नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान भड़की हिंसा का जायजा लेने जब मैं निकला तो उपद्रव ग्रस्त इलाकों में कोई भी बोलने के लिए तैयार नहीं था। आप उन इलाकों के किसी भी वाशिंदे से पूछिए तो उसका कुछ ऐसा जवाब होता है- ‘हम तो साहब यहां थे ही नहीं...हमारे मोहल्ले के लोग नहीं थे, पता नहीं वे लोग कहां से आए थे।’ एक-दो आदमी यह भी कहते मिले, ‘साहब, हुकूमत से कोई जीत पाया है...इन हुड़दंग मचाने वाले लौंडों को पिट-पिटाकर ही बात समझ में आती है।’