एक सच्चे भारतीय को क्या-क्या करना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को बताया है कि सोशल मीडिया पर सेना या चीन के बारे में ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिससे सेना का मनोबल कमज़ोर हो। सुप्रीम कोर्ट की इस सलाह पर सवाल नहीं खड़े करते हैं।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सुझाई राह पर चलते हुए यह तो देखा ही जा सकता है कि किसी सच्चे भारतीय को क्या-क्या नहीं करना चाहिए।
  • मसलन क्या किसी सच्चे भारतीय को घूस लेनी चाहिए?
  • क्या किसी सच्चे भारतीय को झूठ बोलना चाहिए?
  • क्या किसी सच्चे भारतीय को जाति-व्यवस्था पर भरोसा करना चाहिए?
  • क्या किसी सच्चे भारतीय को सांप्रदायिक भावनाओं को बढ़ावा देना चाहिए?
  • क्या किसी सच्चे भारतीय को लैंगिक भेदभाव करना चाहिए?
  • क्या किसी सच्चे भारतीय को किसी अन्याय में साथ देना चाहिए? 
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ये बहुत सरल सवाल हैं। 

कोई बच्चा भी कहेगा कि किसी सच्चे भारतीय को क्या, किसी सच्चे इंसान को भी यह सब नहीं करना चाहिए। यह अलग बात है कि ख़ुद को भारतीय बताने वाले लाखों नहीं करोड़ों लोग ऐसे तमाम कृत्यों में शामिल रहते हैं।
  • वे घूस लेकर कोठियां बनवाते हैं और दहेज लेकर रिश्ता तय करते हैं। 
  • वे जाति देखकर शादी करते हैं और धर्म देखकर हत्या। 
  • वे स्त्रियों को दोयम दर्जे का मानते हैं और आदिवासियों-दलितों को पराया। 
  • कभी वे 3000 सिखों को मार सकते हैं तो कभी 2000 मुसलमानों को। 
  • और इसमें वे कांग्रेस और बीजेपी का भी खेल कर सकते हैं। जबकि मारने वाले भी भारतीय होते हैं और मरने वाले भी। 
  • न वे 1984 में किसी और देश से आए होते हैं और न 2002 में।
वे यहीं के लोग होते हैं जिनके बहाने और निशाने बदल जाते हैं- जिनकी दलगत पहचान भी। निस्संदेह सच्ची भारतीयता यह सब नहीं है- सच्चे भारतीय को यह सब नहीं करना चाहिए। 

लेकिन इसके बाद एक मुश्किल सवाल आता है।
सच्ची भारतीयता क्या होती है?
काश कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी परिभाषित करने की जहमत उठाई होती। तब पता चलता कि उसकी जो भी कसौटी हो, उस पर इस देश के 140 करोड़ नागरिक खरे नहीं उतर सकते। 

दरअसल सच्ची भारतीयता जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती। जो हो सकती है, वह बस भारतीयता है।
यह एक अवधारणा है जिसका भूगोल है, जिसकी संस्कृति है और जिसकी नागरिकता है। इस भूगोल और संस्कृति के दायरे में जो भी समाते हैं, वे भारत के नागरिक हैं। इन नागरिकों में कुछ ऐसे हैं जो दूसरे नागरिकों का शोषण करते हैं और बहुत सारे ऐसे हैं जो इस शोषण के शिकार होते हैं।
कुछ ऐसे हैं जो अन्याय करते हैं और कुछ ऐसे हैं जो अन्याय सहते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो अन्याय का प्रतिरोध करते हैं और कभी-कभी गोली खाकर मर जाते हैं। इन्हें मारने वाले भी भारतीय ही होते हैं।
लेकिन इन सबको देख-समझ कर भी इनसे आंख मूंदना और सच्ची भारतीयता की बात करना एक ऐसे भाववाद में दाख़िल होना है जिसका कम से कम न्याय के तर्कशास्त्र से कोई रिश्ता नहीं हो सकता।
सुप्रीम कोर्ट के जज ऐसे भाववाद के शिकार हों तो कुछ ज़्यादा हैरानी होती है। यह जान लें कि नागरिकता अलग है और भारतीयता अलग।
नागरिकता एक तथ्य है और भारतीयता एक भाव।
कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक होते हुए भी यूरोप के सपनों में जी सकता है। जबकि कोई विदेशी भारत से अभिभूत यहीं आकर बस जाने की सोच सकता है। लेकिन जब कोई संस्थान या राजनीतिक दल सच्ची भारतीयता की बात करने लगता है तो संदेह होता है कि उसे भारत और भारतीयता की नहीं, अपने एजेंडे की परवाह है।
वह बहुत सारे भारतीयों को अभारतीय साबित करना अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है। क्या इत्तिफ़ाक़ है कि इस देश में लंबे अरसे से अभारतीय लोगों की तलाश का अभियान चल रहा है। दिल्ली से मुंबई तक अवैध बांग्लादेशी खोजे जा रहे हैं।
  • असम में लाखों लोगों की नागरिकता संदिग्ध बना दी गई है। 

