लोकतंत्र का विकास ग़ैर-लोकतांत्रिक शासन प्रणालियों-तानाशाही, राजशाही, कुलीनतंत्र और अभिजाततंत्र आदि से लड़कर हुआ है। एक समृद्ध, विस्तृत और परिपक्व लोकतंत्र में भी गैर-लोकतांत्रिक ताक़तें छिपी रहती हैं। ये गैर लोकतांत्रिक शक्तियां अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए कई बार सुषुप्तावस्था में बने रहने का ढोंग भी करती रहती हैं और कई बार कैमोफ्लाज यानी छलावरण का सहारा लेकर ख़ुद को सदा बचाए रखती हैं यह कभी समाप्त नहीं होती।
लोकतंत्र में तानाशाही वाली मानसिकता के लोग भी लोकतंत्र के मूलभूत लक्षणों का दोहन करके उसे लोकतंत्र के ही ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की जुगत में लगे रहते हैं। इसलिए लोकतंत्र को बनाये रखना एक लगातार किया जाने वाला प्रयास है, यह एक सतत संघर्ष है। और लोकतंत्र के लिए किया जाने वाला यह संघर्ष, एक ईमानदार और साहसी नेतृत्व के बिना संभव ही नहीं है। आज के दौर में भारत में लोकतंत्र को बचाए रखने और बनाये रखने की इस लडाई का नेतृत्व लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, राहुल गांधी कर रहे हैं।
2014 के लोकसभा चुनावों के बाद बीजेपी और नरेंद्र मोदी को इस तरह पेश किया गया जैसे वे एक चमत्कारी शक्ति हैं, उन्हें विज्ञापनों से खास किस्म के तपस्वी के रूप में पेश किया गया, जिसमें भारत के मीडिया ने बहुत बड़ी भूमिका बनाई। नरेंद्र मोदी को देश में विदेश में विज्ञापन के माध्यम से समाचारों और बहुत सी घटनाओं के माध्यम से एक अलौकिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया एक ऐसे महामानव के रूप में बार बार दिखाए जाने की कोशिशें की और इस बात के लिए लोगों को मानसिक रूप से तैयार किया गया कि यह अलौकिक शक्ति कभी भी चुनाव नहीं हार सकती और तमाम प्रचार-प्रसार सामग्री के सहारे यह साबित करने की कोशिश हुई कि मोदी भारत का भाग्य बदलने आए हैं।
कुछ वीडियोज में लोगों ने मोदी को ईश्वर का अवतार माना। ख़ुद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने आप को नॉन-बायलॉजिकल बता डाला। संघ से लेकर बीजेपी और तमाम मीडिया आउटलेट्स ने 2047 तक भाजपा के सत्ता में बने रहने की घोषणा तक कर डाली। हर चुनाव के पहले मास्टरस्ट्रोक के जुमले गढ़े गए, माहौल बनाया गया, भारत की जनता को इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार किया गया कि चूंकि वे चुनाव तो हार नहीं सकते, इसलिए चुनाव परिणाम लोगों को सहज ही स्वीकार हो जाए। लेकिन जिस तरह राहुल गांधी ने बीते दिनों कर्नाटक की दो विधानसभाओं- महादेवपुरा और अलंद- को लेकर अपनी प्रेस कांफ्रेंस में गंभीर खुलासे किए हैं उससे यह संदेह पुख्ता हुआ है कि 2014 और उसके बाद के तमाम जनादेश, विशेषरूप से लोकसभा चुनावों के, या तो चुनाव आयोग के सहयोग से तैयार किए गए हैं या आयोग की ‘रणनीतिक लापरवाही’ से! यह सब बातें तब और पुख्ता हो जाती हैं जब आयोग विपक्ष के इतने बड़े नेता द्वारा उठाये गए सवालों का जवाब देने सामने नहीं आता और आता भी है तो कभी शायरी का सहारा लेता है तो कभी बेकार के बचकाना आरोपों और बड़बोलेपन का।
