जेएनयू के छात्रसंघ चुनाव में वामपंथी पैनल की ज़बरदस्त जीत की पूरे देश में चर्चा है। मोदी सरकार बनने के बाद से ही यह विश्वविद्यालय और यहाँ के वामपंथी छात्रसंगठन लगातार सरकार के निशाने पर रहे हैं। इस विश्वविद्यालय को देशद्रोहियों के अड्डे के रूप में प्रचारित किया गया। मीडिया ने इसके लिए फ़र्ज़ी क़िस्से गढ़ने में कोताही नहीं बरती, लेकिन दमन के दास साल बाद, सारे सत्ता संरक्षण के बावजूद अगर जेएनयू के छात्रों ने आरएसएस के छात्रसंगठन एबीवीपी को नकारा और वामपंथी पैनल का समर्थन दिया तो यह सामान्य बात नहीं है।
छह नवंबर को आये रिज़ल्ट के मुताबिक़ आइसा यानी ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन की अदिति मिश्रा जेएनयू की अध्यक्ष चुनी गयी हैं। बनारस की रहने वाले अदिति मिश्रा जेएनयू के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज से पीएचडी कर रही हैं। उपाध्यक्ष एसएफआई की के. गोपिका बाबू, जनरल सेक्रेटरीडी डीएसफ के सुनील यादव और जॉइंट सेक्रेटरी आइसा की दानिश अली चुनी गयीं। चारों ही विजेता प्रत्याशी जेएनयू से पीएचडी कर रहे हैं और चारों का शानदार शैक्षिक रिकॉर्ड रहा है। आइसा, एसएफआई और डीएसएफ ने मिलकर जिस लेफ़्ट यूनिटी पैनल को उतारा था, उसमें तीन छात्राओं का होना भी बहुत कुछ कहता है। वैसे भी जेएनयू में जीत के लिए एक ऐसा इम्तहान देना होता है जो बाक़ी जगह नज़र नहीं आता।
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव की प्रक्रिया क्या?
दरअसल, जेएनयू के छात्रसंघ चुनाव में प्रशासन की कोई भागीदारी नहीं होती। पूरी तरह छात्र ही इसे संचालित करते हैं। छात्रसंघ चुनाव के पहले निर्वाचन अधिकारियों का चुनाव होता है। कोई बाहर का चुनाव आयोग नहीं होता। तमाम प्रत्याशियों के बीच होने वाली डिबेट काफ़ी चर्चा बटोरती है। उम्मीदवारों को सिर्फ़ भाषण नहीं देना होता, छात्रों के बीच से आने वाले कड़े से कड़े सवालों का जवाब देना होता है। इसमें राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय विषयों से लेकर निजी विचारधारा तक के सवाल होते हैं। कैंपस में हाथ के बने पोस्टर, पर्चे और मशाल जुलूस एक अलग तरह का माहौल रचते हैं जो अन्य विश्वविद्यालयों में अब शायद ही दिखाई पड़ता हो। छात्रसंघों के लिए बनी लिंगदोह कमिटी ने भी कहा था कि जेएनयू मॉडल को कॉपी करना मुश्किल है।
जेएनयू की वैश्विक प्रतिष्ठा है। देश का बेहतरीन विश्वविद्यालय होने का ख़िताब तो उसे मोदी राज में भी लगातार मिलता रहा है। इस विश्वविद्यालय में पैठ बढ़ाना आरएसएस का पुराना सपना रहा है। केंद्र में सत्ता होने पर इस दिशा में पूरी ताक़त लगायी जाती है।
इस बार भी जीत वामपंथी पैनल को मिली है लेकिन एबीवीपी चारों अहम पदों पर दूसरे नंबर पर रहा है जो बताता है कि संघ का प्रभाव बढ़ रहा है। आरोप है कि इस विश्वविद्यालय में बड़ी तादाद में आरएसएस से जुड़े शिक्षकों की भर्ती की गयी है। कुलपति तो संघ की पृष्ठभूमि का होता ही है।
मोदी राज में इस विश्वविद्यालय में न सिर्फ़ संघ की शाखाएँ लगती हैं बल्कि पथ संचलन भी होता है। पथ संचलन यानी संघ के स्वयंसेवकों का मार्चपास्ट। 2014 के पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। शायद इसी को देखते हुए एबीवीपी को उम्मीद थी कि इस बार उसे सफलता मिलेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अतीत में-
