बहुजन समाज पार्टी की मुखिया और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पंद्रह जनवरी को अपने जन्मदिन पर घोषणा की कि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी। इसके साथ ही उन्होंने किसी तरह के गठबंधन की संभावना को ख़त्म कर दिया। राज्य के राजनीतिक दलों को यह समझने में सात दशक लग गए कि उत्तर भारत का यह अकेला राज्य है जहाँ बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था के बावजूद गठबंधन की राजनीति कभी सफल नहीं हुई।
उत्तर प्रदेश में गठबंधन की राजनीति क्यों नहीं चल पाती?
- उत्तर प्रदेश
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- 19 Jan, 2021

फ़ाइल फ़ोटो
ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने गठबंधन की राजनीति के प्रयोग से तौबा कर लिया है। राज्य की चारों प्रमुख पार्टियाँ भी सारे गठजोड़ आजमा चुकी हैं। अब उनके आपसी संबंध ऐसे नहीं हैं कि निकट भविष्य में वे फिर साथ आ सकें। तो क्या मायावती का फ़ैसला इन्हीं अनुभवों से प्रभावित है?
उत्तर प्रदेश में गठबंधन की राजनीति का पहला प्रयोग 1967 से 1971 के दौरान संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारों के साथ शुरू हुआ जब कांग्रेस कमज़ोर हो रही थी और ग़ैर कांग्रेसवाद की राजनीति ज़ोर पकड़ रही थी। इस बीच 1969 में कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर विभाजन भी हो गया। उस समय जितने भी गठबंधन बने वे कांग्रेस से निकले लोगों के कारण ही बने। उस समय का समूचा विपक्ष उसमें शामिल हो गया। उसमें वाम, दक्षिण और मध्यमार्गी सब थे। सारे सिद्धांत ताक पर रखकर ग़ैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत को सबने गले लगा लिया। पर इस बेमेल गठबंधन को ग़ैर कांग्रेसवाद का चुम्बक भी जोड़कर नहीं रख सका। नतीजा यह हुआ कि ग़ैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो पर चली नहीं।
प्रदीप सिंह देश के जाने माने पत्रकार हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव है। आरएसएस और बीजेपी पर काफी बारीक समझ रखते हैं।