राहुल गांधी की प्रेस कोंफ्रेंस में किये गए हाल के दावे के अनुसार, एक छोटी सी जगह से 6 हज़ार से अधिक लोगों के वोट ऑनलाइन एप्लिकेशन के माध्यम से काट दिए गए। यह बात सिर्फ़ इत्तेफाक से तब पकड़ में आई, जब एक बूथ स्तरीय अधिकारी को संदेह हुआ। यदि यह अधिकारी व्यक्तिगत कारणों से संदेह न करता तो यह बात शायद इतनी जल्दी प्रकाश में नहीं आती।
अब निश्चित तौर पर इस धांधली की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पूरे देश में ऐसे लाखों लोगों को टारगेट करके उनके वोट काटे जा रहे हों और इस तरह एक ऐसी मतदाता सूची निर्मित की जा रही हो जिससे एक तथाकथित ‘अलौकिक’ दल और अलौकिक व्यक्ति ही चुनावों में जीत हासिल कर सके।
शक तब और गहरा गया जब निर्वाचन आयोग ने कर्नाटक के आलंद में हुई धांधली पर सहयोग करने से बिलकुल किनारा कर लिया। राहुल गांधी के अनुसार, राज्य की जांच एजेंसी ने 18 बार निर्वाचन आयोग से सवाल पूछा और मदद माँगी पर आजतक निर्वाचन आयोग ने ऑनलाइन वोट काटने वालों की तकनीकी जानकारी साझा नहीं की है। अगर राहुल गांधी द्वारा उठाये गए सवाल गलत हैं, जिसे वे प्रमाण सहित प्रस्तुत कर रहे हैं, और निर्वाचन आयोग असहमत है तो आयोग को नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के ख़िलाफ़ कठोर कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए और उन्हें जेल भेज देना चाहिए। लेकिन राहुल गाँधी शायद सही हैं, जैसा कि वो दावा कर रहे हैं उन्होंने कोई शायरी नहीं की, उन्होंने पुख्ता सबूतों के साथ प्रेस कोंफ्रेंस की है और साथ ही निर्वाचन आयोग बैकफुट पर भी दिख रहा है तो इन गड़बड़ियों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। राहुल गाँधी सच कह रहे हैं तो माननीय भारत निर्वाचन आयोग ना सिर्फ़ 140 करोड़ आबादी के साथ विश्वासघात का दोषी है बल्कि वह उन लाखों शहीदों का भी दोषी है जिन्होंने औपनिवेशिक सत्ता से लड़ते हुए अपनी जान गंवाई और देश को आज़ाद करवाया। आयोग उनका भी दोषी है जो आज़ादी के बाद दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो गए। सभी शहीदों ने अपना बलिदान इसलिए किया जिससे भारत और उसका गौरव, लोकतंत्र और मानवीय गरिमा सुरक्षित रह सके, देश में लोकतंत्र मजबूत होता रहे और भारत के लोगों की आवाज दबाई ना जा सके।
लेकिन देखिये आज एक संस्था (चुनाव आयोग) ने यह सब कुछ दाँव पर लगा दिया है।
राहुल गांधी ने ‘वोट चोरी’ और ‘वोट काटने’ के जो भी सबूत पेश किए हैं उसके जवाब में आयोग आजतक कोई तथ्यात्मक विरोध नहीं प्रस्तुत कर पाया है। भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त जिस तरह और जिस भाषा में नेता, प्रतिपक्ष का जवाब देने आते हैं उससे लगता है जैसे भारत का निर्वाचन आयोग (ECI) एक शक्तिविहीन, रीढ़विहीन संस्था है। जबकि सच्चाई यह है कि भारत के संविधान में अनुच्छेद-324 के तहत ECI एक संवैधानिक और मजबूत संस्था है।
भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति तो सरकार कर सकती है लेकिन उसका पद पर बने रहना या उसे हटाया जाना सिर्फ संसद के हाथ में है। उसे हटाए जाने के लिए ‘महाभियोग’ जैसा तरीका ही अपनाना पड़ता है। यह स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर उसे जबरदस्त ताक़त प्रदान किया जिससे यह बिना भय, पक्षपात और लालच के अपना काम कर सके। क्योंकि बिना निष्पक्ष चुनावों के संचालन के लोकतंत्र का बचना संभव ही नहीं है। निष्पक्षता के अभाव में चुनाव अपनी वैधता खो देते हैं, चुनें हुए लोग अपनी वैधता खो देते हैं और ऐसे में चुनी हुई सरकार भी अपनी वैधता खो देती है।
निर्वाचन आयोग द्वारा उत्पन्न ‘खोई हुई वैधता’ का यह माहौल लोकतंत्र के संचालन के लिए बिल्कुल ठीक नहीं है।
इसलिए जरूरी है कि जल्द से जल्द विश्वास बहाली का काम शुरू हो, निष्पक्षता को साबित किया जाय और यदि आयोग निष्पक्ष रहने में असमर्थ है या उसने निष्पक्षता को रोकने में बाधा पहुंचाई हो, किसी के साथ पक्षपात किया है तो उसे एक अपराधी की तरह समझकर कानून संगत कार्यवाही की जानी चाहिए, निर्वाचन आयुक्त को सिर्फ़ पदमुक्त करने से काम नहीं चलेगा।
अमेरिकी राजनैतिक चिंतक एबी हॉफमैन का मानना था कि “लोकतंत्र कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिस पर आप सिर्फ़ विश्वास करें या जिसे सजावट की तरह टाँग दें। यह वह है जो आप करते हैं। आप इसमें भाग लेते हैं। यदि आप भाग लेना बंद कर देते हैं, तो लोकतंत्र बिखर जाता है।” अब वक्त आ चुका है कि लोग लोकतंत्र में हर रोज़ भागीदार बनें, अपनी जातीय, धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय पहचान को किनारे रखकर विशाल लोकतंत्रीय पहचान को केंद्र में रखकर सवाल पूछें।
सवाल पूछें उस मीडिया से कि वो सरकार से सवाल क्यों नहीं पूछता, सवाल पूछें उस न्यायपालिका से जिसे संविधान की सुरक्षा का दायित्व सौंपा गया था कि आखिरकार वो संविधान कि रक्षा करने के लिए कठोर कदम क्यों नहीं उठाता? सवाल पूछें निर्वाचन आयोग से कि उसकी कौन सी मजबूरी है जिसके तहत वो चुनावों और मतदाता सूची के नियमों से समझौता कर रहा है?
आख़िर वो कौन सी मजबूरी है जिसकी वजह से अनिल मसीह जैसे लोगों पर कार्यवाही नहीं की जाती, जिसने कैमरे के सामने लोकतंत्र की आबरू को तार-तार कर दिया था, और उसकी आँखों में डर नहीं था अफ़सोस भी नहीं था।
यह गांधी का देश है, नेहरू और अंबेडकर का देश है। यहाँ सवाल पूछने का तरीका नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसा नहीं हो सकता। भारत में सवाल पूछने का तरीका गांधी का तरीका ही होगा। संविधान निर्माताओं ने एक मजबूत संविधान दिया है वो किसी भी सरकार के 11 साल के कार्यकाल और उस दौरान हुए संस्थाओं के क्षरण से लड़ सकता है, बस जरूरी है कि हर बार प्रश्न किया जाय, बार बार प्रश्न उठाया जाय जिससे या तो जिम्मेदार लोग घरों से निकलना बंद कर दें या फिर सवालों के जवाब दें।
‘माई-बाप’ मानने की परंपरा 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के साथ ही समाप्त हो चुकी है। ना न्यायालय माई-बाप है, ना प्रधानमंत्री और न ही निर्वाचन आयोग। ये सब उसी संविधान से निकले हैं और इनकी प्रतिबद्धता उसी संविधान के प्रति ही होनी चाहिए जिसने अपना सबसे महत्वपूर्ण और जरुरी साझेदार ‘भारत के लोगों’ को बनाया है।