  • बिहार में लाखों लोगों को मतदान के मौलिक अधिकार से वंचित करने की तैयारी है।
सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग को यह नहीं बता रहा कि हर भारतीय को- वह सच्चा हो या झूठा- वोट देने का अधिकार इस देश के संविधान ने दिया है। उसे कुछ दस्तावेज़ों की कमी से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। अगर आप नागरिकता की ऐसी जांच पड़ताल पर एतराज़ करें तो कहा जाता है कि यह देश धर्मशाला नहीं है।
यह सच है कि देश धर्मशाला नहीं होते- लेकिन उन्हें धर्मशालाओं जैसा होना चाहिए।
अमेरिका की एक ताक़त इस बात में भी है कि उसने अरसे तक ख़ुद को धर्मशाला जैसा बनाए रखा। दूसरे देशों के लोग वहां बसते रहे और अमेरिकी बनते रहे। भारत जैसा देश भी चार हज़ार साल तो धर्मशाला ही रहा। तमाम धर्मों के लोग यहां आकर बसते और यहां के होते रहे। धर्मशाला शब्द शायद बना भी ऐसे ही किसी अनुभव से होगा।
बहरहाल, वाकई किसी राष्ट्र राज्य को इतना लचीला नहीं होना चाहिए कि लोग उसे धर्मशाला मानने लगें। लेकिन उसे इतना सख़्त भी नहीं होना चाहिए कि वह किसी को जेल लगने लगे। दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसी जेलें बढ़ती जा रही हैं। असम में संदिग्ध नागरिकों के लिए 10 डिटेंशन कैंप बनाए जाने हैं, जिनमें छह बन चुके और चल रहे हैं। इनमें 1000 से ज़्यादा लोग रखे गए हैं। लेकिन हमारी भारतीयता इतने से संतुष्ट नहीं है।
जहां ऐसे डिटेंशन सेंटर नहीं हैं, वहां भी ऐसी मनोवैज्ञानिक जेलें बना दी गई हैं जिनमें रहने वाले समुदाय ख़ुद को दोयम दर्जे का नागरिक- कुछ कम भारतीय- महसूस करने को मजबूर हैं। इस देश के करोड़ों अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों को वे नागरिक अधिकार हासिल नहीं हैं जो संविधान और लोकतंत्र ने उन्हें मुहैया कराने की गारंटी दी है।
तो भारतीयता के भीतर बहुत सारी अदृश्य दीवारें बढ़ती जा रही हैं। ये दीवारें अपने-आप नहीं बनी हैं, इनके पीछे ख़ुद को कुछ ज़्यादा भारतीय मानने वालों की बड़ी भूमिका है- उन लोगों की, जो दूसरों की भारतीयता पर संदेह करते हैं। यह दरअसल भारतीयता को कमज़ोर करते हैं।
वे राजनीति के लिए लोकतंत्र को कमज़ोर करते हैं। वे सत्ता के लिए सच्ची भारतीयता को असंभव बनाते हैं। वे सच्ची भारतीयता का विशेषाधिकार कुछ ही लोगों तक सीमित रखना चाहते हैं। प्रतीक्षा रहेगी कि सुप्रीम कोर्ट कभी उनसे भी उनकी सच्ची भारतीयता का हिसाब मांगे।