2008 के मुंबई हमले के बाद मनमोहन सिंह सरकार ने अपने गृहमंत्री का इस्तीफ़ा ले लिया था, क्या मोदी सरकार ने पहलगाम हमले के बाद अपने गृहमंत्री का इस्तीफ़ा लिया? या ले सकती है?
पहलगाम के आतंकी हमले में 26 निर्दोष लोग मारे गए। इस घटना से यह बात और भी पुख्ता हो गई कि आतंकवाद कायरों का दर्शन है, जो आमने सामने आकर सरकार और एक प्रशिक्षित फोर्स से नहीं टकरा सकता इसलिए निर्दोष और निहत्थे लोगों को अपना शिकार बनाता है। सरकार को ऐसे दर्शन और इसके पीछे छिपे लोगों को जड़ से मिटाने का प्रयास करना चाहिए और शायद इस घटना के बाद सरकार ऐसे प्रयास करे भी। लेकिन इन सबके पीछे यह सवाल भी छिपाया नहीं जा सकता कि 2014 से केंद्र में मोदी सरकार है, 2019 में तमाम वादों और आश्वासनों के साथ अनुच्छेद-370 को हटा दिया गया, साथ ही यह कहा गया कि आतंकवाद अब जड़ से ख़त्म हो जाएगा। यह भी आश्वासन दिया गया कि कश्मीर अब वैसा नहीं रहेगा, पूरा बदल जाएगा। लेकिन वादा करने के बाद सरकार सबकुछ भूल गई। सरकार यह भी भूल गई कि नागरिकों की सुरक्षा उसका दायित्व है, नागरिक खुद अपनी सुरक्षा का ज़िम्मा नहीं ले सकता। लेकिन पहलगाम को लेकर जिस तरह की रिपोर्ट मिल रही हैं उससे पता चलता है कि सरकार की तरफ़ से सुरक्षा में भारी चूक हुई है। अब यह सवाल ज़रूरी हो जाता है कि कश्मीर में सुरक्षा किसका दायित्व है? यहाँ हुई चूक और इसकी वजह से गई जानों के लिए कौन जिम्मेदार है? जो भी जिम्मेदार है क्या उसके ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही की गई है?
जब नए भारत और उसकी आकांक्षाओं को लेकर यह सरकार सत्ता में आई तब यह कहा गया कि यह पहले की यूपीए सरकार से ज़्यादा सख़्त और जवाबदेह प्रशासन प्रदान करेगी। लेकिन असल में यह नहीं हुआ। 2008 के मुंबई हमले के बाद मनमोहन सिंह सरकार ने अपने गृहमंत्री का इस्तीफ़ा ले लिया था, क्या मोदी सरकार ने पहलगाम हमले के बाद अपने गृहमंत्री का इस्तीफ़ा लिया? या ले सकती है? लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ चुनाव जीतना नहीं है। जनता को वोट देने का अधिकार मिला और एक सरकार चुन ली गई। असल में लोकतंत्र तब मूर्तरूप लेता है जब एक उत्तरदायी/जवाबदेह सरकार का जन्म होता है। 2014 के बाद से ‘जवाबदेही’ नामक शब्द सरकार की डिक्शनरी से ग़ायब ही हो चुका है। 2019 में अनुच्छेद-370 हटाने से पहले 2016 में भी यही सरकार थी जो यह दावा कर चुकी थी कि डीमोनेटाइजेशन के बाद आतंकवाद का ख़ात्मा हो जाएगा लेकिन हासिल कुछ नहीं हुआ। इस प्रक्रिया में देश का आर्थिक नुक़सान तो हुआ ही सैकड़ो लोगों की जानें भी चली गईं लेकिन सरकार ने कभी इसका जवाब नहीं दिया कि आख़िर इस पूरी प्रक्रिया से कुछ भी हासिल क्यों नहीं हुआ और जो नुक़सान हुआ है उसकी जवाबदेही किसकी है? हर बार अपने ग़ैर-ज़िम्मेदारानापूर्ण रवैये को यह सरकार अपनी चुनावी जीतों से छिपा लेती है। इस सरकार ने कभी स्वीकार नहीं किया कि नोटबंदी असल में एक भयावह नीतिगत चूक थी। वास्तव में मोदी सरकार अपने आगमन से ही बहुआयामी चूक करती रही है। उसके वादों और कार्यान्वयन में कभी कोई मेल रहा ही नहीं। मोदी सरकार ने अपने आगमन के समय से ही महिला सुरक्षा का खूब गाना गया। पिछली सरकार को निर्भया कांड के लिए खूब कोसा। लेकिन जब ख़ुद सत्ता संभाली, सरकार हाथ में आई, ताक़त के सभी स्रोत उँगलियों पर नाचने लगे तब महिला सुरक्षा को लेकर न सिर्फ़ खामोशी छा गई बल्कि मोदी सरकार/बीजेपी कार्यवाही करने में असमर्थ ही हो गई, खासकर तब जब उनके सांसद, विधायक और मंत्री ही खुलेआम महिलाओं को अपमानित करने लगे।