- एबीवीपी की ओर से 2000-01 में संदीप महापात्रा ने अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की थी।
- एबीवीपी के सौरभ शर्मा ने 2015 में संयुक्त सचिव पद पर जीत हासिल की थी।
- वैभव मीणा ने 2024-25 के चुनाव में संयुक्त सचिव पद जीता था।
एबीवीपी सिर्फ़ तीन बार जीती
यानी बीते 25 सालों में एबीवीपी को सिर्फ़ तीन बार छात्रसंघ में जीत हासिल हुई। ज़ाहिर है, आरएसएस और बीजेपी की नज़र में जेएनयू हमेशा खटकता रहा जहाँ के छात्र किसी विचारक के प्रवचन को सुनकर प्रचारक बनने को तैयार नहीं होते। बल्कि विचार के हर मोर्चे पर ज़बरदस्त बहस छेड़ते हैं। उनके पास दुनिया भर में चल रहे शोध और अनुसंधान के बारे में ताज़ा जानकारियाँ होती हैं। ज़ाहिर है शक्ति के बल पर आदेशपालक समाज बनाने की आकांक्षा रखने वालों को न जवाहरलाल नेहरू पसंद रहे हैं और न उनके नाम पर बनी यूनिवर्सिटी।
जेएनयू की खासियत
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) की स्थापना 1969 में हुई थी। यानी उनके निधन को पाँच साल बाद। 22 अप्रैल 1965 को संसद ने JNU एक्ट पास किया। 14 नवंबर 1969 को जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन पर यूनिवर्सिटी को समर्पित किया गया। पहले कुलपति जी. परथसारथी बने और पहले 1971 में छात्रों का पहला बैच आया। लक्ष्य था- "राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय, वैज्ञानिक सोच और अंतरराष्ट्रीय समझ को बढ़ावा देना।"
वी.ओ—7- JNU को "इंटर-डिसिप्लिनरी" यूनिवर्सिटी के रूप में डिजाइन किया गया – कोई पारंपरिक डिपार्टमेंट नहीं, बल्कि स्कूल्स और सेंटर्स (जैसे स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, स्कूल ऑफ लैंग्वेज)। डिप्राइवेशन पॉइंट सिस्टम शुरू से लागू किया गया जिससे –गरीब, महिला, ग्रामीण, SC/ST को एडमिशन में फायदा हुआ। हॉस्टल कल्चर और डिबेट्स – यूनिवर्सिटी का DNA ही बन गया। और ये नेहरू की सोच का ही असर था जिन्होंने कहा था-
हम एक ऐसी यूनिवर्सिटी चाहते हैं जो न सिर्फ डिग्री दे, बल्कि सोचने का तरीका सिखाये। जवाहर लाल नेहरू
भारत के पहले प्रधानमंत्री
पांचजन्य की स्टोरी पर विवाद
लेकिन यही प्रोग्रेसिव, सवाल उठाने वाला स्वभाव ही इसे राजनीतिक हमलों का निशाना बनाता रहा। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस यूनिवर्सिटी पर चौतरफ़ा हमला शुरू हो गया। लेकिन पहले माहौल बनाया गया। नवंबर 2015 में आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य ने जेएनयू को ‘देशद्रोही’ बताने वाली एक प्रमुख स्टोरी को प्रकाशित की थी। ये स्टोरी कवर आर्टिकल के रूप में थी। इसमें कहा गया कि जेएनयू में राष्ट्र-विरोधी (anti-national), नक्सली (Naxalite) और हिंदू-विरोधी (anti-Hindu) गतिविधियों का केंद्र है, जहाँ कैंपस में प्रोफेसर और छात्र अक्सर राष्ट्रीय एकता और संस्कृति को तोड़ने के तरीकों पर चर्चा करते हैं। लेख में जेएनयू को "राष्ट्रवाद को अपराध" मानने वाला संस्थान बताया गया था जहां भारतीय संस्कृति को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है। जेएनयू में एक ‘बड़ा राष्ट्र-विरोधी ब्लॉक’ पल रहा है, जिसका एकमात्र लक्ष्य ‘भारत को तोड़ना’ है!
