे रह गई। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा कुछ नहीं कर पाई। उत्तर प्रदेश, जो लोकसभा की 80 सीटों वाला सबसे बड़ा राज्य है, में बसपा का पारंपरिक वोट बैंक कमजोर पड़ता नजर आ रहा है। एक ओर भाजपा का दबदबा है, तो दूसरी ओर सपा उभरती हुई ताकत बन रही है। ऐसे में मायावती की यह रैली भाजपा के प्रभुत्व को चुनौती देने और अपने मूल वोटरों को फिर से जगाने का प्रयास है।
आंकड़े साफ बता रहे हैं कि बसपा का वोट बैंक लगातार गिर रहा है। अब चुनाव में उनकी पार्टी को बीजेपी की मददगार पार्टी माना जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बसपा को अब नई रणनीति की दरकार है। पार्टी के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "यह रैली सिर्फ एक सभा नहीं, बल्कि बसपा के पुनरुद्धार का ऐलान होगी। मायावती बहन जी के संकेत तय करेंगे कि हम 2027 में अकेले लड़ेंगे या किसी नए गठबंधन की ओर बढ़ेंगे।" 

मायावती भाषण में बीजेपी की आलोचना का साहस कर पाएंगी 

मायावती के भाषण से ही चीजें साफ होंगी। क्या वो विपक्षी एकता का आह्वान करेंगी, या फिर बसपा की स्वतंत्र पहचान पर जोर देंगी? कुछ जानकारों का अनुमान है कि रैली में दलित-मुस्लिम-ओबीसी गठजोड़ को मजबूत करने पर फोकस हो सकता है। मायावती ने अतीत में कई बार गठबंधनों से दूरी बनाई है, लेकिन 2019 के अनुभव के बाद अब सतर्कता बरती जा रही है। राजनीतिक पर्यवेक्षक राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. एस.के. सिंह ने कहा, "मायावती का भाषण बसपा की दिशा तय करेगा। अगर वे गठबंधन के संकेत देती हैं, तो यह विपक्ष के लिए बड़ा संदेश होगा।"

रैली को लेकर योगी सरकार की उदारता

मायावती की रैली को लेकर योगी आदित्यनाथ सरकार बहुत उदारता बरत रही है। पुलिस के टॉप अधिकारियों ने रैली स्थल और आसपास के इलाकों का दौरा किया, ताकि पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था की जा सके। रैली को बाकायदा अनुमति दी गई है। यह वही सरकार और प्रशासन है जिसने विपक्षी दलों को लखनऊ में वोट चोरी के खिलाफ रैली या प्रदर्शन आयोजित करने की अनुमति नहीं दी। इसके अलावा भी विपक्ष के कई राजनीतिक इवेंट को अनुमति नहीं दी गई।

बसपा का यूपी में उत्थान और पतन 

1984 में बसपा का गठन कांशीराम ने किया। 1990 के दशक के मध्य में बसपा एक मज़बूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी और मायावती के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बनाई। इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि 2007 में थी जब पार्टी ने भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में अपने दम पर सरकार बनाई और मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए 403 विधानसभा सीटों में से 206 सीटें जीतीं। इस सोशल इंजीनियरिंग में दलितों के साथ-साथ मुस्लिम, पिछड़ी जातियाँ और ब्राह्मण भी शामिल थे।
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हालाँकि, 2012 के बाद से पार्टी की स्थिति खराब होती गई। उस साल समाजवादी पार्टी (सपा) ने बसपा को सत्ता से बेदखल कर दिया, जिससे उसकी सीटें 206 से घटकर 80 रह गईं। बाद के चुनावों में भी यह गिरावट जारी रही: 2017 में, बसपा की सीटें घटकर 19 रह गईं और 2022 में, पार्टी केवल एक सीट ही जीत पाई। फिर भी, इस खराब प्रदर्शन के बावजूद, बसपा ने 12.88% वोट शेयर बरकरार रखा, और दलित जाटव उप-समूह उसके प्रति वफ़ादार बना रहा। बसपा की रीढ़ माने जाने वाले दलितों की संख्या राज्य की कुल आबादी का लगभग 20-21% है, जो लगभग 4.13 करोड़ है।