आज ऐसा हो गया है कि इस सरकार में कोई भी, महिलाओं को कुछ भी कहकर निकल सकता है लेकिन पार्टी उसके बयान से किनारा करने के अलावा कोई अन्य एक्शन लेने में पंगु नज़र आती है।
2014 का ही मामला लीजिए, छत्तीसगढ़ में बीजेपी सरकार के मंत्री, जिनपर क़ानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी थी, जब उनसे बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था कि- बलात्कार सोच समझकर नहीं किए जाते, बस हो जाते हैं, इसे एक एक्सीडेंट के रूप में समझना चाहिए। इस गिरी हुई सोच के बावजूद उन्हें न मंत्री पद से हटाया गया, ना ही भारतीय जनता पार्टी से उन्हें निकाला गया, हुआ ये कि हमेशा की तरह जवाबदेही तय नहीं की गई। इससे यह बात स्थापित कर दी गई कि बलात्कार असल में एक एक्सीडेंट ही है। आज दस सालों बाद भी इस सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे लेकिन उसे पार्टी से नहीं निकाला गया, जवाबदेही नहीं तय की गई। यही हाल गोड्डा, झारखंड से बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे का है। निशिकांत दुबे महिलाओं के ख़िलाफ़ एक खास किस्म की कुंठा से भरे नजर आते हैं। चाहे सोनिया गांधी को विदेशी कहना हो या ‘क्वीन’ और तानाशाह या फिर उनके सामने जाकर उनपर निम्नस्तरीय आरोप लगाना हो कि- सोनिया जी के पास सिर्फ़ दो काम हैं, बेटे को सेट करना और दामाद को भेंट करना। निशिकांत राजनैतिक विरोध को व्यक्तिगत विरोध और लैंगिक उत्पीड़न का हथियार बनाकर भरी संसद में इस्तेमाल करते हैं लेकिन उनपर कोई कार्यवाही नहीं की जाती और न ही कोई जवाबदेही तय की जाती है।
पीएम मोदी ख़ुद भी किसी महिला सांसद की हँसी से इतना विचलित हो जाते हैं कि रामायण की राक्षसी हँसी से उसकी तुलना कर बैठते हैं। उनकी ऐसी उच्छृंखल और महिलाविरोधी भाषा से मर्यादा लांघने पर कोई भी जवाबदेही तय नहीं की जाती। निशिकांत दुबे जिस तरह महिला जनप्रतिनिधियों के लिए ‘नगरवधु’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं और आसानी से बचकर निकल जाते हैं, पार्टी उनके ख़िलाफ़ कोई एक्शन नहीं लेती। उससे यह तय हो जाता है कि बीजेपी में जवाबदेही तय करने का कोई मैकेनिज्म नहीं है या फिर यह कहा जाए कि ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार बीजेपी की नीति है। निशिकांत दुबे की घृणित भाषा का शिकार महुआ मोइत्रा और दीपिका पांडे सिंह जैसी महिलाएं हुई हैं जो आम महिलाओं से कहीं अधिक सशक्त और सक्षम हैं। जहाँ महुआ टीएमसी की लोकसभा सांसद हैं तो दीपिका काँग्रेस पार्टी से हैं और झारखंड में पंचायती राज मंत्री हैं। अगर ऐसी महिलाएं गटर भाषा का शिकार हो सकती हैं तो सोचना पड़ेगा कि इस सरकार में आम महिलाओं का क्या हाल होगा। जब यही सब सूचनाएँ/ख़बरें आम लोगों तक पहुँचती हैं, उन लोगों तक पहुँचती हैं जो पितृसत्ता के लम्बरदार हैं तो उन्हें महिला शोषण की वैधानिकता मिल जाती है। महिलाओं को छेड़ने और नोचने के पहले उनमें कानून का जो असीमित डर होना चाहिए वह धूमिल हो जाता है। इसलिए हर दिन कई बलात्कार के मामले सामने आ रहे हैं। वाराणसी में 19 साल की लड़की से 23 लड़कों ने 6 दिन तक बलात्कार किया। जब यह ख़बर सामने आई तो पता चला कि पीएम मोदी नाराज़ हैं और अधिकारियों पर कार्यवाही की गई। अगर ऐसी ही नाराज़गी उन्होंने तब दिखाई होती जब बीएचयू कैंपस में भाजपाई गुंडों ने लड़की का बलात्कार किया था, तो शायद आज अपराधियों को डर लगता।
जब अपराधियों को पता है कि संसद में बैठी महिलाओं को अपमानित किया जा सकता है, बलात्कार को एक्सीडेंट समझा जा सकता है तब अपराधियों को डर कैसे लगेगा?
