रविवार 21 सितंबर को जब ग़ज़ा की धरती इसराइली बमबारी की आग में जल रही थी, एक ऐतिहासिक खबर ने दुनिया का ध्यान खींचा। यूनाइटेड किंगडम, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र, संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता देने का ऐलान किया। उसी दिन ग़ज़ा में 37 लोग मारे गए, कुल 55 फिलिस्तीनियों की जान गई। सवाल है कि क्या इसराइल की बर्बरता को रोकने में असफल रहे पश्चिमी देश अब मान्यता की आड़ में अपनी शर्म ढँक रहे हैं। या ये इसराइल को हर हाल में जायज़ ठहराने की अमेरिकी नीतियों के साये से निकलने की एक कोशिश है? और क्या महज़ ‘मान्यता' देकर इसराइल बर्बरता को रोका जा सकता है?

मान्यता का महत्व

21 सितंबर 2025 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर, कनाडाई प्रधानमंत्री मार्क कार्नी और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज ने एक साथ फिलिस्तीन को मान्यता देने की घोषणा की। स्टार्मर ने कहा कि यह कदम शांति की उम्मीद को जिंदा रखने के लिए है - एक ऐसा भविष्य जहां इसराइल सुरक्षित हो और फिलिस्तीन का अपना स्वतंत्र राज्य हो। कनाडा ने इसे "शांतिपूर्ण भविष्य" की दिशा में कदम बताया, जबकि ऑस्ट्रेलिया ने ग़ज़ा में तत्काल युद्धविराम की मांग की। यह फैसला उस वक्त आया, जब ग़ज़ा में इसराइल की सैन्य कार्रवाइयों ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया है और अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है।
इस मान्यता का मतलब गहरा है। फिलिस्तीन को मान्यता का मतलब है कि फिलिस्तीन उस देश में दूतावास खोल सकता है, अंतरराष्ट्रीय संधियाँ कर सकता है और वैश्विक मंचों पर उसके समर्थन में विस्तार होता है। फिलिस्तीनी विदेश मंत्री ने इसे "ऐतिहासिक" बताया, जो उनके देश को ‘संप्रभुता’ की ओर ले जाएगा। वैसे इन देशों ने साफ किया कि यह मान्यता हमास को समर्थन नहीं है। हमास ग़ज़ा में सशस्त्र समूह है जिसे ये देश आतंकी संगठन मानते हैं। इन देशों का कहना है कि समास को फिलिस्तनी सरकार या सुरक्षा में कोई भूमिका नहीं दी जायेगी।

इसराइल की प्रतिक्रिया

इसराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इस ‘मान्यता’ को "आतंकवाद को इनाम" करार दिया है। उन्होंने साफ कहा, "कोई फिलिस्तीनी राज्य नहीं होगा।"  इसराइली विदेश मंत्रालय ने इसे 7 अक्टूबर 2023 के हमास हमले का पुरस्कार बताया, जिसमें 1200 इसराइली मारे गए थे। ज़ाहिर है यह मान्यता नेतन्याहू की उन नीतियों का कडा विरोध है, जो ‘दो-राज्य समाधान' के सिद्धांत को कमजोर कर रही हैं। इसराइल वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियां बढ़ा रहा है, जिसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र अवैध मानते हैं। 

2025 में इसराइल ने 20,000 से ज्यादा नई बस्ती इकाइयों को मंजूरी दी, जो फिलिस्तीनी क्षेत्र को सिकोड़ रही हैं।

वैश्विक समर्थन और संयुक्त राष्ट्र

फ्रांस, पुर्तगाल, बेल्जियम, लक्जमबर्ग, माल्टा और न्यूजीलैंड जैसे 10 देश अब फिलिस्तीन को मान्यता देने की दिशा में बढ़ रहे हैं। अब तक 151 देश फिलिस्तीन को मान्यता दे चुके हैं, जिनमें भारत, स्वीडन और कई अरब देश शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन को 2012 से "नॉन-मेम्बर ऑब्जर्वर स्टेट" का दर्जा प्राप्त है, लेकिन पूर्ण सदस्यता के लिए सुरक्षा परिषद की मंजूरी चाहिए, जहां अमेरिका बार-बार वीटो करता है। हाल ही में, 18 सितंबर 2025 को सुरक्षा परिषद में ग़ज़ा में युद्धविराम और मानवीय सहायता का प्रस्ताव आया, जिसे अमेरिका ने वीटो कर दिया - यह छठा मौका था।

