फ़ोन की घंटी बजी। रात का साढ़े नौ बजा था। दूसरे सिरे पर नवीन थे। मैं चिंतित हुआ। नवीन उस्मान, अविनाश और विश्वजीत के साथ कुछ घंटे पहले ही शिव विहार की ओर निकले थे, जिसे फ़रवरी की हिंसा ने तहस नहस कर दिया था। खाना और कुछ पैसा भी लेकर। हिंसा के बाद राहत शिविर तोड़ डाले गए हैं लेकिन लोगों के पास पैसे नहीं हैं और न खाने को राशन है। परसों जब वे उस इलाक़े में थे तो अविनाश का सामना कुछ लाठीधारियों से हो गया था। इस रात के फ़ोन से मैं घबराया कि फिर कुछ वैसा ही तो नहीं हुआ।
ये कौन हैं जो पैदल जा रहे हैं! इनकी ज़ुबानबंदी टूटती क्यों नहीं?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 27 Mar, 2020

दिल्ली एनसीआर से उत्तर प्रदेश में अपने गाँवों की ओर लौटते लोग। एनएच 24 की तसवीर।
सरकार ने योजनाओं, स्कीमों के खाने बनाकर उनमें पैसे डाल दिए हैं। लोगों की असल ज़िंदगी इन खानों और खाँचों से बाहर है। वे ओवरब्रिज के नीचे, सड़क के डिवाइडर, कई सिर्फ़ अपने रिक्शों में सोते हैं। वे किसकी गिनती में हैं, किस स्कीम में फ़िट होते हैं? वे गिनती के बाहर हैं। रोज़ रोज़ जो इंसान से एक दर्ज़ा कम जीते जाने को मजबूर हैं, वही लौट रहे हैं।
‘लोग चले जा रहे हैं।’ नवीन ने कहा। कहाँ? ‘बस वे चले ही जा रहे हैं। हम बॉर्डर पर हैं। हर्ष विहार के पास। यूपी शुरू हो जाता है, साहिबाबाद। वे निकल रहे हैं, सैकड़ों।’ मैं चुप सुनता रहा। ‘क्या किया जा सकता है इस रात के वक़्त? किसे फ़ोन करें?’ नवीन ने कहा, ‘लोग लगातार पैदल ही निकल रहे हैं। अगर इनमें से किसी को भी संक्रमण हुआ है तो ये सब जिन गाँवों में पहुँचेंगे वे सब असुरक्षित हो जाएँगे।’ ‘यह तो ठीक, लेकिन इन्हें कौन रोकेगा? कहाँ ठिकाना है इनका?’ यह नवीन को भी पता है। वे लाचारी से इन सबको जो इस भारत माता की संतान हैं, उस शहर से निराश होकर निकलते देख रहे हैं जिसकी गाड़ी के ये ईंधन हैं। आम दिनों में इनके बिना यह शहर थम जाएगा। लेकिन आज उसने इन्हें अपनी निगाह की हद से दूर कर लिया है।