बलात्कार की हर घटना पर ग़ुस्सा और रोष जाहिर करना होगा, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को कम से कम इतना जवाबदेह तो बनना होगा कि अगर उनकी पार्टी का कोई नेता यौन आक्रमणकारी टिप्पणी, किसी महिला के ख़िलाफ़ करे तो उसकी जवाबदेही तय करते हुए उसे पार्टी से बर्खास्त करें और ख़ुद भी अपने हर दूसरे भाषण में महिलाओं के यौन शोषण का मुद्दा उठायें। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब ख़ुद सरकार ही महिलाओं से संबंधित क़ानूनों और फंडों को दुरुस्त नहीं कर पा रही है तब जनता के सामने किस मुँह से जाएँगे। भारतीय दंड संहिता को बदलकर भारतीय न्याय संहिता लायी गई और शादी में रहते हुए बलात्कार से संबंधित प्रावधान को नहीं जोड़ा गया। बेटी बचाओ जैसी योजनाओं के बजट के आधे से ज़्यादा हिस्से को मीडिया कैंपेन में खर्च कर दिया गया। निर्भया फंड, जिसे महिला सुरक्षा में लगाना था उसके 90% हिस्से को खर्च ही नहीं किया गया। इसके अलावा सरकार की जवाबदेही इस बात से और भी पुख्ता हो जाती है कि 2025 के बजट में सरकार ने ‘मिशन शक्ति’ से जुड़ी महिला हेल्पलाइन को मिलने वाले फंड में 70% कटौती का प्रस्ताव रखा है।
हर स्तर पर ग़ैर-जवाबदेह यह सरकार महिला मुद्दों को लेकर कितनी लापरवाह है, यह तथ्यों से समझना बेहतर है। नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता सँभालने के बाद से अब तक महिला अपराधों में 30% की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। इन दस सालों में रेप की संभावना 44% तक बढ़ चुकी है (हर दिन 90)। हर 77वें मिनट पर आज एक दहेज हत्या हो जाती है। इसके बावजूद निशिकांत जैसे बीजेपी पोषित सांसद महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा के दौरान कहते हैं कि दहेज हत्या क़ानून ठीक नहीं है। एनसीआरबी, 2022 की रिपोर्ट कहती है कि रेप के मामलों में सजा मिलने की दर मात्र 2.56% है। इसके अलावा जॉर्जटाउन इंस्टीट्यूट फॉर वीमेन, पीस, एंड सिक्योरिटी द्वारा जारी सूचकांक में भारत 177 देशों में 128वें स्थान पर है। इसका मतलब है कि भारत में महिलाओं को समावेशी माहौल, न्याय और सुरक्षा के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ रहा है। सूचकांक के अनुसार, 2022 में महिलाओं के ख़िलाफ़ राजनीतिक हिंसा में भारत शीर्ष 10 सबसे खराब देशों में शामिल था। यहाँ प्रति 100,000 महिलाओं पर 125 राजनैतिक हिंसा की घटनाएं हो रही थीं जबकि वैश्विक औसत मात्र 16 है। इसके अलावा भारत में महिलाओं की सुरक्षा की भावना में कमी आई है, 2023 में केवल 58% महिलाओं ने रात में अकेले चलने में सुरक्षित महसूस किया, जो कि 2017 में 65.5% था। आँकड़े देखकर आश्चर्य हो सकता है लेकिन असल में होना नहीं चाहिए। बस एक सवाल पूछने की ज़रूरत है कि जब सत्ताधारी दल का कोई लोकसभा सांसद किसी सशक्त महिला, जिसने अंतरधार्मिक विवाह किया है (कोई अपराध नहीं), उसको खुलेआम सोशल मीडिया में यह कह सकता है कि “धर्म परिवर्तन करने वाले मुल्ले भी ज्ञान बाँट रहे हैं” और उसे न क़ानून का भय लगता है, न ही संसद सदस्यता जाने का, न प्रधानमंत्री की नाराज़गी का और न ही संगठन और पार्टी का तो इसका मतलब बिल्कुल साफ़ है कि सांसद महोदय को इस निम्नस्तरीय सोच के लिए हर स्तर पर पूर्ण