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फ़ाइल फ़ोटोफ़ेसबुक/नीतीश कुमार

तीन तलाक़ पर दोहरे रवैये से नीतीश को मुश्किल

राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के बाद भी मोदी सरकार ने तीन तलाक़ बिल को वहाँ से भी पारित करवा लिया है। इसके बाद जहाँ केंद्र सरकार और विशेष कर बीजेपी इसे मानवता, महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता सुनिश्चित करने वाला विधेयक बता रही है, वहीं बीजेपी की सहयोगी जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू का इस बिल पर विरोध रहा है। पार्टी का कहना है कि बिल पर सरकार को मुसलिम समुदाय के साथ बात करनी चाहिए थी और इस पर उनकी सहमति ज़रूरी थी। पार्टी के मुताबिक़ इस मामले पर अभी समाज में और जन जागरण की ज़रूरत है।

लेकिन बीते मंगलवार को तीन तलाक़ बिल के मुद्दे पर लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी जदयू का विरोध छुपे समर्थन के रूप में सामने आया। जदयू के सभी राज्यसभा सांसदों ने बजाय मतदान में भाग लेने के सदन का बहिष्कार कर दिया। इससे केंद्र सरकार को न केवल राहत मिली बल्कि इस बिल के राज्यसभा में पारित होने का रास्ता भी आसान हो गया।

जदयू ने अपने इस क़दम से केंद्र में अपनी गठबंधन की मोदी सरकार का रास्ता तो आसान कर दिया लेकिन क्या इससे ख़ुद उसकी आगे की राह मुश्किल हो गई है?

हालाँकि जदयू अभी बीजेपी के साथ मिलकर बिहार की सरकार चला रही है, लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार की दूसरी पारी में मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार और उसके बाद के कुछ घटनाक्रमों से ऐसे संकेत निकल रहे थे कि दोनों ही दल साल 2020 में होने वाला अगला बिहार विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ने की संभावना भी तलाश रहे हैं। बीजेपी की अपनी कई स्तर की तैयारियाँ रहती हैं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जदयू ने मुसलिम मतों के भरोसे ही पहले भी बीजेपी से गठबंधन तोड़ा था और इस बार भी उसकी तैयारी कुछ ऐसी ही मानी जाती है। जदयू के लिए संभावना भरे संकेत 2014 के आम चुनावों के दौरान भी दिखे थे। तब बीजेपी से अलग होने के क़रीब एक साल बाद हुए चुनाव में आम मतदाताओं के साथ-साथ कई मुसलिम मतदाता भी यह दोहराते दिखे थे कि वे विधानसभा चुनावों में जदयू का समर्थन करेंगे। इस चुनाव में जदयू का राजद से गठबंधन भी नहीं था।

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नीतीश क्या देना चाहते थे संदेश?

दरअसल, अपना जनाधार बढ़ाने के लिए जदयू की नज़र आरजेडी के 'मुसलमान वोट बैंक' पर हमेशा से रही है। हाल ही में बिहार सरकार द्वारा आरएसएस के अनुषंगी संगठनों और उसके नेताओं पर नज़र रखने के बारे में जारी किए गए आदेश का मामला सामने आया था। हालाँकि इसके बारे में सरकार का स्पष्टीकरण आ चुका है, लेकिन यह भी माना जाता है कि इस आदेश से मुसलमानों को जो राजनीतिक संदेश नीतीश देना चाहते थे, वह संदेश उन्होंने पहुँचा दिया।

