एक ओर जहां नागरिकता विधेयक को क़ानून बनाने की तैयारी चल रही है, असम के मूल निवासी ख़ुद को पहले से अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। क्यां वहा बाहरी लोगों के ख़िलाफ़ वैसा ही माहौल बनता जा रहा है, जैसा तक़रीबन 30 साल पहले असम आंदोलन के दौरान था? बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार समुद्रगुप्त कश्यप।
नागरिकता विधेयक को लोकसभा से पास हुए एक हफ़्ते हो जाने के बाद भी असम में इसके ख़िलाफ विरोध जारी है। लोगों में डर बैठ गया है कि असम समझौते के तहत असम और स्थानीय लोगों को जो सुरक्षा मिली हुई थी, वह ख़त्म हो जाएगी और वे लोग अपनी ही जमीन पर अल्पसंख्यक हो जाएँगे। एक दूसरा मुद्दा भी है। एक बार नागरिकता विधेयक क़ानून बन गया तो लोगों को संविधान के विपरीत पहली बार धर्म के आधार पर विदेशियों, ग़ैरक़ानूनी प्रवासियों और नागरिकों में बाँट दिया जाएगा।
डरे हुए हैं लोग
असम समझौते के ख़िलाफ़
असम समझौते की धारा 5 के मुताबिक़, 24 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से आए लोगों की पहचान कर उनको न केवल चुनाव सूची से अलग किया जाना चाहिए, बल्कि राज्य से बाहर भी कर देना चाहिए। यह धारा धर्म के आधार पर लोगों में कोई भेद नहीं करती। असम समझौते की धारा 6 असम और राज्य के स्थानीय लोगों को संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
पिछले साठ सत्तर सालों में असम के दस ज़िलों में मुसलिम बहुसंख्यक हो गए हैं यानी वहाँ उनकी संख्या हिंदुओं से अधिक है। दूसरी ओर, पिछले चालीस सालों में असम और स्थानीय भाषा बोलने वालों की संख्या भी काफ़ी कम हुई है।
1971 की जनगणना के हिसाब से असम में असमवासी कुल जनसंख्या के 60.89 प्रतिशत थे। लेकिन 2011 की जनगणना के मुताबिक़ यह आँकड़ा घट कर 48.38 फ़ीसद हो गया। यानी कुल 12.51% प्रतिशत की कमी आई। इसके विपरीत बांगला बोलने वालों की संख्या 19.70 फ़ीसद से बढ़कर 2011 में 29.91 प्रतिशत हो गई। इसी तरह से मुसलिम आबादी भी 2011 में 24.46% फ़ीसद से बढ़कर 34.22 फ़ीसद हो गई। हालाँकि असम में बांग्लाभाषियों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा होगी। एक सचाई यह भी है कि ज़्यादातर बांग्लाभाषी चाहे वो 1971 के पहले आए हो या इसके बाद, सार्वजनिक मौक़ों पर असमिया ही बोलते हैं। ये अपने घरों में बांग्ला में बात करते हैं।
असम का बांग्लाभाषी समुदाय (फ़ाइल फ़ोटो)
दृष्टिकोण बदला
अब जब कि नागरिकता विधेयक को क़ानून बनाने की तैयारी चल रही है, असम और स्थानीय लोगों के मन में यह डर गहराता जा रहा है कि एक तबके के लोगों को नागरिकता देने से हालात पहले से बदतर होंगे।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2016 के विधानसभा चुनाव के समय बीजेपी ने विदेशी प्रवासियों से जाति, माटी और भेटी (अस्मिता, जमीन और घरद्वार) की रक्षा का वायदा किया था।
गै़ैरक़ानूनी प्रवासी कानून 2006 को ख़त्म करते समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि असम, बांग्लादेश से बडी संख्या में आए ग़ैरक़ानूनी प्रवासियों की वजह से बाहरी आक्रमण और आंतरिक अव्यवस्था, दोनों झेल रहा है। तब धर्म के आधार पर भेद-भाव नहीं किया गया था। तब मौजूदा मुख्य मंत्री सरबानंद सोनोवाल ने सुप्रीम कोर्ट में याचजिका दायर की थी जो उस वक़्त असम गण परिषद के सांसद थे। अब यह सरकार का उत्तरदायित्व है कि वो असम के लोगों को समझाएँ कि नागरिकता क़ानून से स्थानीय निवासियों को कोई ख़तरा नहीं होगा।