समर्थन प्राप्त है। इसका यह भी मतलब है कि उसका संबंध जिस दल और विचार से है वहाँ महिलाओं के साथ अभद्रता के लिए, अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने के लिए, दंगा और फ़साद को आमंत्रण देने के लिए जवाबदेह नहीं बनाया जाता है। यह राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी है। यहाँ आतंकवादी हमले के बाद देश का मुखिया जिसे ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, जिम्मेदारी तय करनी चाहिए, वो चुनावी सभा को संबोधित करने के लिए पहुँच जाता है जहाँ आतंकवाद और आतंकियों को सबक सिखाने की बात करता है लेकिन एक भी बार लापरवाह मंत्री के ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं कहता।
यह सही है कि आतंकी हमला कोई जानबूझकर नहीं करवाता, लेकिन लोकतांत्रिक देश ऐसे नहीं चलते। यहाँ चूक और असफलताओं के लिए ज़िम्मेदारी लेनी होती है तभी लोकतंत्र सशक्त होता है।
अगर सरकार और प्रशासन जवाबदेह होता तो स्थितियों में सुधार होता लेकिन हर गंभीर से गंभीर अपराध पर चुप्पी साध लेना, जिन लोगों पर ज़िम्मेदारी है उनसे सवाल ना पूछना यह सब अपराधों की निरंतरता और गंभीरता को बढ़ाता है। यही कारण है कि 2012 में हुआ अमानवीय निर्भया कांड अब एक मात्र घटना नहीं रह गई है। वाराणसी, हाथरस और कठुआ की घटनाएँ भी सामने खड़ी हो गई हैं। समस्या बढ़ती ही जा रही है। लगभग हर हिंदू त्योहारों पर अल्पसंख्यकों के साथ टकराव, मस्जिदों पर चढ़कर भौंडा प्रदर्शन बिल्कुल आम बात हो गई है। बाज़ार में अब नई धूर्तता आई है। यह कारनामा भी बीजेपी के एक विधायक ने कर दिखाया है। बीजेपी के जयपुर के हवा महल से विधायक बालमुकुंदचार्य अपने समर्थकों के साथ मस्जिद के अंदर घुस गए और वहाँ ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ का पोस्टर लगाकर आ गए। मानो वो यह साबित करना चाहते हों कि मस्जिद और पाकिस्तान एक ही बात है, मस्जिद और आतंकवाद एक ही बात है। लेकिन मजाल है कि पार्टी उनकी सदस्यता रद्द कर दे। ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट यह बता रही है कि सरकारी ग़ैर-जवाबदेही और सरकारी संरक्षण की वजह से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अपराध बढ़ते जा रहे हैं। लोकसभा सांसद खुलकर अल्पसंख्यकों को मिले हुए मौलिक अधिकारों को ख़त्म करने की बात कर रहे हैं और केंद्र चुपचाप बैठा हुआ है। सावरकर पर राहुल गांधी की टिप्पणी को लेकर स्वतंत्रता संग्राम पर ज्ञान देने वाला सुप्रीम कोर्ट, सावरकर पर अगली टिप्पणी के लिए तो ‘स्वतः संज्ञान’ की बात कह देता है लेकिन जिन मौलिक अधिकारों को संरक्षण देने की उसे ज़िम्मेदारी दी गई है उस पर एक क़ानून निर्माता द्वारा भद्दी टिप्पणी किए जाने पर उसे स्वतः संज्ञान की याद नहीं आती। सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिक जिम्मेदारी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान पर चर्चा नहीं है बल्कि उसका काम मौलिक अधिकारों का संरक्षण, संविधान का संरक्षण और देश की एकता को बनाये रखने वाले संघीय ढांचे की सुरक्षा करना है। लेकिन ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि विधायिका और कार्यपालिका की तरह न्यायपालिका भी ग़ैर-जवाबदेही के इन्फेक्शन से जूझ रही है।