लेकिन माना जा रहा है कि तीन तलाक़ बिल पर जदयू के रवैये ने उसकी मुसलमानों का व्यापक समर्थन हासिल करने कोशिश को धक्का पहुँचाया है। जानकारों की राय है कि जदयू के इस फ़ैसले से मुसलमानों में जदयू को लेकर दुविधा या भ्रम और बढ़ेगा।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अक्सर अपनी सरकार की वचनबद्धता (कमिटमेंट) यह कहकर दोहराते रहते हैं कि वह क्राइम, करप्शन और कम्युनलिज़्म से कभी समझौता नहीं करते हैं। माना जाता है कि इन तीन 'सी' में से कम्युनलिज़्म का ज़िक्र वे अपनी सेक्युलर छवि और मुसलिम आबादी को ध्यान में रखकर करते हैं जो कि बिहार की आबादी में क़रीब 17 प्रतिशत हिस्सा होने की वजह से चुनावी राजनीति के लिहाज़ से अहम हैं। आबादी का बड़ा हिस्सा होना और पूरे राज्य में फैला होना मुसलमान आबादी को चुनावी राजनीति में महत्त्वपूर्ण बना देता है। माना जाता है कि एमवाई यानी मुसलिम-यादव समीकरण के कारण ही लालू प्रसाद यादव या कहें कि राजद अभी भी बड़ी राजनीतिक ताक़त बना हुआ है।

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अल्पसंख्यकों के लिए चिंतित?

राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषकों के मुताबिक़ नीतीश मुसलमानों की चिंताओं, राजनीतिक एजेंडे, सवालों को ज़्यादा व्यापक संदर्भ में देखते-समझते हैं। नीतीश इस समुदाय के सामाजिक और आर्थिक न्याय से जुड़े सवालों को ज़्यादा व्यापक तरीक़े से उठाते भी हैं। नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ रहते हुए भी मुसलमानों के लिए नए-नए कई काम किए हैं। 2005 में पहली बार सत्ता में आने के बाद से ही उन्होंने मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिए सचेत प्रयास शुरू किया था। शुरुआत उन्होंने भागलपुर दंगा पीड़ितों को नए सिरे से न्याय दिलाने और आर्थिक मदद पहुँचाने की कोशिश से की थी। बाद के सालों में उन्होंने मदरसों के आधुनिकीकरण की पहल की और यहाँ के स्टूडेंट के लिए भी दूसरे सरकारी स्कूल के बराबर योजनाएँ शुरू कीं। इसके साथ-साथ उन्होंने कब्रिस्तान घेराबंदी, अल्पसंख्यक स्टूडेंट्स के लिए कोचिंग जैसे इंतज़ाम भी किए। इतना ही नहीं, 2017 में बीजेपी के साथ फिर से सरकार बनाने के बाद भी उन्होंने सरकारी अल्पसंख्यक हॉस्टल में रहने वाले स्टूडेंट के लिए एक हज़ार का वजीफा और 15 किलो मुफ़्त चावल देने की योजना शुरू की है। साथ ही उनकी सरकार ने पिछड़े वर्ग से आने वाले ऐसे मुसलिम कैंडिडेट को 50 हज़ार की प्रोत्साहन राशि देने का फ़ैसला किया है जो बीपीएससी और यूपीएससी में सफलता हासिल करेंगे।

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जदयू का भविष्य

मुसलमानों के सबलीकरण और उन्हें न्याय दिलाने के इन कोशिशों के बावज़ूद मुसलमानों के बीच स्वीकार्यता को लेकर नीतीश कुमार या कहें कि जदयू के साथ आज के दौर में सबसे बड़ी दिक़्क़त यह बताई जाती है कि 2013 में उनकी पार्टी सांप्रदायिकता के मुद्दे पर ही एनडीए से बाहर हुई थी और आज जब साम्प्रदायिकता का ख़तरा ज़्यादा गंभीर हो चला है तो उस दौर में वह फिर से बीजेपी के साथ शामिल हो गए हैं। लेकिन नीतीश की कोशिशों और सेक्युलर छवि के दम पर एक संभावना यह बन रही थी कि अगर नीतीश आने वाले दिनों में बीजेपी से अलग होकर बिना राजद के साथ गठबंधन किए भी चुनावी मैदान में उतरते हैं तो लगभग निष्क्रिय और दिशाहीन राजद के मुक़ाबले वह मुसलमानों के बड़े वर्ग का समर्थन शायद हासिल कर लेंगे।

लेकिन तीन तलाक़ बिल पर अपने रुख के कारण जदयू अब शायद ही मुसलिमों की पसंदीदा पार्टी बन पाए। माना जा रहा है कि जदयू के हालिया फ़ैसले से मुसलिमों के बीच पार्टी की स्वीकार्यता और घटेगी।

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मनीष शांडिल्य
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