पुलिस की हिंसा को सिर्फ़ पुलिस सुधार कार्यक्रम से नहीं रोका जा सकता। वह कुछ वैसी ही सामाजिक व्याधि है जैसे दहेज के लिए की जानेवाली हिंसा या हत्या। वह ताक़तवर के पास हिंसा के अधिकार पर सवाल करके ही दूर की जा सकती है। ताक़त के बेजा इस्तेमाल के ख़िलाफ़ सामाजिक जागरुकता के ज़रिए ही। 

यह क़ानूनी मसला तो है, लेकिन यह हिंसा के प्रति सामाजिक नज़रिए का सवाल है। पुलिस का नज़रिया तबतक नहीं बदल सकता जबतक समाज का ताक़त के इस्तेमाल को लेकर रवैया नहीं बदलता।