अमेरिकी रुख और ग़ज़ा की तबाही

अमेरिका का इसराइल समर्थन ऐतिहासिक और रणनीतिक है। वह हर साल इसराइल को अरबों डॉलर की सैन्य सहायता देता है और संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के खिलाफ प्रस्तावों को वीटो करता है। हालांकि, अमेरिकी जनता का मूड बदल रहा है - 53% लोग अब इसराइल की नीतियों के खिलाफ हैं। ग़ज़ा में 7 अक्टूबर 2023 को हमास के हमले ( जिसमें1200 इसराइली मरे) के बाद  जवाबी कार्रवाई ने 65,000 से ज्यादा फिलिस्तीनियों की जान ले ली, जिनमें 28,000 महिलाएं और लड़कियां हैं। ग़ज़ा सिटी, खान यूनिस और राफा जैसे शहरों में 80% इमारतें नष्ट हो चुकी हैं।

दो-राज्य सिद्धांत और ब्रिटेन

‘दो-राज्य सिद्धांत’ संयुक्त राष्ट्र का विचार है, जो 1947 के रेजोल्यूशन 181 से शुरू हुआ। इसमें फिलिस्तीन को दो देशों - इसराइल और फिलिस्तीन - में बाँटने की बात थी। 1967 के रेजोल्यूशन 242 ने इसे "लैंड फॉर पीस" के सिद्धांत से मजबूत किया। लेकिन विडंबना यह है कि आज फिलिस्तीन को मान्यता देकर शांति की बात करने वाला यूनाइटेड किंगडम ही इस विवाद की जड़ है। 1917 में ब्रिटेन ने बाल्फोर डिक्लेरेशन के जरिए यहूदियों के लिए फिलिस्तीन में "राष्ट्रीय घर" का वादा किया, जिसने जायनवादी आंदोलन को बल दिया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने ओटोमन साम्राज्य से फिलिस्तीन पर कब्जा किया और अरबों के साथ किये गए स्वतंत्रता के वादे को तोड़ दिया। इसके बाद 1948 से लेकर 1967 तक कई युद्धों ने फिलिस्तीनी क्षेत्र को सिकोड़ दिया। आज नेतन्याहू साफ़ कहते हैं कि कोई फिलिस्तीनी राज्य नहीं होगा यानी फिलिस्तीन को खत्म करना चाहते हैं।

भारत और गाँधी का दृष्टिकोण

भारत का फिलिस्तीन के प्रति समर्थन ऐतिहासिक रहा है। 1947 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में विभाजन योजना (रेजोल्यूशन 181) का विरोध किया और एक एकीकृत फिलिस्तीनी राज्य की वकालत की। 1974 में भारत ने PLO को मान्यता दी और 1988 में फिलिस्तीनी राज्य को। महात्मा गांधी ने 1938 में अपने पत्र "हरिजन" में लिखा, "फिलिस्तीन अरबों का है, जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों का है। अरबों पर यहूदियों को थोपना अन्यायपूर्ण और अमानवीय है।" उन्होंने ब्रिटिश नीतियों को अनैतिक बताया और यहूदियों को सत्याग्रह की सलाह दी। 
लेकिन मोदी सरकार का रुख काफ़ी भ्रम भी पैदा करता है। सरकार इसराइल से हथियार और तकनीक खरीदती है, और मोदी-नेतन्याहू की दोस्ती भी जगजाहिर है। फिर भी दिसंबर 2024 और सितंबर 2025 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इसराइली कब्जे के खिलाफ और दो-राज्य समाधान के पक्ष में वोट करके भारत की पारंपरिक नीति क़ायम रखी।  इसके बावजूद, भारत में फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनों पर रोक लगायी जाती है और प्रदर्शनकारियों पर FIR दर्ज होती हैं। विपक्ष इसे हिंदुत्व एजेंडे से जोड़ता है, जो इसराइल के साथ रिश्तों को प्राथमिकता देता है। यह दोहरा रवैया भारत की पारंपरिक फिलिस्तीन समर्थक नीति से टकराता है।

फिलिस्तीन का संघर्ष सिर्फ़ ज़मीन का नहीं, इंसाफ और इंसानियत का भी है। यूके, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की मान्यता इस दिशा में एक कदम है, जो इसराइल की विस्तारवादी नीतियों को चुनौती देता है। भारत को अपने ऐतिहासिक समर्थन और वर्तमान रणनीतिक हितों में संतुलन बनाना होगा। गांधी और नेहरू ने जिस नीति की नींव रखी, वह आज भी प्रासंगिक है। पश्चिमी देश अब उसी रास्ते पर चल रहे हैं, जो भारत ने दशकों पहले अपनाया था। लेकिन जब तक अमेरिका जैसे देश इसराइल के पीछे खड़े हैं और ग़ज़ा में तबाही जारी है, शांति की राह मुश्किल बनी रहेगी। दुनिया को अब यह तय करना है कि वह इंसाफ के साथ खड़ी होगी या ताकत के साथ।