ये स्टोरी काफी विवादास्पद रही। कांग्रेस ने इसे मानहानि बताकर जेएनयू को पांचजन्य पर मुक़दमा करने की सलाह दी। जेएनयू वीसी ने इसे ‘इमेज खराब करने की साजिश’ कहा। वामपंथी छात्र संगठनों ने भी इसे ‘पुरानी साजिश’ बताया, जो चुनावी मौसम में उभरती है। लेकिन उन्हें पता नहीं था कि आने वाले दिनों में क्या होने वाला है।
कन्हैया कुमार विवाद
कन्हैया कुमार आजकल कांग्रेस के नेता बतौर देश भर में पहचाने जाते हैं। लेकिन 2015 में वे जेएनयू के चर्चित वामपंथी छात्र नेता थे जिनका संबंध एआईएसएफ़ से था जो सीपीआई से जुड़ा है। उस साल कन्हैया कुमार छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गये थे। उनकी प्रेसीडेंशियल डिबेट की स्पीच वायरल हुई थी। उनका आज़ादी को लेकर लगाया जाने वाला संगीतमय नारा काफ़ी मशहूर था। लेकिन आरोप लगा कि वे जेएनयू के एक कार्यक्रम में भारत को तोड़ने के संबंध में नारा लगा रहे थे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बीजेपी नेताओं से लेकर मीडिया के बड़े हिस्से ने कन्हैया और जेएनयू के ख़िलाफ़ उन्माद पैदा करने मे पूरी ताक़त लगा दी।
13 फरवरी को दिल्ली पुलिस ने कन्हैया को गिरफ्तार कर लिया। उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य भी अरेस्ट हुए। कन्हैया ने आरोप नकारा– कहा, "मैंने कभी देश के खिलाफ नारा नहीं लगाया।" जेएनयू में हड़ताल हुई, विपक्षी पार्टियां, टीचर्स और एक्टिविस्ट्स ने सपोर्ट किया। लेकिन कोर्ट ले जाते वक्त कन्हैया कुमार को पीटा गया। इस मामले में चार्जशीट दाखिल होने में पाँच साल लग गये। बहरहाल, अब यह साफ़ है कि कन्हैया कुमार इस कार्यक्रम में मौजूद ही नहीं थे जहाँ नारे लगे थे। वैसे भी, नारों के साथ भी छेड़छाड़ हुई थी। कई न्यूज़ चैनल वालों ने फ़र्ज़ी वीडियो बनाकर जेएनयू और कन्हैया कुमार को बदनाम किया।
केस अब भी जारी है। कन्हैया कुमार बार-बार कहते हैं कि उनके मुक़दमे का जल्द फ़ैसला हो लेकिन सरकार का मुख्य मुद्दा, इस मुद्दे को बनाये रखने का है। जेएनयू और कन्हैया कुमार देशद्रोही हैं…क्यों हैं कैसे हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। बीजेपी के तरकश में एक तीर हैं- ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ जिसका इस्तेमाल अक्सर ही विरोधियों के ख़िलाफ़ किया जाता है।
छात्रसंघ चुनाव का नतीजा बताता है कि जेएनयू सिर्फ़ सरकार नहीं, आरएसएस के सैद्धांतिक विरोध का केंद्र अब भी बना हुआ है। आरएसएस बैकग्राउंड वाले तमाम शिक्षकों की नियुक्ति और दूसरे तमाम षड्यंत्र भी उसे सफल नहीं होने दे रहे हैं। इस बीच डिप्राइवेशन प्वाइंट ख़त्म करके और इंटरव्यू को ज़्यादा महत्व देकर पीएचडी कार्यक्रम में समर्थक छात्रों की तादाद बढ़ायी गयी है लेकिन आम माहौल अभी भी आरएसएस के ख़िलाफ़ है।
जेएनयू जैसा श्रेष्ठ विश्वविद्यालय किसी भी देश के लिए गर्व का विषय होना चाहिए। लेकिन जिस तरह से मौजूदा सरकार और आरएसएस ने उसे निशाना बनाया है, वह बताता है ज्ञान का एक चमकदार परिसर उनकी आँखों में चुभ किस कदर चुभ रहा है। वे भूल गये हैं कि मात्र बोर्ड लटका लेने से भारत विश्व-गुरु नहीं बन सकता। इसके लिए वैश्विक स्तर के शिक्षा संस्थानों का होना भी ज़रूरी है।